· राष्ट्रीय
स्वयंसेवक
संघ
ने
भी
सिंध
क्षेत्र
में
हिंदू
सिंधियों
की
बहुत
सार्थक
मदद
की
· भारत
के
विभाजन
के
पूर्व
श्री
“गुरु
जी” गोलवलकर
ने
सिंध
क्षेत्र
में
पहुंचकर
स्वयंसेवकों
को
आदेश
दिया
कि
विभाजन
होने
की
स्थिति
में
हिंदू
सिंधियों
को
भारत
में
लाने
में
पूर्ण
मदद
की
जाय
एवं
तब
तक
कोई
भी
स्वयंसेवक
इस
क्षेत्र
को
न
छोड़े
जब
तक
समस्त
हिंदू
सिंधी
भारत
की
ओर
प्रस्थान
नहीं
कर
लेते
· आज
भारतीय
सिंधियों
में
इस
बात
की
टीस
उभरती
है
कि
सिंध
को
पुनः
भारत
माता
के
आंगन
में
शामिल
हो
जाना
चाहिए
जैसा
कि
सर्वविदित
है
कि
प्राचीन
भारत
का
इतिहास
बहुत
वैभवशाली
रहा
है।
भारत
माता
को सही मायने
में
“सोने
की
चिड़िया” कहा
जाता
था
एवं
इस
संदर्भ
में
भारत
की
ख्याति
पूरे
विश्व
में
फैली
हुई
थी।
इसके
चलते
भारत
माता
को
लूटने
और
इसकी
धरा
पर
कब्जा
करने
के
उद्देश्य
से
पश्चिम
के
रेगिस्तानी
इलाकों
से
आने
वाले
मजहबी
हमलावरों
का
वार
सबसे
पहले
सिन्ध
की
वीरभूमि
को
ही
झेलना
पड़ता
था। अविभाजित भारत
में
सिंध
प्रांत
को
अपनी
भौगोलिक
स्थिति
के
चलते
किसी
जमाने
में
भारत
का
द्वार
भी
माना
जाता
था।
इसी
कारण
से
सिंध
प्रांत
ने
अरब
देशों
से
भारत
पर
होने
वाले
आक्रांताओं
के
वार
भी
सबसे
अधिक
सहे
हैं।
सिंध
के
रास्ते
ही
आक्रांता
भारत
में
आते
थे।
सिंध
की
पावन
भूमि
वैदिक
संस्कृति
एवं
प्राचीन
सभ्यता
का
केंद्र
रही
है
एवं
सिंध
की
पावन
धरा
पर
कई
ऋषि,
मुनियों
एवं
संत
महात्माओं
ने
जन्म
लिया
है।
सिंधी
समुदाय
को
भगवान
राम
के
वंशज
के
रूप
में
भी
माना
जाता
है।
महाभारत
काल
में
जिस
राजा
जयद्रथ
का
उल्लेख
है
वो
सिंधी
समुदाय
का
ही
था।
आज
के
बलोचिस्तान,
ईरान,
कराची
और
पूरे
सिन्धु
इलाके
के
राजा
थे
श्री
दाहिरसेन
जी।
आप
सिन्ध
के
अंतिम
हिंदू
शासक
माने
जाते
हैं
और
आपने
ही
सिंध
राज्य
की
सीमाओं
का
कन्नौज,
कंधार,
कश्मीर
और
कच्छ
तक
विस्तार
किया
था।
आपका
जन्म
663 ईसवी
में
हुआ
था
और
16 जून
712 ईसवी
को
इस
महान
भारत
भूमि
की
रक्षा
करते
हुए
उन्होंने
बलिदान
दे
दिया
था।
श्री
दाहिरसेन
जी
जिन्होंने
युद्धभूमि
में
लड़ते
हुए
न
केवल
अपनी
प्राणाहुति
दी
बल्कि
उनके
शहीद
होने
के
बाद
उनकी
पत्नी,
बहन
और
दोनों
पुत्रियों
ने
भी
अपना
बलिदान
देकर
भारत
में
एक
नयी
परम्परा
का
सूत्रपात
किया
था।
राजा
श्री
दाहिरसेन
जी
एक
प्रजावत्सल
राजा
थे।
गौरक्षक
के
रूप
में
उनकी
ख्याति
दूर-दूर
तक
फैली
हुई
थी।
सिंध
राज्य
के
वैभव
की
कहानियां
सुनकर
ईरान
के
शासक
हज्जाम
ने
712 ईसवी
में
अपने
सेनापति
मोहम्मद
बिन
कासिम
को
एक
विशाल
सेना
देकर
सिन्ध
पर
हमला
करने
के
लिए
भेजा।
कासिम
ने
देवल
के
किले
पर
कई
आक्रमण
किए
पर
राजा
श्री
दाहिरसेन
जी
और
उनके
हिंदू
वीरों
ने
हर
बार
उसे
पीछे
धकेल
दिया।
परंतु
कई
बार
हारने
के
बावजूद
अंततः
मोहम्मद
बिन
कासिम
ने
अंतिम
हिन्दू
राजा
श्री
दाहिरसेन
को
विश्वासघात
कर
हरा
दिया
जिसके
बाद
सिंध
को
अल-हिलाज
के
खलीफा
द्वारा
अपने
राज्य
में
शामिल
कर
लिया
गया
और
खलीफा
के
प्रतिनिधियों
द्वारा
सिंध
में
शासन
प्रशासन
चलाया
गया।
इस्लामिक
आक्रमणकारियों
ने
पूरे
क्षेत्र
में
तलवार
की
नोंक
पर
लगातार
हिन्दू
धर्मावलम्बियों
का
धर्मांतरण
किया
और
इस
क्षेत्र
में
इस्लाम
को
फैलाया।
समय
के
साथ
साथ
सिंध
पर
शासन
करने
वाले
शासक
भी
बदलते
रहे
एवं
एक
समय
सिंध
की
राजधानी
थट्टा
पर
अत्याचारी,
दुराचारी
एवं
कट्टर
इस्लामिक
आक्रमणकारी
मिरखशाह
का
शासन
स्थापित
हो
गया।
उसने
सिंध
में
एवं
इसके
आसपास
के
क्षेत्र
में
इस्लाम
को
फैलाने
के
लिए
वहां
के
निवासियों
का
नरसंहार
करना
शुरू
किया।
मिरख
शाह
जिन
सलाहकारों
और
मित्रों
से
घिरा
हुआ
था
उन्होंने
उसे
सलाह
दी
थी
कि
यदि
आप
इस
क्षेत्र
में
इस्लाम
फैलाएंगे
तो
आपको
मौत
के
बाद
जन्नत
या
सर्वोच्च
आनंद
प्राप्त
होगा।
इस
सलाह
को
सुनकर
मिरख
शाह
ने
उस
इलाके
के
हिंदुओं
के
पंच
प्रतिनिधियों
को
बुलाया
और
उन्हें
आदेश
दिया
कि
इस्लाम
को
गले
लगाओ
या
मरने
की
तैयारी
करो।
मिरखशाह
की
धमकी
से
डरे
हिंदुओं
ने
इस
पर
विचार
करने
को
कुछ
समय
मांगा
जिस
पर
मिरखशाह
ने
उन्हें
40 दिन
का
समय
दे
दिया।
अपने
सामने
मौत
और
धर्म
पर
आए
संकट
को
देखते
हुए
सिंधी
हिंदुओं
ने
नदी
(जल)
के
देवता
श्री
वरुण
देव
भगवान
की
ओर
रूख
किया।
चालीस
दिनों
तक
हिंदुओं
ने
तपस्या
की।
उन्होंने
ना
बाल
कटवाए
और
ना
ही
भोजन
किया।
इस
दौरान
उपवास
कर
केवल
ईश्वर
की
स्तुति
और
प्रार्थना
करते
रहे।
सिंधी
हिंदुओं की प्रार्थना
के
बाद
भगवान
झूलेलाल
का
अवतरण
इस
धरा
पर
हुआ।
भगवान
झूलेलाल
ने
अपने
चमत्कारिक
जन्म
और
जीवन
से
न
सिर्फ
सिंधी
हिंदुओं
के
जान-माल
की
रक्षा
की
बल्कि
हिन्दू
धर्म
को
भी
बचाए
रखा।
मिरख
शाह
जैसे
न
जाने
कितने
इस्लामिक
कट्टरपंथी
आए
और
धर्मांतरण
का
खूनी
खेल
खेला
लेकिन
भगवान
झूलेलाल
की
वजह
से
सिंध
में
उस
दौर
में
मुस्लिम
आक्रांताओं
के
कहर
पर
अंकुश
लगा
रहा।
यदि
भारत
के
प्राचीन
अर्थतंत्र
के
बारे
में
अध्ययन
किया
जाय
तो
ध्यान
आता
है
कि
प्राचीन
भारत
की
अर्थव्यस्था
बहुत
समृद्ध
थी
एवं
इसमें
सिंध
क्षेत्र
का
प्रमुख
योगदान
रहता
आया
है।
ब्रिटिश
आर्थिक
इतिहास
लेखक
श्री
एंगस
मेडिसन
एवं
अन्य
कई
अनुसंधान
शोधपत्रों
के
अनुसार
ईसा
के
पूर्व
की
15 शताब्दियों
तक
वैश्विक
अर्थव्यवस्था
में
भारत
का
हिस्सा
35-40 प्रतिशत
बना
रहा
एवं
ईस्वी
वर्ष
1 से
सन
1500 तक
भारत
विश्व
का
सबसे
धनी
देश
था।
श्री
एंगस
मेडिसन
के
अनुसार,
मुगलकालीन
आर्थिक
गतिरोध
के
बाद
भी
1700 ईस्वी
में
वैश्विक
अर्थव्यवस्था
में
भारत
का
योगदान
24.4 प्रतिशत
था।
ब्रिटिश
औपनिवेशिक
शोषण
के
दौर
में
यह
घटकर
1950 में
मात्र
4.2 प्रतिशत
रह
गया
था।
भारत
से
कृषि
उत्पादों,
मसालों
एवं
कपड़े
आदि
के
निर्यात
से
विदेशी
मुद्रा
के
रूप
में
सोना
प्राप्त
होता
था
अतः
भारत
में
सोने
के
अथाह
भंडार
जमा
हो
गए
थे।
भारत
से
होने
वाला
विदेशी
व्यापार
भी
सामान्यतः
सिंध
स्थित
बंदरगाहों
के
माध्यम
से
होता
था।
मुगलों
एवं
अंग्रेजों
के
शासनकाल
में
भारत
में
हिंदुओं
को
विभिन्न
जाति,
धर्म,
पंथ
एवं
सम्प्रदाय
में
अलग
अलग
बांटने
की
पुरजोर
कोशिश
की
गई
थी,
ताकि
भारत
एक
राष्ट्र
के
रूप
में
उभर
नहीं
सके।
इसके
लिए
अंग्रेजों
ने
तीन
सूत्रीय
कार्यक्रम
पर
कार्य
किया।
(1) हिंदू
सोसायटी
का
गैरराष्ट्रीयकरण
अर्थात
भारतीय
नागरिकों
को
राष्ट्रवाद
की
भावना
से
भटकाना;
(2) हिंदू
सोसायटी
का
गैर
सामाजीकरण
अर्थात
भारतीय
नागरिकों
को
विभिन्न
समाजों
के
बीच
बांटना;
एवं
(3) हिंदू
सोसायटी
का
गैरहिंदुत्ववादीकरण
अर्थात
भारतीय
नागरिकों
को
महान
भारतीय
सनातन
हिंदू
संस्कृति
से
दूर
ले
जाना।
परंतु,
सिंध
क्षेत्र
के
हिंदू
सिंधियों
पर
इन
बातों
का
बहुत
कम
असर
हुआ
था,
इसी
के
चलते
वर्ष
1947 में
भारत
के
विभाजन
के
समय
लाखों
की
संख्या
में
हिंदू
सिंधियों
ने
भारत
को
अपनी
माता
मानते
हुए
भारत
के
विभिन्न
राज्यों
में
अपना
घर
बसा
लिया
और
अपनी
महान
भारतीय
संस्कृति
को
अपनाए
रखना
उचित
समझा।
हालांकि
हिंदू
सिंधियों
के
उस
वक़्त
के
सबसे
बुरे
दौर
में
राष्ट्रीय
स्वयंसेवक
संघ
ने
भी
सिंध
क्षेत्र
में
हिंदू
सिंधियों
की
बहुत
सार्थक
मदद
की
थी।
भारत
के
विभाजन
के
पूर्व
परमपूज्य
संघचालक
माननीय
श्री
गोलवलकर
“गुरु
जी” ने
सिंध
क्षेत्र
में
पहुंचकर
स्वयंसेवकों
को
आदेश
दिया
था
कि
देश
का
विभाजन
होने
की
स्थिति
में
हिंदू
सिंधियों
को
भारत
में
लाने
में
पूर्ण
मदद
की
जाय
एवं
तब
तक
कोई
भी
स्वयंसेवक
इस
क्षेत्र
को
न
छोड़े
जब
तक
समस्त
हिंदू
सिंधी
भारत
की
ओर
प्रस्थान
नहीं
कर
लेते।
उस
समय
सिंध
क्षेत्र
में
75 प्रचारक
एवं
450 पूर्णकालिक
कार्यकर्ता
सेवारत
थे।
इस
प्रकार
उस
समय
के
कठिन
दौर
में
संघ
ने
हिंदू
सिंधियों
की
पूर्ण
मदद
की
थी
जिसके
कारण
आज
हिंदू
सिंधी
मां
भारती
के
आंगन
में
रच
बस
गए
है।
चूंकि
पूर्व
में
सिंध
भारत
माता
का
अभिन्न
अंग
रहा
है,
अतः
आज
भारतीय
सिंधियों
में
इस बात की
टीस
लगातार
उभरती
रहती
है
कि
सिंध
को
पुनः
भारत
माता
के
आंगन
में
शामिल
हो
जाना
चाहिए। सिंध की
पवित्र
धरा
पर
कई
ऋषियों,
मुनियों
एवं
महात्माओं
ने
जन्म
लिया
है,सिंध
की
पावन
भूमि
वैदिक
संस्कृति
एवं
प्राचीन
सभ्यता
का
केंद्र
रही
भारत को
आर्थिक
शक्ति
बनाए
रखने
में
भी
सिंध
क्षेत्र
का
बहुत
अधिक
योगदान
रहा
है
अतः
आज
अखंड
भारत
को
मूर्त
रूप
देने
हेतु
सिंध
प्रांत
के
भारत
में
विलय
हेतु
गम्भीर
प्रयास
प्रारम्भ
किए
जाने
चाहिए।
(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)