अरब देशों से भारत आए आक्रांता शुरू में तो केवल भारत में लूट खसोट करने के उद्देश्य से ही आए थे, क्योंकि उन्होंने सुन रखा था कि भारत सोने की चिड़िया है एवं यहां के नागरिकों के पास स्वर्ण के अपार भंडार मौजूद हैं। परंतु, यहां आकर छोटे छोटे राज्यों में आपसी तालमेल एवं संगठन का अभाव देखकर उनका मन ललचाया और उन्होंने यहीं के राजाओं में आपसी फूट डालकर उन्हें आपस में लड़वाकर अपने राज्य को स्थापित करने का प्रयास प्रारम्भ किया। अन्यथा, आक्रांता तो संख्या में बहुत कम ही थे, उनका साथ दिया भारत के ही छोटे छोटे राज्यों ने। भारत के कुछ राज्यों पर अपनी सत्ता स्थापित करने के बाद तो आक्रांताओं की हिम्मत बढ़ गई और फिर उन्होंने भारत की भोली भाली जनता पर अपना दबाव बनाना शुरू किया कि या तो वे अपना धर्म परिवर्तित कर इस्लाम मतपंथ को अपना लें अथवा मरने के लिए तैयार हो जाएं। कई मुस्लिम राजाओं ने तो हिंदू सनातन संस्कृति पर भी आघात किया और हजारों की संख्या में मठ मंदिरों में तोड़ फोड़ कर इन मठ मंदिरों को भारी नुक्सान पहुंचाया। हिंदू सनातन संस्कृति पर कायम भारतीय जनता, आक्रांताओं के जुल्म, वर्ष 712 ईसवी से लेकर 1750 ईसवी तक, लगभग 1000 वर्षों तक झेलती रही। लाखों मंदिरों के साथ ही, मथुरा, वाराणसी, अयोध्या, सोमनाथ आदि मंदिर, जो हजारों वर्षों से भारतीय जनता की आस्था के केंद्र रहे हैं, इन मंदिरों को भी नहीं छोड़ा गया एवं इन मंदिरों में तोड़फोड़ कर इन मंदिरों पर अथवा इनके पास सटे हुए क्षेत्र में मस्जिद बना दी गई ताकि हिंदू सनातन संस्कृति पर सीधे आघात किया जा सके एवं हिंदू सनातन संस्कृति के अनुयायियों के आत्मबल को तोड़ा जा सके जिससे वे इस्लाम मतपंथ को अपना लें।
परंतु, भारत भूमि पर समय समय पर कई महान विभूतियों ने भी जन्म लिया है और अपने सदकार्यों से इस पावन धरा को पवित्र किया है। ऐसी ही एक महान विभूति थीं अहिल्याबाई होलकर, जिन्होंने आक्रांताओं द्वारा तोड़े गए एवं नष्ट किए गए मंदिरों के उद्धार का कार्य बहुत बड़े स्तर पर किया था। अहिल्याबाई होलकर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर के जामखेड़ स्थित चौंढी गांव में 31 मई 1725 को हुआ था। उनके पिता का नाम मानकोजी शिंदे था, जो मराठा साम्राज्य में पाटिल के पद पर कार्यरत थे। अहिल्याबाई का विवाह मालवा में होलकर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होलकर के पुत्र खंडेराव से हुआ था। वर्ष 1745 में अहिल्याबाई के बेटे मालेराव का जन्म हुआ। इसके करीब 3 साल बाद बेटी मुक्ताबाई ने जन्म लिया। रानी अहिल्याबाई का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनकी शादी के कुछ वर्ष बाद ही 1754 में उनके पति खांडेराव का भरतपुर (राजस्थान) के समीप कुम्हेर में युद्ध के दौरान निधन हो गया। वर्ष 1766 में ससुर मल्हारराव भी चल बसे। इसी बीच रानी ने अपने एकमात्र बेटे मालेराव को भी खो दिया। अंततः अहिल्याबाई को राज्य का शासन अपने हाथों में लेना पड़ा। अपनों को खोने और शुरुआती जीवन के संघर्ष के बाद भी रानी ने बड़ी कुशलता से राजकाज संभाल लिया। कुशल कूटनीति के दम पर उन्होंने न सिर्फ विरोधियों को पस्त किया बल्कि जीवनपर्यत्न सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में जुटी रहीं।
अहिल्याबाई ने देशभर में कई प्रसिद्ध तीर्थस्थलों पर मंदिरों, घाटों, कुओं और बावड़ियों का निर्माण कराया। साथ ही, उन्होंने सडकों का निर्माण करवाया, अन्न क्षेत्र खुलवाये, प्याऊ बनवाये और वैदिक शास्त्रों के चिन्तन-मनन व प्रवचन के लिए मन्दिरों में विद्वानों की नियुक्ति भी की। रानी अहिल्याबाई ने बड़ी संख्या में धार्मिक स्थलों के निर्माण कराए। आपने सोमनाथ के मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसे 1024 में गजनी के महमूद ने नष्ट कर दिया था। साथ ही सोमनाथ मंदिर के मुख्य मंदिर के आस-पास सिंहद्वार और दालानों का निर्माण करवाया। अहिल्याबाई ने हरिद्वार स्थित कुशावर्त घाट का जीर्णोंधार कराकर उसे पक्के घाट में परिवर्तित कराया। उन्होंने इसी स्थान के समीप दत्तात्रेय भगवान का मंदिर भी स्थापित कराया। पिंडदान के लिए भी एक उचित स्थान का निर्माण करवाया। वाराणसी में सुप्रसिद्ध मणिकर्णिका घाट का निर्माण करवाया। राजघाट और अस्सी संगम के मध्य विश्वनाथ जी का सुनहरा मंदिर है। यह मंदिर 51 फुट ऊंचा और पत्थर का बना हुआ है। मंदिर के पश्चिम में गुंबजदार जगमोहन और इसके पश्चिम में दंडपाणीश्वर का पूर्व मुखी शिखरदार मंदिर है। इन मंदिरों का निर्माण अहिल्याबाई ने ही करवाया था। वाराणसी में ही अहिल्याबाई होल्कर ने अहिल्याबाई घाट तथा उसके समीप एक बड़ा महल बनवाया। महान संत रामानन्द के घाट के समीप उन्होंने दीपहजारा स्तंभ बनवाया। उन्होंने बहुत से कच्चे घाटों का जीर्णोद्धार कराया, जिसमें से शीतलाघाट प्रमुख है। इस प्राचीन नगर में महारानी ने हनुमान जी के भी एक मंदिर का निर्माण करवाया। काशी के समीप ही तुलसीघाट के नजदीक लोलार्ककुंड के चारों ओर कीमती पत्थरों से जीर्णोद्धार करवाया। इस कुंड का उल्लेख महाभारत और स्कन्दपुराण में भी मिलता हैं।
इसी प्रकार बद्रीनाथ और केदारनाथ में भी धर्मशालाओं का निर्माण करवाया। सन 1818 में कैप्टन स्टुअर्ट नाम का एक व्यक्ति हिमालय की यात्रा पर गया। वहां केदारनाथ के मार्ग पर तीन हजार फुट की ऊंचाई पर अहिल्याबाई द्वारा निर्मित एक पक्की धर्मशाला उसने देखी थी। बद्रीनाथ में तीर्थयात्रियों और साधुओं के लिए सदावर्त यानी हमेशा अन्न बांटने का व्रत लिया था। हिंदू धर्म में गंगाजी का व गंगाजल का बड़ा महत्व है। पूरे देश में स्थापित तीर्थस्थान भारत की एकात्मकता व राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। भारत के तीर्थों में गंगाजल पहुंचाने की श्रेष्ठ व्यवस्था द्वारा अहिल्याबाई ने धार्मिकता के साथ-साथ राष्ट्रीय एकात्मकता की प्राचीन परंपरा को नवजीवन दिया था।
अयोध्या, उज्जैन और नासिक में भगवान राम के मंदिर का निर्माण किया। उज्जैन में उन्होंने चिंतामणि गणपति के मंदिर का भी निर्माण करवाया। एलोरा, महाराष्ट्र में वर्ष 1780 के आस-पास घृणेश्वर मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। अहिल्याबाई को महेश्वर बहुत प्रिय था। उन्होंने यहां कई प्राचीन मंदिरों, घाटों आदि का जीर्णोद्धार कराया। इसके अलावा, कई नये मंदिर, घाट व मकान बनवाए। उन्होंने महेश्वर में अक्षय तृतीया के शुभ दिन घाट पर भगवान परशुराम का मंदिर बनवाया। जगन्नाथपुरी मंदिर को दान और आंध्र प्रदेश के श्रीशैलम सहित महाराष्ट्र में परली वैजनाथ ज्योतिर्लिंग का भी कायाकल्प करवाया।
आपके शासनकाल में ग्रीष्म ऋतु में कई स्थानों पर प्याऊ का प्रबंध होता था व ठंड में गरीबों को कंबल बांटे जाते थे। इन सारे कार्यो के लिए कई कर्मचारी नियुक्त थे। आपकी सैन्य प्रतिभा के अनेक प्रमाण अभिलेखों में उपलब्ध हैं। उनकी सफल कूटनीति का साक्ष्य यह है कि विशाल सैन्य बल से सज्ज आक्रमण की नीयत से आए राघोबा को उन्होंने अकेले पालकी में बैठकर उनसे मिलने आने के लिए उसे विवश कर दिया था। डाकुओं और भीलों को उन्होंने समाज की मुख्य धारा में लाने का यत्न किया तथा समाज के उपेक्षित लोगों की सेवा को उन्होंने ईश्वर की सेवा माना। उनकी व्यावसायिक दूरदृष्टि का उदाहरण महेश्वर का वह वस्त्रोद्योग है जहां आज भी सैकड़ों बुनकरों को आजीविका मिलती है तथा यहां की साड़ियां विश्वप्रसिद्ध हैं। वे अद्भुत दृष्टि सम्पन्न विदुषी थीं।
अहिल्याबाई होलकर परम शिव भक्त थी। उनकी राजाज्ञाओं पर ‘श्री शंकर आज्ञा’ लिखा रहता था। श्री काशीनाथ त्रिवेदी जी कहते है कि “उनका [अहिल्याबाई] मत था कि सत्ता मेरी नहीं, सम्पत्ति भी मेरी नहीं जो कुछ है भगवान का है और उसके प्रतिनिधि स्वरूप समाज का है।“ इस प्रकार उन्होंने समाज को भगवान का प्रतिनिधि माना और उसी को अपनी समूची सम्पदा सौंप दी। वह अपने समय में ही इतनी श्रद्धास्पद बनीं कि समाज ने उन्हें अवतार मान लिया। 8 मार्च 1787 के ‘बंगाल गजट’ ने यह लिखा कि देवी अहिल्या की मूर्ति भी सर्वसामान्य द्वारा देवी रूप से प्रतिष्ठित व पूजित की जाएगी।
महारानी अहिल्याबाई की पहचान एक विनम्र एवं उदार शासक के रुप में थी। उनके ह्रदय में जरूरमदों, गरीबों और असहाय व्यक्ति के लिए दया और परोपकार की भावना भरी हुई थी। उन्होंने समाज सेवा के लिए खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया था। अहिल्याबाई हमेशा अपनी प्रजा और गरीबों की भलाई के बारे में सोचती रहती थी, इसके साथ ही वे गरीबों और निर्धनों की संभव मद्द के लिए हमेशा तत्पर रहती थी। उन्होंने समाज में विधवा महिलाओं की स्थिति पर भी खासा काम किया और उनके लिए उस वक्त बनाए गए कानून में बदलाव भी किया था। अहिल्याबाई के मराठा प्रांत का शासन संभालने से पहले यह कानून था कि, अगर कोई महिला विधवा हो जाए और उसका पुत्र न हो, तो उसकी पूरी संपत्ति सरकारी खजाना या फिर राजकोष में जमा कर दी जाती थी, लेकिन अहिल्याबाई ने इस कानून को बदलकर विधवा महिला को अपनी पति की संपत्ति लेने का हकदार बनाया। इसके अलावा उन्होंने महिला शिक्षा पर भी खासा जोर दिया। अपने जीवन में तमाम परेशानियां झेलने के बाद जिस तरह महारानी अहिल्याबाई ने अपनी अदम्य नारी शक्ति का इस्तेमाल किया था, वो काफी प्रशंसनीय है। अहिल्याबाई कई महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। अहिल्यादेवी ने 13 अगस्त 1795 को अपनी अंतिम सांस ली। भले ही वह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपने कर्मों से खुद को अमर बना लिया। जिस तरह से वह सभी तरह की कठिनाइयों से गुजरीं, वह आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।