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देवी को अर्पित चुनरी पेड़ों को बांधी तो जंगल हुआ आबाद

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- यहां के 30 गांवों ने प्रकृति के लिए 21 साल पहले एकता व सामूहिकता के साथ जो संकल्प लिया था, उसको बदौलत अल्मोड़ा के स्याहीदेवी में 500 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जंगल हरियाली से लकदक हैं। ग्रामीणों की सोच, समझ एवं कोशिश को वन विभाग भी आदर्श मानता है।

- प्रेरितदेवी को अर्पित चुनरी पेड़ों पर बांधी तो जंगल हुआ आबाद अल्मोड़ा में 30 गांवों के संकल्प से 500 हेक्टेयर में फैला जंगल हरियाली से लकदक हुआ, यहां की महिलाएं और युवा पहरेदार हैं, उनको टोली जंगल में रोज गश्त करती है।

रानीखेत। पर्यावरण के बिगड़ते संतुलन के बीच में उत्तराखंड से एक अच्छी खबर आई है। रानीखेत अल्मोड़ा के लोगों ने पेड़ों के महत्व को समझते हुए एक अनोखी पहल की है। उन्हें संवारने को लेकर उत्तराखंड के 30 गांवों ने सामूहिकता के साथ संकल्प लेकर एक साथ प्रयास किए, जो अब एक मिसाल है। अल्मोड़ा के स्याहीदेवी का पूरा जंगल यहां के गांवों की आराध्य मां स्याहीदेवी को अर्पित है। इसे इस लिहाज से आध्यात्मिक जंगल भी कहा जा सकता है, क्योंकि बांज, काफल, फल्यांट, बुरांश, मेहल जैसे वृक्षों पर माता को चढ़ाई जाने वाली चुनरियां बांधी गई हैं।

यहां के 30 गांवों ने प्रकृति के लिए 21 साल पहले एकता व सामूहिकता के साथ जो संकल्प लिया था, उसको बदौलत अल्मोड़ा के स्याहीदेवी में 500 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले जंगल हरियाली से लकदक हैं। ग्रामीणों की सोच, समझ एवं कोशिश को वन विभाग भी आदर्श मानता है। इससे दूसरे गांव प्रेरितदेवी को अर्पित चुनरी पेड़ों पर बांधी तो जंगल हुआ आबाद अल्मोड़ा में 30 गांवों के संकल्प से 500 हेक्टेयर में फैला जंगल हरियाली से लकदक हुआ, यहां की महिलाएं और युवा पहरेदार हैं, उनको टोली जंगल में रोज गश्त करती है। हर परिवार के लिए जंगल की रखवाली प्रथम कर्तव्य है। सामूहिकता से जंगल बचाने की सीख इन गांवों को विरासत में मिली। इसलिए यहां बनस्पतियां आबाद हैं। वन्यजीव भी यहां उन्मुक्त सांस लेते हैं।

स्याहीदेवी के सरपंच कैलाश नाथ गोस्वामी कहते हैं कि जंगल मुहिम का प्रकृति ने दिया फल, नहीं सूखते जल स्रोत स्याहीदेवी में पेड़ों को हराभरा रखकर जंगल बचाने की मुहिम का प्रकृति ने फल भी दिया है। घने जंगल के कारण यहां के जलस्रीत गर्मियों में भी नहीं सूखते और उनमें पानी रहता है। सभी गांवों के आसपास प्राकृतिक जलस्रोत हैं। यही नहीं, ग्रीष्मकाल में जगल में गिरी पत्तियों से किसी तरह का नुकसान न हो, इसके लिए ग्रामीण आग लगने का सीजन शुरू होने से पहले ही इन पत्तियों की सफाई करते हैं। इस जगल में गुलदार, घुरड, सांभर जैसे वन्यजीवों के साथ ही पक्षियों की भी एक अलग दुनिया है।

संरक्षण की असल शुरुआत 2003 से हुई। सभी गांवों ने एक मंच पर आकर वन रक्षा का संकल्प लिया। स्याहीदेवी विकास मंच गठित किया गया। गांव-गांव बैठकें हुई। चूल्हा जलाने को लकड़ी के प्रयोग के स्याही देवी के जंगल लिए पेड़ों का कटान न हो, इसे देख घरों में गैस चूल्हे प्रयोग किए गए। पौधारोपण के बजाय प्राकृतिक पुनरोत्पादन पद्धति से जंगल बचाने की थीम को आकार दिया गया। साथ ही पूरा जंगल स्याहीदेवी को सौंप दिया गया। अब तक यन रक्षा का संकल्प स्याहीदेवी, शीतलाखेत, नौला, खरकिया, मटीला, सूरी, गड़स्यारी, बेड़गांव, सड़का, पड्यूला जैसे 30 से ज्यादा गांव ले चुके हैं।

रानीखेत से 32 किलोमीटर दूरी पर है स्याहीदेवी। जंगल में अगर कोई पेड़ उम्र पूरी होने के बाद सुखकर गिर जाए तो उसे हटाने से पूर्व स्याहीदेवी से अनुमति ली जाती है। इसके लिए बकायदा मंदिर में अराधना होती है। मां की अनुमति के बाद ही वृक्ष को उठाया जाता है।

शीतलाखेत रेंज के वन क्षेत्राधिकारी मोहन राम  का कहना है 2003 में जब से स्याहीदेवी विकास मंच बना, तभी से जागरूकता अभियान चला। चौड़ी पत्ती प्रजाति के पेड़ न काटे जाने खासकर बांज के पेड़ बचाने में ग्रामीणों का योगदान सराहनीय है। स्याहीदेवी के साथ तीस से ज्यादा गांव जुड़े है। यहां के ग्रामीण जंगल के प्रति समर्पित है। स्याहीदेवी की इसी सोच को माडल के रूप में अपनाया जा रहा है।