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संघ दर्शन

गुरु पूर्णिमा: प्रतिभा उन्नयन, स्वत्व जागरण और राष्ट्रबोध का पर्व

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गुरु पूर्णिमा: प्रतिभा उन्नयन, स्वत्व जागरण और राष्ट्रबोध का पर्व


लेखक - रमेश शर्मा


अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर की और यात्रा आरंभ करने का दिन गुरु पूर्णिमा है। ऐसी जीवन यात्रा आरंभ करने का दिन जो व्यक्ति को आत्मबोध, आत्मज्ञान और आत्म गौरव का भान कराती है और जो ऐसे आदर्शमय व्यक्तित्व निर्माण के लिये मार्गदर्शन करते हैं वे गुरु हैं। गुरु मनुष्य भी हो सकते हैं, और कोई प्रतीक भी। संसार में कोई अन्य प्राणी अथवा प्रतीक भी।

संस्कृत में ‘गु’ धातु है। इसका अर्थ होता है अंधकार। ‘रु’ धातु का अर्थ है प्रकाश की ओर। दोनों की संधि से ‘गुरु’ शब्द बना अर्थात् जो अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा का निमित्त है वह गुरु। अज्ञान के अंधकार से ज्ञान की ओर यात्रा आरंभ करने के लिये आषाढ़ माह की पूर्णिमा की तिथि निर्धारित की गई। तिथि का निर्धारण गहरे अनुसंधान का निष्कर्ष है। वर्ष की सभी बारह पूर्णिमाओं में केवल आषाढ़ की पूर्णिमा ऐसी है, जिसमें चंद्रमा का शुभ्र प्रकाश धरती पर सबसे कम आता है। चन्द्रमा से आने वाला प्रकाश कम नहीं होता। लेकिन वर्षा के बादलों से चन्द्रमा ढँक जाता है और धरती पर आने वाले प्रकाश का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। यह कृत्रिम अवरोध है। इसी प्रकार संसार के विविध प्रकार के भ्रम और आकर्षण मनुष्य का ज्ञान का मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं। इनसे व्यक्ति भटक जाता है। मनुष्य को अज्ञान के अंधकार से मुक्त कर ज्ञान के प्रकाश में लाने के निमित्त गुरु हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा के प्रकाश को रोकने वाले बादल स्थाई नहीं होते, अस्थाई होता है, प्रकाश मार्ग को इस कृत्रिम अवरोध से मुक्त करने के निमित्त पवनदेव बनते हैं। वे अपने झौकों से बादलों को बहा ले जाते हैं। ठीक इसी प्रकार मनुष्य की आँखो पर छाये अज्ञान के बादलों को छाँटने का निमित्त गुरु होते हैं। मनुष्य के ज्ञान और बुद्धि पर पड़े अवरोध स्वयं नहीं हटते, उन्हें हटाने के लिये कोई प्रयत्न चाहिए, कोई निमित्त चाहिए। अज्ञान का हरण और स्वज्ञान के इस जाग्रतकर्ता को गुरु कहा गया है। गुरु अज्ञानता के अंधकार की सभी परतें हटा कर शिष्य को उसके स्वत्व से साक्षात्कार कराता है। उसकी विशिष्ठता को नये आयाम, नयी ऊँचाइयाँ देने में मार्ग दर्शन करता है। गुरु और गुरुपूर्णिमा इसी का प्रतीक है।

शिक्षक, आचार्य, गुरु और सद्गुरु में अंतर: गुरुत्व परंपरा में एक बात महत्वपूर्ण है। शिक्षक, आचार्य, गुरू और सद्गुरु में अंतर होता है। शिक्षा और ज्ञान में अंतर है । शिक्षा केवल सैद्धांतिक होती है। पाठ्यक्रम में यदि कुछ तथ्य या आधारहीन है तब भी शिक्षक उसी अनुसार अपना कार्य करते हैं। जबकि आचार्य पाठ्यक्रम के साथ व्यवहारिक पक्ष को सम्मिलित कर व्यक्तित्व निर्माण पर भी ध्यान देते हैं। गुरु इनसे बहुत आगे हैं। वे पाठ्यक्रम पर नहीं, विद्यार्थी की प्राकृतिक प्रतिभा, क्षमता और रुचि का आकलन करते हैं, उसकी मौलिक प्रतिभा को जाग्रत करते है। फिर उसके अनुरूप पाठ्यक्रम का निर्धारण करते हैं। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तीनों थे तो एक ही कक्षा में थे, पर गुरु द्रोणाचार्य ने तीनों की प्रतिभा और क्षमता के अनुरूप अलग-अलग अस्त्र शस्त्र में प्रवीण बनाया। एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से केवल चेहरे की बनावट, बोली, रुचि, पसंद नापसंद या डीएनए में ही अलग नहीं होता। वह प्राकृतिक विशेषताओं में भी अलग और विशिष्ट होता है। गुरु शिक्षा आरंभ करने से पहले शिक्षार्थी की मौलिक प्रतिभा, क्षमता, मेधा और प्रज्ञा का आकलन करते हैं। और फिर संबंधित शिष्य को उसके मूल तत्व का आभास कराते हैं, उसके स्वत्व से साक्षात्कार कराते हैं। तब शिक्षा आरंभ करते हैं। जिससे वह व्यक्ति अपने जन्म जीवन को योग्य बनाता है। सद्गुरु इससे भी एक कदम आगे होते हैं। गुरु ज्ञान दान केवल लौकिक जगत तक सीमित होता है। एक शिष्य संसार में कैसे श्रेष्ठ बने संसार की प्रकृति, प्राणियों और पदार्थ सबसे कैसे तादात्म्य स्थापित करे यह सब ज्ञान गुरु देते हैं। जबकि सद्गुरू लौकिक के साथ अलौकिक सृष्टि का भी मार्ग दर्शन कराते हैं। संसार के आगे क्या है ? दृश्य जगत के आगे अदृश्य की शक्ति क्या है। यह ज्ञान सद्गुरु से मिलता है। अर्जुन के गुरु द्रोणाचार्य हैं। पर जब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता का ज्ञान दिया तब अर्जुन ने कहा-‘मुझे सद्गुरु की भाँति उपदेश करें।’ तब ही भगवान श्रीकृष्ण ने ‘विभूति’ और ‘विराट’ से परिचय कराया। इस प्रकार संसार में जीने योग्य बनाने, सफलता प्राप्त करने, लौकिक जगत को समझने और अलौकिक जगत का साक्षात्कार कराने वाली विभूति को गुरु कहा गया और उनके प्रति आभार प्रकट करने की तिथि है गुरु पूर्णिमा ।

गुरु के प्रतीक: प्राणी, प्रकृति, ग्रंथ और ध्वज: भारतीय वाड्मय में गुरु परंपरा के वाहक ऋषिगणों का उल्लेख मिलता है, लेकिन गुरु केवल ऋषि ही बनें अथवा केवल एक ही गुरु हों यह बंधन नहीं रहा। एक से अधिक गुरु और ऋषियों से इतर किसी प्रतीक या घटना को भी गुरु मानने की परंपरा रही है। पशु पक्षी और सेवक अथवा यज्ञ, ग्रंथ और ध्वज को भी गुरु का मानने की परंपरा है। भगवान् दत्तात्रेय जी के चौबीस, भगवान् परशुराम जी के सात और राजा जनक के तीन गुरु होने का वर्णन मिलता है। भगवान् दत्तात्रेय की चौबीस गुरु संख्या में पृथ्वी, जल, अग्नि, मधु मक्खी, श्वान् आदि को भी अपना गुरु मानकर कार्य संकल्प की सीख लेने का संदेश दिया। दैत्य गुरु शुक्राचार्य ने अपने पिता महर्षि भृगु के साथ यज्ञ को भी गुरु माना । राजा जनक के तीन गुरु संख्या में प्रतीक के रूप में वेद भी गुरु हैं। ऋषिका देवहूति ने अपने पुत्र कपिल मुनि को माना। कहोड़ ऋषि ने अपने पुत्र अष्टावक्र को, आदि शंकराचार्य जी ने एक चाँडाल को गुरु समान आदर दिया और पंचकम् की रचना की । स्वामी विवेकानंद ने खेतड़ी की नृत्यांगना को माँ कहकर पुकारा और गुरु का सम्मान दिया। 


इसी परंपरा के अंतर्गत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘ध्वज’ को गुरु रूप में स्वीकारा। संघ स्वयंसेवक गुरु पूर्णिमा पर ध्वज का ही पूजन करते हैं। भारत में यह ध्वज पूजन परंपरा पहली नहीं है। भारत में अनादि काल से ध्वज को सम्मान का प्रतीक माना और इसकी रक्षा के लिये प्राणोत्सर्ग करने की घटनाओं से प्राचीन ग्रंथ भरे पड़े हैं। ध्वज नायक या राज्य की पहचान का प्रतीक होता है, जैसे गरुड़ ध्वज नारायण की, अरुण ध्वज सूर्य की पहचान रहें हैं। राष्ट्र के प्रतीक ध्वज को वंदन करने की परंपरा आचार्य चाणक्य से आरंभ हुई। आचार्य चाणक्य ने भगवा ध्वज को भारत राष्ट्र की पहचान और मान का प्रतीक प्रमाणित किया। जिस प्रकार ज्ञान के लिये कुछ प्रतीक भी माध्यम होते हैं। उसी प्रकार व्यक्ति, परिवार समाज, राष्ट्र और संस्कृति का प्रतीक ध्वज होता है।


गरुड़ ध्वज से नारायण और अरुण ध्वज से सूर्य की पहचान होती है उसी प्रकार भगवा ध्वज भारत राष्ट्र की पहचान है। भगवा अग्नि शिखा का रंग होता है, सूर्याेदय की आभा ऊषा का रंग होता है जो समता समानता का द्योतक होता है। अग्नि सभी को एकसा ताप देती है। सूर्य सबको समान प्रकाश और ऊर्जा देता है। इसलिए भारत ने अपनी ध्वजा का रंग भगवा स्वीकार किया। स्वाभिमान के जागरण का प्रतीक शब्द ‘ध्वज’ संस्कृत की ‘ध्व’ धातु से बनता है। इसका आशय धरती की केन्द्रीभूत शक्ति होता है। इसे धारण करने के कारण ही ऋग्वेद में धरती के लिये ‘धावा’ उच्चारण आया है। ध्वज किसी भी राष्ट्र और संस्कृति के गौरव और सम्मान का प्रतीक माना गया है। इससे आत्मगौरव और स्वाभिमान का बोध होता है। 


जो व्यक्ति को स्वत्व के लिये प्रेरित करता है। यह बात आचार्य चाणक्य ने कही थी और इसी को आगे बढ़ाया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डा हेडगेवार ने। उन्होंने कहा था ‘जो आत्मबोध कराये वह गुरु है, मनुष्य या प्राणी का जीवन तो सीमित होता है। समय और आयु अवस्था उनकी क्षमता और ऊर्जा को प्रभावित करती है, अतएव गुरु चिरजीवी होना चाहिए।’

अष्टावक्र से मिले आत्मज्ञान के बाद इसी भाव के अनुरूप राजा जनक ने वेद को गुरुतुल्य आसन दिया। गुरुग्रंथ साहिब को गुरु स्थान का सम्मान देना इसी परंपरा का पालन है।

छद्म गुरु और सावधानी: संसार में अंधकार और प्रकाश साथ-साथ चलते हैं। इसका प्रतीक है अच्छाई और बुराई। वैदिक काल में देव और दैत्य दोनों रहें। प्रकृति इस रहस्यमय विशेषता से गुरु परंपरा भी अछूती नहीं। यदि कुछ सद्गुरु हैं तो कुछ छद्म गुरु भी। इसलिये गुरु का चयन करने में सावधानी होनी चाहिए। वर्तमान परिस्थिति में छद्म गुरुओं की मानों बाढ़ आ गई है। उनकी पहचान करना सरल है। केवल हमें अपनी आँखें खुली रखना है। गुरु अपने शिष्य की प्रतिभा और कौशल का विकास करके उसे उसके पैरों पर खड़ा करता है। जबकि छद्म गुरु शिष्य को कभी किसी ताबीज, कभी किसी औषधि से चमत्कार से कार्य संपन्नता की बातें करता है। दासत्व के गहरे अंधकार से अधिकांश भारतीय जनों का आत्मविश्वास और आत्म चेतना कुछ क्षीण हो गई है। इसी का लाभ छद्म गुरु उठाते हैं।

आज जितनी आवश्यकता आत्मज्ञान की है उससे अधिक आवश्यकता स्वत्व बोध और पुरुषार्थ जागरण की है। उधार के सिन्दूर से कोई सौभाग्यवती नहीं हो सकती, वैशाखियों के सहारे कोई पर्वत की चोटी पर नहीं जा सकता उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र अपने स्वत्वबोध से ही श्रेष्ठता के शिखर पर पहुँचता है। आज भारतीय समाज जिन परिस्थितियों और षड्यंत्रों से जूझ रहा है। इसमें अतिरिक्त सावधानी की आवश्यकता है। किसी भीड़ के पीछे दौड़ने की बजाय ज्ञान के लिये आत्मज्ञान आवश्यक है। जो हमारे पुरुषार्थ पराक्रम को जाग्रत कर राष्ट्र स्वाभिमान का वाहक बने। वह कोई ऋषितुल्य विभूति हों, कोई सद्ग्रंथ हो अथवा ध्वज का कोई प्रतीक हो। आज जीवन की आपाधापी है। भौतिक सुख सुविधाओं के संघर्ष में आत्मगौरव कहीं छूट रहा है। इसके लिये आवश्यक हैं कि गुरु पूर्णिमा पर केवल गुरु वंदन तक सीमित न रहें। प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक बार आत्म चिंतन अवश्य करे, स्वयं के बारे में, परिवार के बारे में, परंपराओं के बारे में और अपने राष्ट्रगौरव के बारे में। और यदि कहीं चूक हो रही है तो उसकी पुनर्प्रतिष्ठा का संकल्प लेने से ही गुरु पूर्णिमा पर गुरु वंदन सार्थक होगा।