भारत की प्राचीन एवं पवित्र नगरियों में से एक अयोध्या को हिन्दू पौराणिक इतिहास में पवित्र सप्तपुरियों में अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवंतिका (उज्जयिनी) और द्वारका में शामिल किया गया है। अयोध्या को अथर्ववेद में ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। स्कंदपुराण के अनुसार अयोध्या शब्द ‘अ’ कार ब्रह्मा, ‘य’ कार विष्णु है तथा ‘ध’ कार रुद्र का स्वरूप है। अयोध्या की गणना भारत की प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है। अयोध्या नगर की स्थापना हेतु स्थान चयन-पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा से जब मनु ने अपने लिए एक नगर के निर्माण की बात कही तो वे उन्हें विष्णु जी के पास ले गए। विष्णुजी ने उन्हें साकेतधाम में एक उपयुक्त स्थान बताया। विष्णुजी ने इस नगरी को बसाने के लिए ब्रह्मा तथा मनु के साथ देवशिल्पी विश्वकर्मा को भेज दिया। इसके अलावा अपने रामावतार के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढने के लिए महर्षि वशिष्ठ को भी उनके साथ भेजा। मान्यता है कि वशिष्ठ द्वारा सरयू नदी के तट पर लीलाभूमि का चयन किया गया, जहां विश्वकर्मा ने नगर का निर्माण किया। स्कंदपुराण के अनुसार अयोध्या भगवान विष्णु के चक्र पर विराजमान है।
राम की ऐतिहासिकता 1600 ई. पू. तक पहुंचती है। उसके बाद से मूर्ति, सिक्के और अभिलेखों के रूप में उनका प्रचुर ब्योरा मिलता है। यह उनकी ऐतिहासिकता का पुष्ट प्रमाण है क्योंकि ऐसे लेखों और ब्योरों में उसी के होने की परंपरा रही है, जो ऐतिहासिक हो। यदि राम मिथ होते तो ऐसा नहीं हो सकता था। इतिहास में परंपरा के रूप में सतत् विद्यमान राम का विवरण प्रस्तुत किया जाता रहा है। दूसरी शताब्दी ई. पू. के शुंग काल में रामकथा का विधिवत स्वरूप मिलता है। इसी दौर के विद्वान अश्वघोष कृत बुद्ध चरितम् में भी रामकथा का विवरण मिलता है। राम का दैवीकरण 1600 ई. पू. में प्राप्त होता है। कुषाण काल तक राम देवता के रूप में प्रस्तुत हो चले थे। वाल्मीकि रामायण की प्राचीनता चौथी-पांचवीं शताब्दी तक इंगित होती है। इससे भी प्राचीन मानी जाने वाली जैन परंपरा में राम की गणना 63 महापुरुषों की सूची में हुई है। छांदोग्यपनिषद से भी राम के बारे में प्रमाण मिलता है। अभिलेखों में गौतमी पुत्र शातकर्णि को राम, परशुराम, अंबरीष के समान शूरवीर बताया गया है। इंडोचाइना, पश्चिम, मध्य और दक्षिण पूर्व एशिया में भी राम की ऐतिहासिकता के प्रमाण बिखरे मिलते हैं। यह कहना अनर्गल है कि राम हुए ही नहीं। सरयू बाग संस्कृत महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य डॉ. रामकृष्ण शास्त्री के अनुसार-राम ब्रह्मैव नापरः यानी वे ब्रह्म हैं और उनकी मूल परंपरा इतिहास से परे है। वे शाश्वत हैं। राम को परमात्मा व इतिहास पुरुष, दोनों रूपों में कहने का प्रयास किया गया है। भगवान राम की नगरी अयोध्या हजारों महापुरुषों की कर्मभूमि रही है। यह पवित्र भूमि हिन्दुओं के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। यहां पर भगवान राम का जन्म हुआ था। इसकी ऐतिहासिकता और इतिहास के तथ्य जानना बहुत आवश्यक है।
सरयू नदी के तट पर बसे इस नगर की रामायण के अनुसार विवस्वान (सूर्य) के पुत्र वैवस्वत मनु महाराज द्वारा स्थापना की गई थी। माथुरों के इतिहास के अनुसार वैवस्वत मनु लगभग 6673 ईसा पूर्व हुए थे। ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि से कश्यप का जन्म हुआ। कश्यप से विवस्वान और विवस्वान के पुत्र वैवस्वत मनु थे। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र- इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यन्त, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध थे। इसमें इक्ष्वाकु कुल का ही ज्यादा विस्तार हुआ। इक्ष्वाकु कुल में कई महान प्रतापी राजा, ऋषि, अरिहंत और भगवान हुए हैं। इक्ष्वाकु कुल में ही आगे चलकर प्रभु श्रीराम हुए। अयोध्या पर महाभारत काल तक इसी वंश के लोगों का शासन रहा। बेंटली एवं पार्जिटर जैसे विद्वानों ने ‘ग्रह मंजरी’ आदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों के आधार पर इनकी स्थापना का काल ई.पू. 2200 के आसपास माना है। इस वंश में राजा रामचंद्र जी के पिता दशरथ 63वें शासक हैं। अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। पहले यह कौशल जनपद की राजधानी थी। प्राचीन उल्लेखों के अनुसार तब इसका क्षेत्रफल 96 वर्ग मील था। वाल्मीकि रामायण के 5वें सर्ग में अयोध्या पुरी का वर्णन विस्तार से किया गया है।
यह स्थान रामदूत हनुमान के आराध्य प्रभु श्रीराम का जन्म स्थान है। राम एक ऐतिहासिक महापुरुष थे और इसके पर्याप्त प्रमाण हैं। शोधानुसार पता चलता है कि भगवान राम का जन्म 5114 ईस्वी पूर्व हुआ था। चैत्र मास की नवमी को रामनवमी के रूप में मनाया जाता है। अयोध्या में कई महान योद्धा, ऋषि-मुनि और अवतारी पुरुष हो चुके हैं। भगवान राम ने भी यहीं जन्म लिया था। जैन मत के अनुसार यहां आदिनाथ सहित 5 तीर्थंकरों का जन्म हुआ था। जैन परंपरा के अनुसार भी 24 तीर्थंकरों में से 22 इक्ष्वाकु वंश के थे। इन 24 तीर्थंकरों में से भी सर्वप्रथम तीर्थंकर आदिनाथ (ऋषभदेव जी) के साथ चार अन्य तीर्थंकरों का जन्मस्थान भी अयोध्या ही है। बौद्ध मान्यताओं के अनुसार बुद्ध देव ने अयोध्या अथवा साकेत में 16 वर्षों तक निवास किया था। उत्तर भारत के तमाम हिस्सों में जैसे कौशल, कपिलवस्तु, वैशाली और मिथिला आदि में अयोध्या के इक्ष्वाकु वंश के शासकों ने ही राज्य कायम किए थे। अयोध्या और प्रतिष्ठानपुर (झूंसी) के इतिहास का उद्गम ब्रह्माजी के मानस पुत्र मनु से ही सम्बद्ध है। जैसे प्रतिष्ठानपुर और यहां के चंद्रवंशी शासकों की स्थापना मनु के पुत्र ऐल से जुड़ी है, जिसे शिव के श्राप ने इला बना दिया था, उसी प्रकार अयोध्या और उसका सूर्यवंश मनु के पुत्र इक्ष्वाकु से प्रारम्भ हुआ। भगवान श्रीराम के बाद बाद लव ने श्रावस्ती बसाई और इसका स्वतंत्र उल्लेख अगले 800 वर्षों तक मिलता है। कहते हैं कि भगवान श्रीराम के पुत्र कुश ने एक बार पुनः राजधानी अयोध्या का पुनर्निर्माण कराया था। इसके बाद सूर्यवंश की अगली 44 पीढ़ियों तक इसका अस्तित्व बरकरार रहा। रामचंद्र से लेकर द्वापरकालीन महाभारत और उसके बहुत बाद तक हमें अयोध्या के सूर्यवंशी इक्ष्वाकुओं के उल्लेख मिलते हैं। इस वंश का बृहद्रथ, अभिमन्यु के हाथों ‘महाभारत’ के युद्ध में मारा गया था। महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड़-सी गई लेकिन उस दौर में भी श्रीराम जन्मभूमि का अस्तित्व सुरक्षित था जो लगभग 14वीं सदी तक बरकरार रहा। बृहद्रथ के कई काल बाद यह नगर मगध के मौर्यों से लेकर गुप्तों और कन्नौज के शासकों के अधीन रहा। इसके बाद भी राम जन्मभूमि को लेकर लोगों के बीच मान्यता रही और पूजा-पाठ का कार्य जारी रहा। लेकिन जो साक्ष्य मिलते हैं, उसके अनुसार कालातंर में मंदिर तो बना रहा लेकिन अयोध्या धीरे-धीरे उजड़ती गई। इतिहास के अनुसारस, उसके बाद सम्राट विक्रमादित्य ने राममंदिर का निर्माण करवाया। साक्ष्यों के अनुसार, ईसा के लगभग 100 साल पहले उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य टहलते-टहलते अयोध्या पहुंच गए थे। जब वह थक गए तो उन्होंने सरयू नदी पर एक पेड़ के नीचे विश्राम किया, तब उनको वहां पर कई चमत्कार दिखाई दिए। उस वक्त तक अयोध्या में कोई बनावट नहीं बची थी, केवल जंगल था। तब विक्रमादित्य ने खोज शुरू की तब साधु-संतों से पता चला कि यह भगवान राम की जन्मस्थली है। तब सम्राट विक्रमादित्य ने भव्य राम मंदिर निर्माण के साथ-साथ सरोवर, महल, कूप आदि कई विकास के कार्य किए। बताया जाता है कि उस वक्त राम जन्मभूमि पर बने मंदिर की भव्यता देखने लायक थी। हर कोई भगवान राम के साथ उस भव्यता को चमत्कार करता। विक्रमादित्य के बाद कई राजा मंदिरों की देखभाल करते रहे और पूजा-पाठ का कार्य जारी रहा।
इसके बाद शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र ने राम जन्मभूमि पर बने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था। पुष्यमित्र को अयोध्या से एक शिलालेख मिला, जिसमें पता चलता है कि अयोध्या गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय की राजधानी रही थी। साथ ही उस समय के कालिदास ने भी कई बार अयोध्या के राममंदिर का उल्लेख किया है। उसके बाद कई राजा-महाराजा आए और राम मंदिर की देखभाल करते रहे।
इतिहासकारों की मानंे तो 5वीं शताब्दी में अयोध्या बौद्ध केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यहां पर आदिनाथ सहित 5 तीर्थकारों का जन्म हुआ। तब इसका नाम साकेत हुआ करता था। 5वीं से लेकर 7वीं शताब्दी तक यहां पर कम से कम 20 बौद्ध मंदिर थे और उनके साथ हिंदुओं का एक भव्य मंदिर भी था, जहां हर रोज दर्शन करने के लिए आते थे। इसके बाद 11वीं शताब्दी में कन्नौज के राजा जयचंद ने मंदिर से सम्राट विक्रमादित्य का शिलालेख हटवाकर अपना नाम लिखवा दिया। पानीपत के युद्ध के दौरान राजा जयचंद की मृत्यु हो गई और उसके बाद बाहर से कई आक्रमणकारी आए और उन्होंने अयोध्या समेत, मथुरा, काशी पर आकम्रण कर दिया और मंदिर को तोड़ा गया और पुजारियों की हत्या की गई। अंत में यहां महमूद गजनी के भांजे सैयद सालार ने तुर्क शासन की स्थापना की। वो बहराइच में 1033 ई. में मारा गया था। उसके बाद तैमूर के पश्चात जब जौनपुर में शकों का राज्य स्थापित हुआ तो अयोध्या शर्कियों के अधीन हो गया, विशेषरूप से शक शासक महमूद शाह के शासन काल 1440 ई. में।
लेकिन 14वीं शताब्दी तक वे अयोध्या में बने राममंदिर को तोड़ नहीं पाए। बताया जाता है कि सिंकदर लोदी के शासनकाल के दौरान भी भव्य राममंदिर था। 1526 ई. में बाबर ने मुगल राज्य की स्थापना की और उसके सेनापति ने 1528 में यहां आक्रमण करके मस्जिद का निर्माण करवाया जो 1992 में मंदिर-मस्जिद विवाद के चलते रामजन्मभूमि आन्दोलन के दौरान ढहा दी गई।
विदेशी आक्रांता बाबर के आदेश पर सन् 1527-28 में अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बने भव्य राम मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद का निर्माण किया गया। कालांतर में बाबर के नाम पर ही इस मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद रखा। जब मंदिर तोड़ा जा रहा था तब जन्मभूमि मंदिर पर सिद्ध महात्मा श्यामनंदजी महाराज का अधिकार था। उस समय भीटी के राजा महताब सिंह बद्रीनारायण ने मंदिर को बचाने के लिए बाबर की सेना से युद्ध लड़ा। कई दिनों तक युद्ध चला और अंत में हजारों वीर सैनिक शहीद हो गए। इसके बाद 5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा भूमि पूजन के बाद राममंदिर निर्माण का कार्य आरंभ हो गया और इसके साथ ही भव्य राम मंदिर निर्माण का भक्तों का सपना भी पूरा हो गया। जल्द ही यहां पर रामलला का भव्य मंदिर देखने को मिलेगा। (लेखिका ने चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय से बाल्मीकि रामायण पर शोध कार्य किया है)