प्र - भारत के पड़ोसी देशों में हिन्दुओं का उत्पीड़न हो रहा है, उनके विरुद्ध हिंसा हो रही है । विश्व में मानवाधिकार की चिंता करने वाले क्या हिन्दुओं की वैसी चिंता कर रहे हैं? संघ की प्रतिनिधि सभा में भी यह विषय उठा है । आपका इस पर क्या मत है?
हिन्दू की चिंता तब होगी, जब हिन्दू इतना सशक्त बनेगा – क्योंकि हिन्दू समाज और भारत देश जुड़े हैं, हिन्दू समाज का बहुत अच्छा स्वरूप भारत को भी बहुत अच्छा देश बनाएगा – जो अपने आप को भारत में हिन्दू नहीं कहते उनको भी साथ लेकर चल सकेगा क्योंकि वे भी हिन्दू ही थे। भारत का हिन्दू समाज सामर्थ्यवान होगा तो विश्व भर के हिन्दुओं को अपने आप सामर्थ्य लाभ होगा । यह काम चल रहा है, परन्तु पूरा नहीं हुआ है । धीरे-धीरे वह स्थिति आ रही है । बांग्लादेश में हिन्दुओं पर हुए अत्याचार पर आक्रोश का प्रकटीकरण इस बार जितना हुआ है, वैसा पहले नहीं होता था। यही नहीं, वहां के हिन्दुओं ने यह भी कहा है कि वे भागेंगे नहीं, बल्कि वहीं रहकर अपने अधिकार प्राप्त करेंगे । अब हिन्दू समाज का आतंरिक सामर्थ्य बढ़ रहा है । एक तरह से संगठन बढ़ रहा है, उसका परिणाम अपने आप आएगा । तब तक इसके लिए लड़ना पड़ेगा । दुनिया में जहां-जहां भी हिन्दू हैं, उनके लिए हिन्दू संगठन के नाते अपनी मर्यादा में रहकर जो कुछ कर सकते हैं वो सब कुछ करेंगे, उसी के लिए संघ है । स्वयंसेवक की प्रतिज्ञा ही ‘धर्म, संस्कृति और समाज का संरक्षण कर राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति’ करना है।
प्र - वैश्विक व्यवस्था में सैन्य शक्ति, राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक ताकत का अपना एक महत्व है। संघ इसके बारे में क्या सोचता है?
बल संपन्न होना ही पड़ेगा । संघ प्रार्थना की पंक्ति ही है –अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिम् – हमें कोई जीत ना सके इतना सामर्थ्य होना ही चाहिए । अपना स्वयं का बल ही वास्तविक बल है । सुरक्षा के मामले में हम किसी पर निर्भर न हों, हम अपनी सुरक्षा स्वयं कर लें, हमें कोई जीत न सके, सारी दुनिया मिलकर भी हमें जीत न सके, इतना सामर्थ्य संपन्न हमको होना ही है। क्योंकि विश्व में कुछ दुष्ट लोग हैं जो स्वभाव से आक्रामक हैं । सज्जन व्यक्ति केवल सज्जनता के कारण सुरक्षित नहीं रहता। सज्जनता के साथ शक्ति चाहिए। केवल अकेली शक्ति दिशाहीन होकर हिंसा का कारण बन सकती है। इसलिए उसके साथ ही सज्जनता चाहिए। इन दोनों की आराधना हमको करनी पड़ेगी। भारतवर्ष अजेय बने। ‘परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च दुष्कृताम्’ ऐसा सामर्थ्य हो । कोई उपाय नहीं चलेगा, तब दुष्टता को बलपूर्वक नष्ट करना ही पड़ेगा । परन्तु साथ में स्वभाव की सज्जनता है तो रावण को नष्ट कर उस जगह विभीषण को राजा बनाकर वापस आ जाएंगे । यह सारा, सारे विश्व के कारोबार पर हमारी छाया पड़े, इसलिए हम नहीं कर रहे । सभी का जीवन निरामय हो, समर्थ हो, इसलिए कर रहे हैं । हमें शक्ति संपन्न होना ही पड़ेगा क्योंकि दुष्ट लोगों की दुष्टता का अनुभव हम अपनी सभी सीमाओं पर ले रहे हैं।
प्र - भारत की भाषिक, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को ध्यान में रखते हुए संघ समावेशता को कैसे बढ़ावा दे रहा है?
संघ में आकर देखिये। सब भाषाओं के, पंथ संप्रदायों के लोग बहुत आनंद के साथ मिलकर संघ में काम करते हैं । संघ के गीत केवल हिंदी में नहीं हैं । बल्कि अनेक भाषाओं में हैं । हर भाषा में संघ गीत गाने वाले गीत गायक, गीतों की रचना करने वाले कवि, संगीत रचनाकार हैं । फिर भी सब लोग संघ शिक्षा वर्गों में जो तीन गीत दिए जाते हैं, वह भारत वर्ष में सर्वत्र गाते हैं । सभी लोग अपनी अपनी विशिष्टताओं को कायम रखकर अपने एक राष्ट्रीयत्व का सम्मान तथा सम्पूर्ण समाज की एकता का भान सुरक्षित रखकर चल रहे हैं। यही संघ है । इतनी विविधताओं से भरे समाज को एक सूत्र में पिरोने वाला सूत्र ही हम देते हैं ।
प्र - संघ सामाजिक समरसता की बात करता है और उसके लिए काम भी करता है। मगर कुछ लोग हैं जो समानता की बात करते हैं। आप इन दोनों में भेद कैसे देखते हैं?
समानता आर्थिक है, राजनैतिक है और सामाजिक समानता आनी चाहिए । नहीं तो इनका कोई अर्थ नहीं रहेगा । बंधुभाव ही समरसता है । स्वातंत्र्य और समता दोनों का आधार बंधुता है । समता बिना स्वतंत्रता के संकोच लाती है और टिकाऊ होनी है तो बंधुभाव का आधार चाहिए । यह बंधुभाव ही समरसता है । वह समता की पूर्व शर्त है । जात-पात और छुआ-छूत के विरोध में कानून होने के पश्चात भी विषमता नहीं जाती क्योंकि उसका निवास मन में रहता है । उसे मन से निकालना है । सब अपने हैं, इसलिए हम सब समान हैं, ये मानना है । दिखने में समान नहीं हैं तो भी हम एक-दूसरे के हैं, अपनत्व में बंधे हैं, इसी को समरसता कहते हैं । प्रेमभाव, बंधुभाव को ही समरसता कहते हैं ।
प्र - संघ में महिलाओं की भागीदारी को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं। उसके बारे में आप क्या कहेंगे?
संघ के प्रारम्भिक दिनों में, 1933 के आस पास, यह व्यवस्था बनी कि महिलाओं में व्यक्ति निर्माण और समाज संगठन का काम राष्ट्र सेविका समिति के द्वारा ही होगा । वह व्यवस्था चल रही है । जब राष्ट्र सेविका समिति कहेगी कि संघ भी महिलाओं में यह काम करे, तभी हम उसमें जाएंगे । दूसरी बात ये है कि संघ की शाखा का कार्यक्रम पुरुषों के लिए है । उन कार्यक्रमों को देखने के लिए महिलाएं आ सकती हैं और आती भी हैं । परन्तु संघ का कार्य केवल कार्यकर्ताओं के भरोसे नहीं चलता । हमारी माता-बहनों का हाथ लगता है, तभी संघ चलता है । संघ के स्वयंसेवक के घर में जितनी भी महिलाएं हैं, उतनी महिलाएं संघ में हैं । विभिन्न संगठनों में भी महिलाएं संघ के स्वयंसेवकों के साथ मिलकर काम करती हैं । संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में भी उनका प्रतिनिधित्व और सक्रिय सहभागिता है । इन महिलाओं ने पहली बार भारत के महिला जगत का व्यापक सर्वेक्षण किया, जिसको शासन ने भी स्वीकारा है । उन्हीं के द्वारा पिछले वर्ष सारे देश में बहुत बड़े महिला सम्मलेन हुए, जिनमें लाखों महिलाओं ने भाग लिया । इन सब कार्यों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन व सहयोग रहा । हम यह मानते हैं कि महिलाओं का उद्धार पुरुष नहीं कर सकते । महिलाएं स्वयं अपना उद्धार करेंगी, उसमें सबका उद्धार हो जाएगा । इसलिए हम उन्हीं को प्रमुखता देते हैं और जो वे करना चाहती हैं, उसके लिए उनको सशक्त बनाते हैं।
प्र - संघ के शताब्दी वर्ष में पंच परिवर्तन का संकल्प आया है। इसे लेकर कोई कार्य योजना बनाई है, इस के आधार पर आगे क्या कर सकते हैं?
आचरण के परिवर्तन के लिए आवश्यक बात है मन का भाव। जो काम करने से मन का भाव बदलता है, स्वभाव परिवर्तित हो जाता है, वह काम देना है। और जीवन भी ठीक हो जाता है। इसलिए पंच परिवर्तन की बात है। एक तो समरसता की बात है, अपने समाज में प्रेम उत्पन्न हो। विविध प्रकार का समाज है, विविध अवस्था में है, विविध भौगोलिक क्षेत्रों में है, समस्याएं हैं। एक नियम आपके लिए बना है, मेरे लिए ठीक होगा ही, ऐसा नहीं है। इतना बड़ा देश है। इसमें से अगर रास्ता निकालना है, तो जो भी प्रावधान करने पड़ेंगे, वे प्रावधान मन से होंगे तो सुरक्षित रहेंगे और प्रेम बढ़ेगा। सामाजिक समरसता का व्यवहार करना है। उसमें सामाजिक समरसता का प्रचार अभिप्रेत नहीं है। प्रत्यक्ष समाज के बाहर जितने प्रकार माने जाते हैं, हम तो एक मानते हैं, सब प्रकार के मेरे मित्र होने चाहिए, मेरे कुटुंब के मित्र होने चाहिए। जहां अपना प्रभाव है वहां मंदिर, पानी, श्मशान एक हों, यह प्रारंभ है, इसको बढ़ाते जाना है।
ऐसे ही कुटुंब प्रबोधन है। जो संसार को राहत देने वाली बातें हैं, जिन आवश्यक परंपरागत संस्कारों से आती हैं, हमारी कुल-रीति में हैं और देश की रीति-नीति में भी हैं। उन पर बैठ कर चर्चा करना और उस पर सहमति बनाकर परिवार के आचरण में लाना, यह कुटुंब प्रबोधन है।
पर्यावरण के लिए तो आंदोलन सहित बहुत सारी बातें चलती हैं। लेकिन, आदमी अपने घर में पानी व्यर्थ जाता है, चिंता नहीं करता। पहले करो। पेड़ लगाओ, प्लास्टिक हटाओ, पानी बचाओ। यह करने से समझ विकसित होती है, वह सोचने लगता है।
ऐसे ही स्व के आधार पर करो। अपने स्व के आधार पर व्यवहार करना चाहिए। हमारा सबका जो राष्ट्रीय स्व है, उस के आधार पर चलो। अपने घर के अंदर भाषा, भूषा, भोजन, भजन, भ्रमण यह अपना होना चाहिए। घर की चौखट के बाहर परिस्थिति के अनुसार करना पड़ता है। घर में तो हम हैं, वो रहेगा तो उसके कारण संस्कार भी बचेंगे। स्व-निर्भर देश को होना है तो हम बने तक अपने देश की वस्तुओं में काम चलाएं। इसकी आदत रखें। इसका अर्थ यह नहीं है कि अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बंद करो। उसका एक संतुलन है, मेरा चल सकता है उसको चलाऊँगा। देश की आवश्यकता है, कोई जीवनावश्यक काम है और बाहर देश से लाना पड़ेगा तो लाओ, लेकिन अपनी शर्तों पर, किसी के दबाव में नहीं। यह सब बातें बनेंगी, स्व का आचरण।
कानून, संविधान, सामाजिक भद्रता का पालन। ये पांच बातें लेकर स्वयंसेवक उस पथ पर आगे बढ़ेंगे और शताब्दी वर्ष समाप्त होने के बाद इसको शाखाओं के द्वारा समाज में ले जाएंगे। यह आचरण बनेगा तो वातावरण बनेगा, और वातावरण बनने से परिवर्तन आएगा। और बहुत सी बातें आगे की हैं, वो यहां से जाएंगी धीरे-धीरे शुरू होकर। ऐसा सोचा है। देखते हैं क्या होता है।
प्र - आने वाले 25 वर्ष के लिए क्या संकल्प है?
संपूर्ण हिन्दू समाज को संगठित करना और देश को परमवैभव संपन्न बनाना, उसके आगे एक अनकही बात है कि सम्पूर्ण विश्व को ऐसा बनाना है । डॉ. हेडगेवार के समय से ही यह दृष्टि है । उन्होंने 1920 में प्रस्ताव दिया था कि ‘भारत का सम्पूर्ण स्वातंत्र्य हमारा ध्येय है और स्वतन्त्र भारत दुनिया के देशों को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करेगा’ ऐसा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कहना चाहिए ।
प्र - संघ के 100 वर्ष होना और देश की आजादी के 100 वर्ष 2047 में पूरे होंगे । भारत विश्व गुरु कैसे बनेगा!
कुछ लोग तरह-तरह से भेद उत्पन्न करने का प्रयास करेंगे । इन सबको कैसे देखते हैं?
जो हमारी प्रक्रिया है, उसमें इन सब बातों की चिंता की गयी है । आत्मविस्मृति, स्वार्थ और भेद इन तीन बातों से लड़ते-लड़ते हम बढ़ रहे हैं। आज समाज के विश्वासपात्र बने हैं । यही प्रक्रिया आगे चलेगी । अपनत्व के आधार पर समाज के सभी लोग एक मानसिकता में आ जाएंगे । एक और एक मिलकर दो होने के बजाय ग्यारह होगा । भारतवर्ष को संगठित और बल संपन्न बनाने का काम 2047 तक सर्वत्र व्याप्त हो जाएगा और चलते रहेगा । समरस, सामर्थ्य संपन्न भारत के विश्व जीवन में समृद्ध योगदान को देखकर सब लोग उसके उदाहरण का अनुकरण करने के लिए आगे बढ़ेंगे । 1992 में हमारे एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने कहा था कि “इस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देखकर दुनिया के अन्यान्य देशों के लोग उस देश का अपना राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ खड़ा करेंगे। जिससे पूरे विश्व के जीवन में परिवर्तन आएगा”। यह प्रक्रिया 2047 के बाद प्रारम्भ होगी और इसे पूरा होने में 100 वर्ष नहीं लगेंगे । अगले 20-30 वर्षों में यह पूरी हो जाएगी।
हिन्दू समाज को अब जागृत होना ही पड़ेगा । अपने सारे भेद और स्वार्थ भूलकर हिन्दुत्व के शाश्वत धर्म मूल्यों के आधार पर अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और आजीविका के जीवन को आकार देकर एक सामर्थ्य संपन्न, नीति संपन्न तथा सब प्रकार से वैभव संपन्न भारत खड़ा करना पड़ेगा क्योंकि विश्व को नई राह की प्रतिक्षा है और उसको देना यह भारत का यानी हिन्दू समाज का ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य है। कृषि क्रांति हो गयी, उद्योग क्रांति हो गयी, विज्ञान और तकनीक की क्रांति हो गयी, अब धर्म क्रान्ति की आवश्यकता है । मैं रिलीजन की बात नहीं कर रहा हूँ। सत्य, शुचिता, करुणा व तपस के आधार पर मानव जीवन की पुनर्रचना हो, इसकी विश्व को आवश्यकता है और भारत उसका पथ प्रदर्शक हो, यह अपरिहार्य है। संघ कार्य के महत्त्व को हम समझें, ‘मैं और मेरा परिवार’ के दायरे से बाहर आकर और अपने जीवन को उदाहरण बनाकर सक्रिय होकर हम सबको साथ में आगे बढ़ना चाहिए, इसकी आवश्यकता है।