प्राचीन भारतीय न्याय व्यवस्था /१
लेखक- प्रशांत पोळ
सामान्यतः ऐसा माना जाता है (और जो शालेय / महाविद्यालयीन शिक्षा से और दृढ़ होता गया है) कि, न्याय प्रणाली, न्यायालय, न्यायमूर्ती, वकील…. यह सब व्यवस्थाएं अंग्रेज भारत में लाए। अंग्रेजों के आने से पहले भारत में यह कुछ भी नहीं था। यदि जनता की कोई शिकायतें होती थी, तो वह सीधे राजा के सामने रखी जाती थी। राजा मनमर्जी से, या उस समय उसकी जो मनस्थिति रही होगी, उस प्रकार निर्णय देता था।
परंतु वास्तविक चित्र क्या है?
अपने देश में हजारों वर्षों से सुव्यवस्थित न्यायप्रणाली कार्यरत थी। इस न्यायप्रणाली का आधार था – धर्मशास्त्रों का, अलग-अलग स्मृतियों का। न्याय व्यवस्था को समाज की मान्यता थी। व्यवस्था के कारण उस समय के अखंड और विशाल भारत देश में स्वस्थ, सुदृढ़ और सशक्त समाज व्यवस्था का अस्तित्व था। महेश कुमार शरण ने पुस्तक ‘कोर्ट प्रोसिजर इन एंशियंट इंडिया’ में लिखा है – ‘It is just possible that elements of Hindu law were adopted by Romans thourgh Greek and Egyptian channels’.
अर्थात, विश्व में परिपूर्ण न्याय व्यवस्था सर्वप्रथम भारत में ही विकसित हुई है। यह न्याय व्यवस्था ग्रीक और मिस्त्र देश के माध्यम से रोमन्स (यूरोपियन्स) ने अपनायी होगी।
महेश कुमार शरण ने आगे लिखा है – ‘It should be a pride and satisfaction to a Hindu to know that his / her ancestors had scaled great heights not only in literature, philosophy and religion, but had advanced very far, in the domain of law’ – (Court procedures in Ancient India)
(अर्थात, एक हिन्दू के लिए इसकी जानकारी होना अत्यंत गर्व और समाधान की बात है कि उसके पुरखों ने केवल साहित्य, दर्शन और धर्म में ही अपनी कीर्ति ध्वजा फहराई थी, ऐसा नहीं है। न्याय के क्षेत्र में भी उन्होने कीर्तिमान रचा था।)
आगे लिखा है – ‘The rule and evidence were as complete and perfect, as we can find them today. The administration of justice was regular and the system was well defined, as no aspect was left arbitrarily, capricious or uncertain. Judiciary had the highest regard and supreme position.
(अर्थात, ‘नियम’ और ‘प्रमाण’ इन की परिभाषा इतनी परिपूर्ण और निर्दोष थी, जितनी आज है। न्याय प्रणाली एक नियमित व्यवस्था थी। परिभाषा सुस्पष्ट थी। इसमें कोई भी अनिश्चितता नहीं थी। न्याय व्यवस्था सर्वोच्च स्थान पर थी और उस व्यवस्था को सर्वाधिक आदर और सम्मान मिलता था।)
इसी पुस्तक में महेश कुमार शरण ने आगे लिखा है – Besides this, the whole procedure is completely indigenous and nothing has been imported into it from any other system, whatsoever.’
(अर्थात, इस न्याय व्यवस्था की संपूर्ण प्रक्रिया पूर्णतः स्वदेशी थी। इसमें कोई भी बाहरी (देशों से) बिंदु या व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया गया था।)
————– ————-
भारत की यह संपूर्ण न्याय व्यवस्था, स्मृतियों के आधार पर खड़ी थी। कात्यायन स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, पाराशर स्मृति आदि प्रमुख स्मृतियां थी।
यह स्मृति क्या होती है? यह कितनी पुरानी है?
एक सुव्यवस्थित समाज रचना निर्माण करने के लिए, हजारों वर्षों से अपने पूर्वजों ने कुछ ग्रंथों का निर्माण किया है। इन ग्रंथों के अनुसार ही अपने समाज में प्रथा, परंपरा, व्यवस्थाएं निर्माण हुई। इन ग्रंथों के आधार पर अपना समाज चल रहा था। इसलिए, इतने सारे आक्रमणों के बाद भी हमारी पहचान कायम रही, बनी रही।
इन ग्रंथों में वेद है, उपनिषद है, श्रुति है, स्मृति है, पुराण है। हजारों वर्षों से हमारे ऋषि मुनियों ने, समाज महर्षियों ने, जिस ज्ञान का संचय किया है, वह संचय यानी स्मृतियां। एक प्रकार से परंपराओं का संकलन होने के कारण इन्हें ‘स्मृति’ नाम दिया गया है। यह स्मृति मानो हमारा धर्मशास्त्र है। भारत का और पौर्वात्य प्राचीन साहित्य का अध्ययन करने वाले जो पाश्चात्य विद्वान हैं, उनके अनुसार इन स्मृतियों की रचना ईसा पूर्व 500 वर्षों से लेकर तो ईसा के बाद पांचवीं सदी तक हुई है। तक्षशिला विश्वविद्यालय में जिस काल खंड में आर्य चाणक्य अर्थशास्त्र लिख रहे थे, उसी कालखंड में स्मृतियों की रचना हुई है, ऐसा पश्चिम के विद्वानों का मत है। परंतु उपलब्ध संदर्भों के अनुसार स्मृतियों का कालखंड इससे भी बहुत प्राचीन है।
स्मृतियों में से ‘कात्यायन स्मृति’ ऋषि कात्यायन द्वारा लिखी गई है, ऐसा माना जाता है। कात्यायन, याज्ञवल्क्य ऋषि के पुत्र थे। इनका कार्यकाल ईसा पूर्व कुछ हजार वर्ष माना जाता है। अर्थात ‘कात्यायन स्मृति’ यह ग्रंथ, कात्यायन ऋषि द्वारा लिखे सूत्र और उनके अन्य शिष्यों के साहित्य का संकलन है। इसलिए कात्यायन स्मृति में केवल ऋषि कात्यायन के श्लोक नहीं है। देवल, पितामह, प्रजापति, वशिष्ठ, मनु आदि ॠषियों का सहभाग भी कात्यायन स्मृति में है।
स्मृति में कात्यायन ऋषि ने उनके पहले, न्याय के क्षेत्र में जिन्होंने काम किया था, उनका उल्लेख किया है। भृगु, बृहस्पति, गार्गीय, तम, कौशिक, लिखिता, मनु, मानव आदि..! प्राचीन भारत में जो न्याय प्रणाली विकसित हो रही थी, उसमें कात्यायन ऋषि के बाद, लगभग 1000 वर्ष तक, इसमें विशिष्ट सुधार होते रहे। कात्यायन स्मृति में उसका प्रभाव दिखता है। स्मृति में प्रत्यक्ष कात्यायन ऋषि के लिखे श्लोक अंत में दिए हैं।
महामहोपाध्याय डॉक्टर पांडुरंग वामन काणे (1880 – 1972) ने प्राचीन भारतीय न्याय शास्त्र के क्षेत्र में, अत्यंत गहन शोध और भरपूर लेखन किया है। ‘भारतीय धर्मशास्त्र का इतिहास’ विषय पर उनका 6500 पृष्ठों का, पांच खंडों में लिखा साहित्य प्रकाशित हुआ है। स्वयं न्याय शास्त्र के विद्वान तो थे ही, साथ में उन्होंने संस्कृत ग्रंथों का गहन अध्ययन किया। वर्ष 1963 में महामहोपाध्याय काणे जी को भारत का सर्वोच्च सम्मान, ‘भारत रत्न’ दिया गया।
ऐसे पां. वा. काणे जी ने, कात्यायन स्मृति के बारे में बहुत कुछ लिख रखा है। वे लिखते हैं – ‘कात्यायन स्मृति में न्याय प्रणाली के संदर्भ में जो विषय आए हैं, वह अद्भुत और आश्चर्यजनक हैं। क्योंकि आज के आधुनिक न्याय शास्त्र जैसी पद्धति और नियम, कात्यायन स्मृति में हैं।
[Some of his (sage Katyayan’s) rules, such as those about the contents and characteristics of good points and written statements, about the evidence of witness and about documents, about constructive res judicata are startling in their modernity].
कात्यायनी स्मृति में आए विषय –
– न्यायालय, न्यायालय की प्रक्रिया / पद्धति
– कागजात
– परीक्षण (बहस)
– शपथ लेकर दी हुई साक्ष्य / बयान
– भागीदारी
– भेंट वस्तु (gift)
– अनुबंध तोड़ना
– जो मालिक नहीं है, ऐसे व्यक्ति ने की हुई वस्तुओं की बिक्री
– परंपराओं का / नियमों का उल्लंघन
– विवादों की सीमा
– पैतृक संपत्ति का बंटवारा / विवाद
– वाकपारुष्य (आज की भाषा में ‘हेट स्पीच’)
– दंड पारुष्य (कठोर सजा)
– प्रकीर्णक (विविध / अनेक प्रकार के यम-नियम)