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नए क्षितिज – समर्पण, सेवा और संगठन की यात्रा से विश्वगुरु भारत की ओर

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में विजयादशमी के दिन नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। उस समय यह सोचना भी कठिन था कि कुछ गिने-चुने स्वयंसेवकों के साथ आरंभ हुआ यह प्रयास आने वाले सौ वर्षों में भारतीय समाज जीवन का सबसे बड़ा और सबसे व्यापक संगठन बन जाएगा। सौ वर्ष किसी संस्था के जीवन में केवल समय की गिनती नहीं होते, बल्कि यह उसकी प्रासंगिकता, जीवंतता और समाज पर पड़े उसके प्रभाव का प्रमाण होते हैं। संघ की सौ वर्षीय यात्रा संघर्ष, सेवा, संगठन और संस्कारों से भरी है। साधारण से दिखने वाले खेल, व्यायाम, गीत और अनुशासन ने केवल शारीरिक क्षमता का ही निर्माण नहीं किया, बल्कि एक ऐसी पीढ़ी को तैयार किया, जिसने समाज के प्रति समर्पण और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी को अपने जीवन का हिस्सा बना लिया। अनेक बार संगठन पर प्रतिबंध लगे, कठिनाइयाँ आईं, विरोध हुआ, किंतु संघ हर बार और सशक्त होकर उभरा। 1947 के बाद के राजनीतिक परिवर्तनों, आपातकाल की कठोर परिस्थितियों और अनेक आलोचनाओं के बावजूद संघ कार्य की गति कुंद नहीं हुई। आज संघ केवल शाखाओं तक सीमित नहीं है। इसकी पहचान सेवा कार्यों से होती है। जब भी देश में कोई आपदा आती है, सबसे पहले स्वयंसेवक सहायता के लिए पहुँचते हैं। बाढ, भूकंप, चक्रवात, महामारी – हर जगह संघ के कार्यकर्ता निःस्वार्थ भाव से सेवा करते दिखते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में विद्या भारती के हजारों विद्यालय बच्चों को केवल आधुनिक शिक्षा ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्यों से भी जोड़ते हैं। ग्राम विकास, वनवासी सेवा, स्वदेशी उत्पादों का प्रचार और सामाजिक समरसता के अभियान संघ की पहचान बन चुके हैं। सौ वर्षों की यात्रा का सबसे बड़ा योगदान है कि संघ ने भारतीय समाज को आत्मगौरव का भाव दिया। सदियों की गुलामी और पराधीनता ने समाज को हीनता और आत्मसंकोच से भर दिया था। संघ ने यह बताया कि भारत केवल एक देश नहीं, बल्कि एक ऐसी सभ्यता है जो विश्व को दिशा दे सकती है। शाखा में गाया जाने वाला गीत केवल स्वर नहीं, बल्कि आत्मगौरव और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है। यही कारण है कि संघ का प्रभाव आज राजनीति, शिक्षा, संस्कृति, सामाजिक संस्थाओं और प्रवासी भारतीय समाज तक फैला हुआ है।

भविष्य की ओर दृष्टि: नये क्षितिज

शताब्दी का यह क्षण केवल अतीत की स्मृतियों का उत्सव नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा तय करने का अवसर है। यदि किसी व्यवस्था को बिगाड़ने में पचास साल लगते हैं, तो उसे सुधारने में सौ साल लगते हैं। संघ का विश्वास है कि यह कार्य कठिन अवश्य है, पर असंभव नहीं। यही आत्मविश्वास आने वाले समय के लिए नई ऊर्जा का स्रोत है। संघ ने आने वाले समय के लिए समाज परिवर्तन के निमित्त पंच परिवर्तन को अपनाया है। इनमें परिवार प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, सामाजिक समरसता, स्वदेशी और आत्मनिर्भरता, तथा नागरिक कर्तव्य का पालन हैं। परिवार भारतीय संस्कृति की धुरी है। प्रकृति का संरक्षण जीवन का आधार है। जाति-भेद से ऊपर उठकर समाज को एक करना समय की माँग है। स्वदेशी और आत्मनिर्भरता आर्थिक स्वतंत्रता का मार्ग है। नागरिक कर्तव्यों के पालन से ही राष्ट्र सशक्त बनेगा। ये केवल नारे नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन के संकल्प हैं। संघ अब केवल राष्ट्रीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक दृष्टि से भी कार्य कर रहा है। “वसुधैव कुटुंबकम्” का संदेश आज दुनिया के लिए मार्गदर्शक है। योग, आयुर्वेद और भारतीय संस्कृति विश्व में सम्मान पा रहे हैं। संघ का सपना है कि भारत केवल राजनीति या अर्थशक्ति के आधार पर नहीं, बल्कि संस्कृति और अध्यात्म की दृष्टि से भी विश्वगुरु बने। चुनौतियाँ भी सामने हैं। तकनीकी युग में मूल्य-संरक्षण कठिन होता जा रहा है। मोबाइल और इंटरनेट ने सुविधाएँ दी हैं, पर परिवार और समाज की डोर कमजोर हुई है। उपभोक्तावाद ने जीवन को प्रतिस्पर्धा और दिखावे में बदल दिया है। वैश्वीकरण ने अवसर दिए हैं, परंतु सांस्कृतिक पहचान के लिए खतरे भी पैदा किए हैं। इन परिस्थितियों में संघ की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। संघ का भविष्य दृष्टि-सम्पन्न है। हर गाँव और नगर में सेवा व शिक्षा केंद्र स्थापित करना, युवाओं को डिजिटल माध्यम से जोड़ना, महिलाओं की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करना और भारतीय दृष्टि से अनुसंधान को बढ़ावा देना, प्राथमिकताएँ हैं। शिक्षा को केवल रोजगार पाने का साधन नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण का आधार मानना संघ की दृष्टि है। संघ की शताब्दी यात्रा यह प्रमाणित करती है कि समर्पण और संगठन से असंभव भी संभव हो सकता है। यह यात्रा आने वाले सौ वर्षों की नींव है। नये क्षितिज सामने हैं – समरस समाज का निर्माण, आत्मनिर्भर भारत, पर्यावरण का संरक्षण और विश्व को शांति का संदेश देना। संघ का सपना राजनीतिक सत्ता का नहीं, बल्कि समाज के सर्वांगीण उत्थान का है। शाखा में खड़ा प्रत्येक स्वयंसेवक अपने को राष्ट्र का सेवक मानता है। यही भावना भारत को विश्वगुरु बनाने की दिशा में मार्गदर्शक बनेगी। यदि समाज संगठित हो और सेवा व संस्कार जीवन का आधार बनें, तो कोई भी शक्ति भारत को विश्व की अग्रणी संस्कृति बनने से नहीं रोक सकती। शताब्दी वर्ष का यह संकल्प है कि नये क्षितिज की ओर बढ़ते हुए एक ऐसा भारत बने, जहाँ हर नागरिक कर्तव्यनिष्ठ और संस्कारवान हो, जहाँ समाज समरस और आत्मनिर्भर हो और जहाँ से विश्व को शांति और सद्भाव का संदेश मिले।