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जलवायु परिवर्तन: मानव अस्तित्व पर गंभीर संकट

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जलवायु परिवर्तन: मानव अस्तित्व पर गंभीर संकट  

भारतीय दर्शन में ‘विश्वस्वम् मातरमोषधीनाम्’ यानि पृथ्वी को साक्षात् माता कहा गया है। अथर्ववेद के भूमि सूक्त में मनुष्य और प्रकृति के नैतिक साहचर्य का अत्यंत सुंदर तरीके से वर्णन किया गया है। 

‘सत्यं बृहदृतमुग्रं दीक्षा तपो ब्रह्म यक्षः 

पृथ्वी धारयन्ति।

सा नो भूतस्य भव्यस्य पत्नयुः 

लोकं पृथ्वी कृणोतु’।। 

कहने का आशय है कि यही समय है कि हम प्रकृति के प्रति भौतिकवादी और भोगवादी नजरिए को छोड़कर नैतिकवादी रवैये को अपनायें। प्रकृति के साथ हमारा सहोदर भाव, सहअस्तित्व और सौमनस्यता का रिश्ता कमजोर होना जलवायु परिवर्तन की मुख्य वजह माना जा रहा है। औद्योगिक विकास के गलाकाट आधुनिक युग में प्रकृति के बेरहम दोहन की प्रवृत्ति ने आज ऐसी परिस्थितियां कर दी हैं कि जल, जंगल, जमीन, वायु, अंतरिक्ष, आकाश, जन और जानवर के सामने अस्तित्व का गंभीर संकट पैदा हो गया है।

मौसम की बेरुखी, वायुमंडल में बढ़ता तापमान और मौसम के बदलते स्वभाव की वजह से कहीं अतिवृष्टि, तो कहीं अनावृष्टि, कहीं बाढ़, तो कहीं सूखा के रूप में हमारे सामने विकट परिस्थितियां पैदा हो गयी हैं। भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में जलवायु परिवर्तन का विषय चिंता और चिंतन का है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान में जलवायु परिवर्तन वैश्विक समाज के समक्ष मौजूद सबसे बड़ी चुनौती है। इस गंभीर समस्या से निपटना वर्तमान समय की सबसे बड़ी मांग है। आंकड़ों के अनुसार,19वीं सदी के अंत से अब तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान लगभग 1.62 डिग्री फॉरेनहाइट अर्थात् लगभग 0.9 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। इसके अलावा पिछले सौ वर्षों में समुद्र के जल स्तर में भी लगभग 8 इंच की बढ़ोतरी दर्ज की गई है।

भारत के संदर्भ में देखें, तो 1971 में सबसे ज्यादा तापमान 44.9 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया था, जो 2024 में बढ़कर 52 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो गया है। यानी 53 वर्षों में तापमान में आठ डिग्री सेल्सियस तापमान की वृद्धि हो चुकी है। बढ़ते तापमान से जलवायु परिवर्तन के कारण मौसमी घटनाओं में तो वृद्धि होती ही है, इससे जैव-विविधता को भी भारी नुकसान पहुंच रहा है। पर्यावरण का जो भी संकट आज दिख रहा है, उसके प्रति सबसे ज्यादा जवाबदेही विकास की उस अवधारणा की है, जिसके मुताबिक प्रकृति एक भोग्या सामग्री से ज्यादा कुछ नहीं है। मानव चाहता है कि उसे प्रकृति से सब कुछ मुफ्त में अनंत काल तक प्राप्त होता रहे और वह मनमाने तरीके से प्रकृति का शोषण-दोहन-दुरुपयोग करता रहे। लेकिन वह अपनी भावी पीढ़ियों के लिए भी प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की कोई जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता है।

मानव गतिविधियों के चलते हमारी धरती अनेक प्रकार की चुनौतियों का सामना कर रही है। असंतुलित विकास और प्रकृति के अंधाधुंध दोहन से पृथ्वी का संकट गहरा रहा है। यही कारण है कि आए दिन किसी न किसी हिस्से में प्राकृतिक तबाही होती रहती है। जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम वर्ष भर नये-नये रूप में प्रकट हो रहे हैं। महासागर हों या पहाड़, नदियां हों या खेती की जमीन सब जगह प्रकृति कराह रही है। अनेक देशों में पहाड़ी क्षेत्रों के जलाशय सूख रहे हैं और वन क्षेत्र सिकुड़ रहे हैं। इसी कारण आए दिन जब जंगली जानवर अपनी प्यास बुझाने बाहर आते हैं तो मानव के साथ उनका संघर्ष होता है। उत्तर प्रदेश के बहराइच में भेड़ियों के आदमखोर बनने का मामला इसका जीवंत उदाहरण है।

तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिए मजबूर कर दिया है। विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी की एक-चौथाई प्रजातियां वर्ष 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं। वर्ष 2008 में धु्रवीय भालू को उन जानवरों की सूची में जोड़ा गया था जो समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण विलुप्त हो सकते थे। जंगलों में घटती नमी और अत्यधिक तापमान के कारण जंगलों में आग लगने के मामले बढ़ रहे हैं। बरसाती नदियां सूख रही हैं तो बड़ी नदियों में पानी की मात्रा लगातार घट रही है। खेती वाली जमीन में कार्बन तत्व लगातार घट रहा है। इससे अन्न उत्पादन पर भी असर पड़ा है। इससे एक ही देश के अलग-अलग हिस्से सूखे और बाढ़ की चपेट में आ रहे हैं।

पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा और बारिश आदि की अनियमितता काफी बढ़ गई है। यह सभी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही हो रहा है। कुछ स्थानों पर बहुत अधिक वर्षा हो रही है, जबकि कुछ स्थानों पर पानी की कमी से सूखे की संभावना बन गई है। वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के चलते ग्लेशियर पिघल रहे हैं जिसके कारण समुद्र का जल स्तर ऊपर उठता है इससे समुद्र के आस-पास के द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है। मालदीव जैसे छोटे द्वीपीय देशों में रहने वाले लोग पहले से ही वैकल्पिक स्थलों की तलाश में हैं।

जानकारों ने अनुमान लगाया है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियां और अधिक बढ़ेंगी तथा इन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार, पिछले दशक से अब तक हीट वेव्स के कारण लगभग 150,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है। वातावरण में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम कर देना जलवायु परिवर्तन का स्थायी हल नहीं है, और न ही इसका स्थायी समाधान किसी सरकार व टेक्नोलॉजी के पास है। इसका स्थायी समाधान सिर्फ किसानों के पास है, क्योंकि किसान ही हैं, जिनका सीधा संबंध मिट्टी से होने के कारण, जैव-विविधता, जल, पशु-पक्षी आदि से भी सम्बंध होता है।

इस ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए दुनिया भर के नीति निर्माताओं को ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी पर भी विशेष ध्यान देना होगा। इसके लिए जरूरी है कि कॉप-28 में जो निर्णय लिए गए, उनका बेहतर ढंग से पालन किया जाए। हमें प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन पर रोक लगानी होगी। इसके अलावा, ‘सह-अस्तित्व’ के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए पूरे विश्व में पर्यावरणीय नियम-कानून लागू किए जाने चाहिए।