इम्फाल
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने मणिपुर प्रवास के दूसरे दिन इम्फाल में जनजातीय प्रतिनिधियों से संवाद करते हुए कहा कि राष्ट्र एवं समाज में स्थायी शांति, सौहार्द और प्रगति के लिए एकता तथा चरित्र निर्माण को सुदृढ़ करना अत्यंत आवश्यक है। कार्यक्रम के पश्चात इम्फाल भास्कर प्रभा परिसर में पारंपरिक मणिपुरी भोजन का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न जनजातीय समुदायों के 200 से अधिक प्रतिनिधियों ने सम्मिलित होकर सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक गौरव का उदाहरण प्रस्तुत किया। सरसंघचालक जी ने कहा कि संघ पूर्णतः सामाजिक संगठन है, जिसका उद्देश्य समाज को सुदृढ़ करना है। संघ किसी के विरुद्ध नहीं है। यह समाज को तोड़ने नहीं, बल्कि जोड़ने के लिए बना है। नेता, राजनीति, सरकारें – ये सभी समाज के सहयोगी हैं, पर समाज की असली आवश्यकता है – एकता। उन्होंने स्पष्ट कहा कि संघ न तो राजनीति करता है और न ही किसी संगठन को निर्देशित करता है -“संघ केवल मित्रता, स्नेह और सामाजिक सद्भाव से कार्य करता है।”
उन्होंने कहा कि अध्ययन बताते हैं कि भारत के लोगों का सांस्कृतिक व आनुवांशिक डीएनए हजारों वर्षों से एक है। “हमारी विविधता सुंदर है, पर हमारी चेतना एक है। एकता के लिए एकरूपता की आवश्यकता नहीं होती।” डॉ. भीमराव अंबेडकर का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि भारत के संविधान में निहित मूल मूल्य – स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व फ्रांसीसी क्रांति से नहीं, बल्कि भगवान बुद्ध की शिक्षाओं से प्रेरित हैं। उन्होंने कहा – “दुनिया के कई देश इसलिए असफल रहे क्योंकि उन्होंने भ्रातृत्व को महत्व नहीं दिया। लेकिन भारत में भ्रातृत्व ही धर्म है।”
संघ की स्थापना के मूल उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह किसी प्रतिक्रिया स्वरूप नहीं, बल्कि समाज की एकजुटता के लिए बना है। “संघ मनुष्य निर्माण एवं चरित्र निर्माण का अभियान है। इसकी वास्तविकता समझनी हो तो शाखा में आइए।” उन्होंने कहा कि जो भी व्यक्ति समाज की भलाई के लिए निःस्वार्थ भाव से कार्य कर रहा है और भारतीय सभ्यता से आत्मीयता रखता है, वह “अघोषित स्वयंसेवक” है। “संघ को खुद के लिए कुछ नहीं चाहिए, केवल एक अच्छा समाज चाहिए।”
जनजातीय नेताओं द्वारा उठाए गए मुद्दों पर उन्होंने कहा कि “आपके मुद्दे हम सब के मुद्दे हैं।” उन्होंने कहा कि समस्याएँ परिवार के भीतर की तरह संवाद और संवैधानिक ढाँचे में हल होनी चाहिए। कई क्षेत्रीय समस्याओं एवं विभाजनों की जड़ें औपनिवेशिक काल की नीतियों में निहित हैं। मनुष्य निर्माण को राष्ट्रीय पुनर्जागरण का आधार बताते हुए संघ द्वारा चलाए जा रहे सद्भावना बैठक एवं पंच परिवर्तन के प्रयासों – सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वबोध एवं नागरिक कर्तव्य का उल्लेख किया।
उन्होंने जनजातीय समुदायों से स्वदेशी जीवन शैली अपनाने, अपनी परंपराओं, भाषाओं व लिपियों पर गर्व करने का आह्वान किया। “आज विश्व भारत की ओर मार्गदर्शन के लिए देख रहा है। हमें एक मजबूत राष्ट्र का निर्माण करना है और संघ इसके लिए निरंतर कार्यरत है।” जनजाति समागम के पश्चात इंफाल में युवाओं के साथ एक विशेष संवाद कार्यक्रम में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने युवा पीढ़ी से आह्वान किया कि वे यह समझें कि भारत कोई नया बना राष्ट्र नहीं, बल्कि एक प्राचीन और अखंड राष्ट्र-सभ्यता है। हमारे महाकाव्यों – रामायण और महाभारत में मणिपुर, ब्रह्मदेश और वर्तमान अफगानिस्तान जैसे क्षेत्रों का उल्लेख मिलता है, जो भारत की विशाल सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विरासत को दर्शाता है। उन्होंने कहा, “हिन्दू सभ्यता स्वीकार्यता, परस्पर सम्मान और साझा चेतना पर आधारित है। हमारा विविध समाज हमारी शक्ति है, क्योंकि धर्म हमें भीतर से एकजुट रखता है।” उन्होंने युवाओं से अपनी पहचान पर गौरव करते हुए सांस्कृतिक आत्मविश्वास के साथ नेतृत्व करने की अपील की।
युवा शक्ति को राष्ट्रनिर्माण में अग्रणी बताते हुए, उन्होंने कहा कि आरएसएस की शाखाएँ ऐसे जिम्मेदार, योग्य और निस्वार्थ नागरिक तैयार करती हैं, जो अपने कौशल और प्रतिभा का समर्पण देश के लिए करते हैं। व्यक्तिगत उत्कृष्टता से समाज-परिवर्तन और आगे चलकर व्यवस्था-परिवर्तन तक पहुँचती है। पश्चिमी भौतिकतावाद और अतिवादी व्यक्तिवाद के प्रभाव के प्रति सचेत करते हुए उन्होंने कहा कि मजबूत परिवार और मूल्याधारित संस्कार ही मजबूत राष्ट्र का आधार हैं। उन्होंने युवाओं से आह्वान किया, “स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचें – जब भारत उठेगा, तब ही विश्व उठेगा। हमारा कर्तव्य है कि हम जाग्रत, संगठित और एक दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ें।”



