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इतिहास

महान विट्ठलभक्त सन्त तुकाराम

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8 मार्च/जन्म-दिवस


भारत के महान् सन्तों में सन्त तुकाराम का विशिष्ट स्थान है। उनका जन्म 8 मार्च, 1608 को पुणे में हुआ था। उनके पिता श्री वोल्होबा तथा माता कनकाई बहुत सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति थे। अतः तुकाराम को बालपन से ही विट्ठल भक्ति संस्कारों में प्राप्त हुई। 


उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी। फिर भी सन्तोषी स्वभाव के तुकाराम कभी विचलित नहीं हुए। आगे चलकर उनके माता-पिता और फिर पत्नी तथा पुत्र की भी मृत्यु हो गयी; पर तुकाराम ने प्रभु भक्ति से मुँह नहीं मोड़ा। 


तुकाराम स्वभाव से ही विरक्त प्रवृत्ति के थे। वे प्रायः भामगिरी तथा भण्डार की पहाडि़यों पर जाकर एकान्त में बैठ जाते थे। वे वहाँ ज्ञानेश्वरी तथा एकनाथी भागवत का अध्ययन भी करते थे। कीर्तन तथा सत्संग में उनका बहुत मन लगता था। जब वे नौ वर्ष के ही थे, तब उन्हें स्वप्न में एक तेजस्वी सन्त ने दर्शन देकर ‘रामकृष्ण हरि’ मन्त्र का उपदेश दिया। इससे उनका जीवन बदल गया और वे दिन-रात प्रभु के ध्यान में डूबे रहने लगे।


एक बार प्रसिद्ध सन्त नामदेव ने तुकाराम जी को स्वप्न में दर्शन देकर भजन लिखने को कहा। इससे पूर्व तुकाराम ने कभी कविता नहीं की थी; पर सन्त नामदेव के आशीर्वाद से उनके मन में काव्यधारा फूट पड़ी। उन्होंने जो रचनाएँ कीं, उन्हें ‘अभंग’ कहा जाता है। ऐसे लगभग 6,000 अभंगों की रचना उन्होंने की। इससे उनकी कीर्ति चारों और फैल गयी। लोग दूर-दूर से उनके दर्शन के लिए आने लगे। उनके आश्रम में हर दिन मेला लगने लगा।


उनकी इस प्रसिद्धि से रामेश्वर भट्ट तथा मुम्बाजी जैसे कुछ लोग जलने लगे। वे तुकाराम को शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान करने लगे। एक बार तो उनके अभंग संग्रह को ही उन्होंने इन्द्रायणी नदी में डुबो दिया। तुकाराम को इससे अपार कष्ट हुआ। वे मन्दिर में भगवान् की मूर्ति के सम्मुख बैठ गये। उन्होंने निश्चय कर लिया कि जब तक उनकी बहियाँ वापस नहीं मिल जातीं, तब तक वे अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगे।


लेकिन 13 दिन ऐसे ही बीत गये। इस पर तुकाराम ने भावावेश में आकर भगवान को बहुत उलाहना दिया। उन्होंने कहा कि हे नाथ, आप तो मूत्र्ति के पीछे छिपे हो और यहाँ मैं भूखा-प्यासा बैठा हूँ। अब भी यदि आपने मेरी इच्छा पूरी नहीं की, तो मैं आत्महत्या कर लूँगा और इसका पूरा दोष आपका ही होगा। 


ऐसा कहते हैं कि भगवान् ने उसी समय युवक वेश में प्रकट होकर सन्त तुकाराम की सभी पुस्तकें सुरक्षित लौटा दीं। यह देखकर उन सबकी आँखें खुल गयीं, जो उन्हें परेशान कर रहे थे। अब वे भी तुकाराम जी की शरण में आ गये और उनके भक्त बन गये। 


ऐसा कहते हैं कि एक बार शिवाजी महाराज सन्त तुकाराम के पास बैठे थे कि मुगलों ने उनके आश्रम को घेर लिया। तुकाराम की प्रार्थना पर वहाँ शंकर भगवान् प्रकट हुए और वे शिवाजी का छद्म रूप लेकर एक ओर भागने लगे। इस पर मुगल सैनिक उनके पीछे दौड़ पड़े और असली शिवाजी को कुछ नहीं हुआ। इससे प्रभावित होकर शिवाजी ने सन्त तुकाराम को कुछ स्वर्ण मुद्राएँ भेंट कीं; पर तुकाराम जी ने उन्हें यह कहकर लेने से मना कर दिया कि मेरे लिए सोना और मिट्टी बराबर है।


अपने अभंगों द्वारा भगवद्भक्ति का सन्देश बाँटते हुए सन्त तुकाराम 1650 ई. में सदा-सदा के लिए विट्ठल के धाम को चले गये।