विश्व का सबसे बड़ा गैर सरकारी सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने शताब्दी वर्ष की दिशा में आगे बढ़ रहा है। चिकित्सा क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त डॉ. केशव बळिरामपंत हेडगेवार जी ने कुछ युवाओं के साथ वर्ष 1925 में विजयादशमी (दशहरा) के दिन संघ की शुरुआत की थी। नागपुर से प्रारंभ संघ के स्वयंसेवक आज देश समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं।
देश और समाज के लिए निःस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले सामान्य व्यक्तियों को जोड़ते हुए खड़ा हुआ यह संगठन आज एक विशाल वटवृक्ष की तरह संपूर्ण विश्व को आश्वस्त कर रहा है। “सब मिलकर चलेंगे, सब मिलकर बढ़ेंगे” की भावना से एक सशक्त और सुदृढ़ संरचना खड़ी की गई है। “मैं नहीं, तू ही” – यह द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी का वाक्य स्वयंसेवकों के लिए आदर्श है। उन्हीं के मार्गदर्शन में संघ की विचारधारा की स्पष्ट दिशा तैयार हुई। इन सामान्य युवाओं ने अपनी असीम इच्छाशक्ति और कार्यकुशलता से एक असामान्य संगठन खड़ा किया।
संघ शताब्दी के उपलक्ष्य में व्याख्यानमाला –
संघ शताब्दी के उपलक्ष्य में 26, 27, 28 अगस्त 2025 को तीन दिवसीय व्याख्यानमाला नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित की गई है। इसका विषय है “100 वर्ष की संघ यात्रा – नए क्षितिज”। व्याख्यानमाला में संघ की अभी तक की यात्रा, आगामी वर्षों में संघ व स्वयंसेवकों की भूमिका को लेकर सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी द्वारा विचार प्रस्तुत किया जाएगा। यह सरसंघचालक जी दूसरी ऐसी व्याख्यानमाला होगी।
इससे पहले, 17, 18, 19 सितंबर 2018 को दिल्ली के विज्ञान भवन में ही तीन दिवसीय व्याख्यानमाला आयोजित की गई थी। उसका विषय था “भविष्य का भारत – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण”। इसमें सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने पहले दो दिनों में संघ और उससे संबंधित विषयों पर चर्चा की और तीसरे दिन श्रोताओं के प्रश्नों के उत्तर दिए थे।
व्याख्यानमाला के कुछ बिन्दु…
- संघ का कार्य अनोखा है; इसे केवल ज्ञात से अज्ञात की पद्धति से समझा नहीं जा सकता।
- संघ की बढ़ती संगठित शक्ति को देखकर कुछ लोगों ने समाज में इसके विरुद्ध जानबूझकर कई भ्रांतियाँ फैलाई।
- संघ एक कार्यपद्धति है। ‘शाखा’ जैसी अद्वितीय प्रणाली के माध्यम से व्यक्तित्व निर्माण का कार्य संघ करता है। इसी से लाखों स्वयंसेवक तैयार हुए हैं, जिनके जीवन के आदर्श व्यवहार से समाज में भी सकारात्मक परिवर्तन दिखता है।
- यह देश प्राचीन है और इसकी संस्कृति सनातन है, जो सभी के सुख व कल्याण की कामना करने वाली मूल्याधारित संस्कृति है। विभिन्नता में एकता की शक्ति इसकी विशेषता है। इस संस्कृति का संरक्षण आवश्यक है।
- संघ की कार्यपद्धति अन्य संगठनों से भिन्न और विशिष्ट है। बाल स्वयंसेवक से लेकर सरसंघचालक तक, सभी एक ही आदेश पर कार्य करते हैं। शाखा में होने वाले छोटे-छोटे कार्यक्रमों के माध्यम से यह अनुशासन और संस्कार विकसित होते हैं।
- संघ एक स्वावलंबी संगठन है। उसका संपूर्ण खर्च गुरुदक्षिणा के माध्यम से चलता है, जो वर्ष में एक बार की जाती है।
- परिवार संगठन – संघ के साथ ही समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए स्वयंसेवकों ने अनेक संगठनों की स्थापना की, जो अपने-अपने क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं। ये सभी स्वतंत्र, स्वायत्त और स्वावलंबी संगठन हैं। भारत को पुनः “विश्वगुरु” के स्थान पर प्रतिष्ठित करना ही इनका मुख्य उद्देश्य है।
- विकास की अवधारणा – पश्चिमी देशों की विकास की परिभाषा और हमारी भारतीय अवधारणा में अंतर है। हमारा विकास समन्वित, संतुलित और प्रकृति-संगत होना चाहिए। ‘सस्टेनेबल डेवलपमेंट’ का भारतीय मॉडल प्राचीन काल से मौजूद है। हमें अपनी क्षमता के आधार पर एक ऐसा भारतीय मॉडल विश्व को देना चाहिए जो सभी के लिए यानि मानव और प्रकृति के लिए उपयोगी हो।
सरसंघचालक जी ने कहा था कि संघ का विचार हिन्दुत्व का ही विचार है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हिन्दुत्व को संघ ने खोजा है। यह तो सहस्त्र वर्षों से देश में परंपरा से चलता आया विचार है, जो संघ का वैचारिक अधिष्ठान है। देश के लिए कार्य करने वाले हर व्यक्ति, हर संस्था का योगदान महत्वपूर्ण है। व्यक्ति तथा समाज के सहयोग से भारत को फिर से गौरवशाली राष्ट्र बनाने की प्रतिबद्धता जताई। संघ शताब्दी वर्ष की इस तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी का संदेश न केवल स्वयंसेवकों के लिए, अपितु संघ हितैषियों और समाज के लिए भी महत्वपूर्ण होगा। इसे लेकर समाज के प्रमुख जनों में उत्सुकता से यह स्पष्ट हो रहा है।