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धरोहर

वैश्विक ज्ञानदा नालंदा विश्वविद्यालय

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भारतवासियों की कुछ अमूल्य विरासत ऐसी हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व के ज्ञानार्जन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और ऐसी धरोहरों पर हमें गर्व है। प्राचीनकाल से ही हमारी समृद्धशाली ज्ञानधारा पूरब से लेकर पश्चिम तक के सभी देशों को आकर्षित करती रही है और वे हमारे पास ज्ञानार्जन हेतु आते रहे हैं। जब विश्व में शिक्षा की अल्पता थी, तब भी हमारा देश ज्ञान के सागर से परिपूर्ण था। भारत को प्राचीनकाल से विश्व गुरु कहा जाता है जिसका अर्थ है कि भारत विश्व को पढ़ाने वाला अथवा पूरी दुनिया का शिक्षक है। विश्व के अन्य देश जब अंधकार में डूबे हुए थे उस समय भारत की सभ्यता एवं संस्कृति ने अपने उच्च स्तर के साहित्य, कला, शिक्षा एवं ज्ञान विज्ञान से विश्व को ज्ञान से आलोकित किया। वैसे भी पाली भाषा में जब हम भारत शब्द का अर्थ खोजते है तो पाते हैं कि भा का अर्थ होता है प्रकाश और रत का अर्थ होता है लगातार, अनवरत अर्थात ज्ञान का प्रकाश जहां से अनवरत निकलता है, उस भूमि को भारत कहा जाता है। आज से हजारों वर्ष पूर्व भी भारत में ऐसे-ऐसे  शिक्षा के केंद्र थे, जैसे कि आज के आधुनिक विश्वविद्यालय हैं। आठवीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी के बीच भारत पूरे विश्व में शिक्षा का सबसे बड़ा और प्रसिद्ध केंद्र था। गणित शास्त्र, सैन्य शिक्षा, ज्योतिष शास्त्र, भूगोल शिक्षा, विज्ञान के साथ ही अन्य विषयों की शिक्षा देने में भारतीय विश्वविद्यालयों के समकक्ष कोई दूसरा विश्वविद्यालय नहीं था। इन विश्वविद्यालयों  में अपने देश से ही नहीं अपितु विदेशों से भी छात्र अध्ययन करने आते थे।

अपने उत्कृष्ट कोटि के ज्ञान एवं शिक्षण के कारण ही भारत के अनेक नगरों ने प्राचीन काल में  शिक्षा केंद्रों के रूप में विश्व भर में अपनी प्रसिद्धि प्राप्त कर ली थी तथा कालांतर में वे विश्वविद्यालयों के रूप में विकसित हुए। सबसे प्राचीनतम युग, वैदिक युग में भी तक्षशिला, नालंदा, मिथिला, पाटलिपुत्र, कान्यकुब्ज, धारा, तंजोर आदि भारत में कई प्रसिद्ध शिक्षण केंद्र थे। भारतभूमि पर ही सर्वप्रथम विश्वविद्यालय की संकल्पना का उदय हुआ। प्राचीन काल में तक्षशिला विश्वविद्यालय, नालंदा विश्वविद्यालय, विक्रमशिला विश्वविद्यालय, वल्लभी विश्वविद्यालय, पुष्पगिरी विश्वविद्यालय, ओदंतपुरी विश्वविद्यालय, सोमपुरा विश्वविद्यालय, जगददला विश्वविद्यालय, नागार्जुनकोंडा, वाराणसी, कांचीपुरम, मणिखेत और शारदा पीठ आदि प्रमुख विश्वविद्यालय शिक्षा के केंद्र विश्व भर में प्रसिद्द थे।

प्राचीन काल के सर्वाधिक प्रतिष्ठित एवं उच्च कोटि के विद्वानो के शिक्षण स्थल के रूप में सम्पूर्ण विश्व में विख्यात एवं विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय भी भारत के तक्षशिला नगर में था, जिसकी स्थापना 700 ईसा पूर्व (लगभग 2700 वर्ष पूर्व) हुई थी। परन्तु विभाजन के पश्चात् यह स्थान वर्तमान पाकिस्तान का हिस्सा है तथा इस्लामाबाद के पास स्थित है। तक्षशिला विश्वविद्यालय के पश्चात् विश्व का द्वितीय विश्विद्यालय तथा वर्तमान भारत में प्रथम विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय है जिसे तक्षशिला विश्वविद्यालय की स्थापना के लगभग 1200 वर्ष बाद (470-450 ई.पू.) स्थापित किया गया। प्राचीन भारत की समृद्ध शिक्षा व्यवस्था का प्रतीक बिहार का नालंदा विश्वविद्यालय अपने काल में विश्व का प्रथम आवासीय विश्वविद्यालय था।

नालंदा संस्कृत शब्दं नालम्$दा से बना है। संस्कृित में ‘नालम्’ का अर्थ ‘कमल’ होता है, यहाँ कमल का अर्थ प्रकाश अथवा ज्ञान से हैं, बौद्ध महाविहार की स्थापना के बाद इसे नालंदा महाविहार के नाम से जाना गया। संस्कृत के शब्द “नालम् ददाति इति नालन्दा” का अर्थ कमल का फूल है। कमल के फूल के डंठल को ज्ञान  का प्रतीक माना जाता है। “दा” का अर्थ देना है। अतः जहाँ ज्ञान देने का अंत न हो उसे नालंदा कहा गया है। ऐसा भी कहा जाता है कि नालंदा संस्कृत के 3 शब्दों से मिल कर बना है - ना $ अलम $ दा । जिसका अर्थ होता है न रुकने वाला ज्ञान का प्रवाह। नालंदा विश्वविद्यालय भारत में प्राचीन साम्राज्य मगध (आधुनिक बिहार) में एक बड़ा बौद्ध मठ था। यह वर्तमान भारत के बिहार शरीफ शहर के पास पटना के लगभग 95 किलोमीटर दक्षिणपूर्व में स्थित है, बिहार राज्य की राजधानी पटना से लगभग 88 किमी तथा बिहार के प्रमुख तीर्थ स्थान राजगीर से लगभग 13 किमी की दूरी पर बड़ा गांव के पास प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहर स्थित है।

नालंदा विश्वविद्यालय के संस्थापक गुप्त साम्राज्य के महान सम्राट कुमारगुप्त प्रथम ने इसे पांचवीं सदी में स्थापित किया था। कुमारगुप्त प्रथम महान सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) के पुत्र थे। ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान बुद्ध के दो प्रमुख शिष्यों सरिपुत्र और मार्दगलापन का जन्म नालंदा में ही हुआ था। सरिपुत्र का देहांत नालंदा में उसी कमरे में हुआ था, जिसमें वह पैदा हुआ थे। उनकी मृत्यु का कमरा बहुत पवित्र माना जाने लगा और बौद्धों के लिए तीर्थ स्थान बन गया। सम्राट अशोक ने नालंदा में इस स्थान पर मंदिर बनवाया, इसलिए सम्राट अशोक को नालंदा विहार का संस्थापक माना जाता है। नालंदा की खुदाई में समुद्रगुप्त के समय का एक ताम्रपत्र और कुमारगुप्त का एक सिक्का मिला है। इसलिए नालंदा विहार कुमारगुप्त आदि गुप्त सम्राटों के बनवाये हुए माने जाते है। कन्नौज के राजा हर्षवर्धन (606-47) ने नालंदा विश्वविद्यालय को बहुत धन दिया था। उसने लगभग 100 गाँव की मालगुजारी इस विश्वविद्यालय के नाम छोड़ दी थी। उन गांवों से विश्वविद्यालय की आवश्यकता के अनुसार चावल, घी, और दूध आदि आने लगा। इसलिए विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों कहीं भिक्षा मांगने नही जाना पड़ता था। कुछ मतों के अनुसार सम्राट अशोक ने 1200 गांव नालंदा विश्वविद्यालय के लिए दे दिए थे। कि इनसे जो आमदनी हो उससे विश्वविद्यालय का खर्च चलाया जाए। विद्यालय में विद्यार्थियों से कोई फीस नहीं ली जाती थीं, और उनको खाना पीना भी मुफ्त दिया जाता था। चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार नालंदा के विद्यार्थियों को खाने पीने के लिए भीक्षा नहीं मांगनी पड़ती थी। ह्वेनसांग के बाद इतिसंघ 673 ईसवी में भारत पहुंचा था उसने भी कई वर्ष तक नालंदा में रहकर विद्या ग्रहण की थी। नवी शताब्दी के आरम्भ मे बंगाल के राजा देवपाल के समय में नालंदा उन्नति के उच्चतम शिखर पर पहुंच गया था। हिन्देशिया, जावा, सुमात्रा के सम्राटों ने राजदूतों द्वारा देवपाल के पास धन भेजा जिससे वहां विहार बनाए गए। गुप्त काल के बाद भी सभी शासकों ने इसके निर्माण व प्रबंधन में योगदान दिया। सातवीं सदी में नालंदा विश्वविद्यालय अपने चरमोत्कर्ष पर था तथा विश्व का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय  था । 

राजा कुमार गुप्त (415-455 ई. पू.) ने नालंदा में पहला मठ बनाया। यह बौद्ध भिक्षुओं को प्रशिक्षित करने के लिए एक छोटा विहार था। यह भिक्षुओं द्वारा बौद्ध अध्ययन की एवं खोज के लिए एक आदर्श केंद्र के रूप में चुना गया था। नालंदा विश्वविद्यालय इस बौद्ध विहार का और अधिक विस्तार करके बनाया था। 

 नालंदा में प्रवेश मौखिक परीक्षा द्वारा किया जाता था। यह प्रवेश हॉल में एक आचार्य द्वारा किया जाता था जिन्हें द्वारपंडित कहा जाता था। शिक्षा का माध्यम संस्कृत होने के कारण संस्कृत में दक्षता आवश्यक थी। चीनी यात्री ह्वेनसांग की रिपोर्ट है कि उस समय विदेशी छात्रों में से केवल 20ः ही कड़ी परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो पाए जबकि भारतीय छात्रों में से केवल 30ः ही उत्तीर्ण हुए और प्रवेश प्राप्त किया। जाति, पंथ और राष्ट्रीयता की कोई बाधा नहीं थी। बौद्धों के लिए महायान का अध्ययन अनिवार्य था किन्तु हीनयान स्वरूपों का अध्ययन भी किया जा सकता था। कोई भी विद्यार्थी 18 अन्य बौद्ध संप्रदायों के सिद्धांतों का भी अध्ययन कर सकता था। विश्वविद्यालय में थेरवाद, वाणिज्य, प्रशासन और खगोल विज्ञान, चिकित्सा, ज्योतिष, ललित-कला, साहित्य, विज्ञान आदि जैसे धर्मनिरपेक्ष विषयों के साथ-साथ वैदिक दर्शन की छह प्रणालियाँ भी सिखाई जाती थीं। 

सुनियोजित ढंग से और विस्तृत क्षेत्र में बना हुआ यह विश्वविद्यालय स्थापत्य कला का एक अद्भुत नमूना था। यह विश्वविद्यालय सात मील लंबी और तीन मील चौडी भूमि में फैला हुआ था। चौदह हेक्टेियर क्षेत्र में इस विश्व विद्यालय के अवशेष मिले हैं। खुदाई में मिली सभी इमारतों का निर्माण लाल पत्थसर से किया गया था। नालंदा में आठ अलग-अलग परिसर और 10 मंदिर थे, साथ ही कई अन्य मेडिटेशन हॉल और क्लासरूम थे। यहाँ एक पुस्तकालय 9 मंजिला इमारत में स्थित था। विश्वविद्यालय का पूरा परिसर एक विशाल दीवार से घिरा हुआ था जिसमें प्रवेश के लिए एक मुख्य द्वार था। उत्तर से दक्षिण की ओर मठों की कतार थी। केन्द्रीय विद्यालय में सात बड़े कक्ष थे, और इसके अलावा तीन सौ अन्य कमरे थे। इनमें व्याख्यान हुआ करते थे। मठ एक से अधिक मंजिल के होते थे प्रत्येक मठ के आँगन में एक कुआँ बना था। आठ विशाल भवन, दस मंदिर, अनेक प्रार्थना कक्ष तथा अध्ययन कक्ष के अलावा इस परिसर में सुंदर बगीचे तथा झीलें भी थी। इस विश्वविद्यालय में छात्रावास की सुविधा भी थी। 

ज्ञान का यह  केंद्र लगभग 800 सालों तक चरमोत्कर्ष पर रहा, लेकिन 12 वीं शताब्दी में अचानक ही यह इतिहास के अंधेरों में खो गया। बताया जाता है कि नालंदा पर सबसे पहला आक्रमण स्कन्दगुप्त के समय 455-467 ई. में मिहिरकुल के नेतृत्व में हूणों ने किया था। लेकिन स्कन्दगुप्त के वंशजों ने न सिर्फ नालंदा को दुबारा बनवाया बल्कि इसे पहले से भी बड़ा और मजबूत बनाया, दूसरा आक्रमण 7 वीं शताब्दी में बंगाल के गौदास राजवंश के द्वारा किया गया था। इस आक्रमण के बाद बौद्ध राजा हर्षवर्धन इसे दुबारा बनवा दिया।

इस्लाम धर्म का कट्टर समर्थक व प्रचारक तुर्की का शासक इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी जब दिल्ली का शासक बना तब उसने अपने आप को बढ़ाने तथा गैर मुस्लिम शिक्षा, संस्कृति को समाप्त करने के उद्देश्य से जब बिहार पर आक्रमण किया, उस समय नालंदा विश्वविद्यालय की सम्पूर्ण विश्व में तूती बोलती थी। नालंदा पर यह तीसरा अंतिम और दुर्दांत आक्रमण था, जिसमें बख्तियार खिलजी ने 1193 ई. नालंदा विश्विद्यालय को ध्वस्त कर दिया। नालंदा विश्वविद्यालय को जलाने की इस घटना के बारे मंे कहा जाता हैं, कि यहाँ किताबों का इतना भंडार था कि इस आगजनी के तीन माह बाद भी किताबें सुलग सुलग कर जलती रही, खिलजी यही नही रुका यहाँ अध्यापन करवाने वाले हजारों बौद्ध भिक्षुओं का भी नरसंहार उसने करवा दिया था।

1193 ई. से पहले नालंदा लगभग एक हजार साल तक फलता-फूलता रहा, दुनिया में यह पहला ज्ञान और विद्या का प्रकाश स्तंभ था । मगध के आक्रमणकारी बख़क्तियार खिलजी ने जब नालंदा में आग लगायी तब भिक्षु अपना भोजन करने वाले थे । यह उन पुरातत्व अवशेषों में सामने आया है जो भोजन को बहुत जल्दी में छोड़कर भागे। अन्न भंडार से चराचर चावल भी इस दुखद कथा को बताते हैं । प्राचीन नालंदा विश्वविद्यालय के अवशेष आज भी देखे जाते हैं। यहां इतनी किताबें रखी थीं कि जिन्हें गिन पाना आसान नहीं था। हर विषय की किताबें इस विश्वविद्यालय में मौजूद थीं। 

मिन्हाज उल सिराज ने अपनी पुस्तक ‘तबकाते नासिरी’ (खंड-2 ) के पृष्ठ 309 पर इस  आक्रमण के बारे में लिखा है कि, “सिर्फ दौ सौ घुड़सवारों के साथ बिहार दुर्ग (नालंदा विश्वविद्यालय) के द्वार तक गया और बेखबर शत्रुओं (यानि छात्र और शिक्षकगण) पर टूट पड़ा। उनमे दो बड़े बुद्धिमान भाई थे-एक का नाम निजामुद्दीन और दुसरे का शमसुद्दीन था। जब लड़ाई प्रारम्भ हो गयी तब इन दो भाईओं ने बहुत बहादुरी दिखाई। बख्तियार खिलजी को लूट का काफी माल हाथ लगा। महल के अधिकांश निवासी केश-मुंडित ब्राह्मण थे, उन सभी को खत्म कर दिया गया। वहां मुहम्मद ने पुस्तकों के ढेर को देखा तो उसके बारे में जानकारी के लिए आदमियों को ढूंढा, पर वहां सभी मारे जा चुके थे। इस विजय के बाद लूट के माल से लदा बख्तियार खिलजी कुतुबुद्दीन के पास आया जिसने उसका काफी मान और सम्मान किया।“

यह आक्रमण मात्र किसी एक ज्ञान के केंद्र अथवा एक विश्वविद्यालय पर ही नहीं बल्कि एक सभ्यता पर आक्रमण था। यह आक्रमण इतना गंभीर था कि इसके बाद नालंदा को एक बार फिर से वही रूप देने के लिए कुछ बचा ही नहीं था। कुछ बचा तो बस दीवारों के अवशेष। यह मात्र भारत ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की हानि थी।

(लेखक सरकार द्वारा ‘शिक्षक श्री’ विभूषित ख्याति प्राप्त शिक्षाविद, शैक्षिक प्रशासक, प्रोफ़ेसर एवं राष्ट्रवादी चिन्तक हैं)