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आजादी का अमृत महोत्सव

संघ का स्वभाव है सेवाभाव

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·      शाखा का वातावरण, स्वयंसेवकों को देश के लिए जीना सिखाता है

  • संघ के स्वयंसेवक पीड़ित आबादी को मुख्यधारा में लाने तक आपदाग्रस्त क्षेत्र में सेवा कार्य करते रहते हैं

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक पूज्यनीय बालासाहेब देवरस के अनुसार “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निरंतर प्रगति की गाथा सचमुच ही मन्त्रमुग्ध करने वाली है। वह अनूठी है, और संभवतः विश्व के इतिहास में अद्वितीय है। संघ के इस अद्भुत स्वरूप को देखकर न केवल उसके साथ सहानुभूति रखनेवाले, अपितु विरोधी भी आश्चर्यचकित हो जाते हैं। संघ को उसके जन्मकाल से ही न तो किसी प्रचार तंत्र का सहारा मिला, न धन का और न ही मिला किसी प्रकार का राजनीतिक संरक्षण। जहां तक उसके द्वारा स्वीकृत हिन्दू संगठन के ध्येय का प्रश्न है तो उसके सम्बन्ध में स्थिति यह थी कि अत्यंत आस्थावान हिन्दू भी उसके उल्लेख मात्र से बिचक जाता था, मुंह मोड़ लेता था। जाति, पंथ, सम्प्रदाय, रीति-रिवाज, खान-पान, वेशभूषा, पूजा-पद्धति, भाषा, इत्यादि के हजारों भेदों के कारण बंटे हुए समाज को एक समन्वित इकाई के रूप में संगठित करना, क्या संभव है? हजारों मील भूभाग में फैले हुए इस विशाल देश के सात लाख से अधिक गांवों में बिखरे हुए, गिरि-कंदराओं में और असंख्य शहरी झुग्गी झोंपड़ियों की गंदी बस्तियों में रहने वाले, इस विराट समाज को एक सूत्र में पिरोना, क्या संभव है? ”यह असंभव है“ इन्हीं शब्दों के साथ संघ के कार्यकर्ताओं का सर्वत्र स्वागत होता रहा। फिर भी संघ तीव्र गति से सब ओर बढ़ता गया और पहले निराशा की भाषा बोलने वाले लोग भी उसके साथी बनते गये। पूज्यनीय बालासाहेब देवरस जी के द्वारा संघ की इस यात्रा को कुछ ही पंक्तियों में ही समेट दिया गया। जाहिर है संगठन समूह से बनता है और समूह लोगों से और इन्हीं लोगो में से बड़ी संख्या ऐसी है, जिन्होंने अपनी अथवा अपने परिवार की खुशियों की परवाह किये बगैर दूसरों के मुरझाये हुए चेहरों पर मुस्कान लौटाने हेतु अपना पूरा जीवन और अपनी तमाम व्यक्तिगत आकांक्षाओं की बलि दे दी। ये ऐसे चेहरे हैं जिन्होंने न कभी किसी समाचार पत्र में अपनी फोटो छपवाने का प्रयास किया और न ही कभी टेलीविजन पर आकर समाज में आए बदलाव का श्रेय लेने का प्रयास किया। ये ऐसे नींव के पत्थर हैं जिन्हें सकारात्मक बदलाव की वर्तमान तस्वीर में कहीं ढूंढ पाना भी बहुत मुश्किल है। उनके योगदान को सिर्फ वे ही लोग महसूस करते हैं, जो उस बदलाव के साक्षी हैं। ऐसे हजारों कार्यकर्ताओं के कारण ही, सेवाभारती की वेबसाइट के अनुसार, देश भर में कुल सेवा कार्यों की संख्या एक लाख तीस हजार से अधिक है। इसमें शिक्षा से सम्बंधित ही 90,000 से अधिक प्रकल्प देश भर में हैं , ये मानव में ईश्वर देखने का  वो प्रयोग हैं जिसके  पीछे हजारों कार्यकर्ताओं ने अपना जीवन खपा दिया और जिनके माध्यम से लाखों जीवन संवार दिए गए।

उत्तराखंड में सेवा कार्य पर बनी वृत्तचित्र के दौरान मेरे अनुभव: सन 2016 में मैंने केदारनाथ के बादल फटने की त्रासदी के बाद त्रासदी क्षेत्र में निवास कर रहे लोगों के जीवन में क्या बदलाव आये इसका दस्तावेजीकरण करने की ठानी, ये दस्तावेजीकरण एक वृत्तचित्र के माध्यम से होना था। इस वृत्तचित्र के दौरान मेरे देश के आखिरी गाँव ‘माना’ तक जाना हुआ और मैं ऐसे कई लोगों से मिला जो लम्बे समय से त्रासदी क्षेत्रों के सेवा प्रकल्पों में कार्य कर रहे हैं। इन सेवा प्रकल्पों में चिकित्सा सुविधा, शिक्षा, भोजन, स्वावलंबन जैसे तमाम कार्य किये जाते हैं। हजारों की संख्या में लोग इन सेवा कार्यों में योगदान देते रहे हैं  जो लाखों गरीब और अनाथ बच्चों, बुजुर्गों और तमाम वंचितों के जीवन को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आये हैं। शोध के दौरान मैंने इन सभी सेवा कार्यों में जो समान जानकारी पायी वो थी, इन सभी सेवा प्रकल्पों के संचालन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा। ये सेवा प्रकल्प ऐसे सीमावार्तीं और दुर्गम स्थानों में भी चलते हैं जहाँ उस समय सरकारी स्कूल भी नहीं थे  और अन्य मूलभूत सुविधाओं की भी कमी रहती थी।

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं से निरंतर नुकसान होता रहा है ऐसे में इन क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रेरणा से चलाये जा रहे एकल विद्यालय और विद्याभारती शिक्षण संस्थान के अन्तर्गत चल रहे विद्यालय सामुदायिक केन्द्रों की तरह काम में आते हैं। यहाँ आपदा के समय  राहत कार्यों के लिए जरूरी सामान का संचयन भी होता है। अतः आपदा के भीषण दौर में ये विद्यालय शिक्षण केन्द्रों के साथ ही साथ जन सेवा केंद्र की तरह भी काम में आते हैं।

डॉ. नित्यानंद - एक समर्पित स्वयंसेवक: प्राकृतिक सौंदर्य के चरम के बीच पहाड़ों के जीवन में बेहद कठिनाइयाँ भी हैं। इन कठिनाइयों और इसके निवारण के लिए कार्य किया है। डॉ. नित्यानंद ने। हिमालय पुत्र कहे जाने वाले डॉ. नित्यानंद को आधुनिक संत कहना गलत न होगा। इनका पूरा जीवन संघ कार्य की प्रतिमूर्ति है। डॉ. नित्यानंद भूगोल के प्रोफेसर रहे पर इन्होने न हीं अपना कोई घर बनाया और ना हीं बैंक बैलेंस, जीवन भर अविवाहित रहते हुए इन्होने अपने आप को सेवा कार्यों में समर्पित कर दिया। कमजोर बच्चों को पढ़ाने व आगे बढ़ाने के लिए डॉ.नित्यानंद जी ने मनेरी के बाद उत्तरकाशी में लक्षेश्वर, देहरादून जिले के मागटी पोखरी, पाटिया व लटेरी में छात्रावास शुरू किए। यहां पढ़कर सैकड़ो छात्र अब सफलता की राह में आगे बढ़े हैं। पृथक उत्तराखंड का आंदोलन जब नक्सलियों के हाथ में जा रहा था तब डॉ. नित्यानंद जी ने इसे राष्ट्रीयता की ओर मोड़ कर उत्तरांचल के गठन की मांग की। प्रोफेसर नित्यानंद को उनके ग्राम विकास के कार्यों के लिए भी जाना जाता है। अल्मोड़ा में पटिया, थेया, टिहरी में भिगुन हो या फिर देहरादून के माटी पोखरी को मिलाकर 50 गांवों को मॉडल बनाने का सपना साकार करने के लिए वे निरंतर काम करते रहे। इसके लिए उन्होंने अपने विद्यार्थियों को सेवा कार्यों से जोड़ा। कोलकाता के बड़ा बाजार कुमार पुस्तकालय समिति व बनारस के भाऊराव देवरस न्यास ने उन्हे सेवा कार्यो के लिए जब सम्मानित किया तो पुरस्कार राशि उन्होंने सेवा कार्यो के लिए दे दी।

संघ कार्य का एक बड़ा हिस्सा आपदाओं में सेवा कार्यों के लिए समर्पित है। शाखा का वातावरण, स्वयंसेवकों को देश के लिए जीना सिखाता है व उनके मन में समाज के प्रति संवेदना जगाता है। संघ पर लोगों का विश्वास इस कार्य की आधारशिला है, चाहे चेन्नई की सुनामी हो या फिर लातूर में आया विनाशकारी भूकंप, वर्तमान कोरोना काल हो, या फिर कोई अन्य आपदा, समाज के हर वर्ग ने राहत कार्यों में तन-मन-धन से संघ का साथ दिया है। आपदा बीतते ही जब सब संगठन अपना बोरिया बिस्तर समेट लेते हैं व सरकारी तंत्र भी सुध लेना छोड़ देता है, तब भी संघ के स्वयंसेवक पीड़ित आबादी को मुख्यधारा में लाने तक उस स्थान में सेवा कार्य करते रहते हैं। इस कोरोना काल में संघ के उग्र हिंदुत्व को निशाना बनाने वाली मीडिया ने भी स्वयंसेवकों की इस भूमिका को सराहा। उन सेवा दूतों की सच्ची कहानियाँ लेकर सामने आए, जिन्होंने प्रकृति के प्रकोप के बीच कराहती हुई मानवता पर अपनेपन और समाजिक आस्था का मरहम लगाया। इन्होने सूख रही बगिया में कुछ प्रेम के पौधे लगाये, इन पौधों के बड़े होने से जब इनमें फूल लहलहाते हैं उनसे महकती हैं कई पीढियां  और महकता है अपना हिन्दुस्तान।

 

 

(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)