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भक्ति मानव को समष्टि से जोड़ने वाला आध्यात्मिक सत्य है – डॉ. मोहन भागवत जी

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ज्ञान और कर्म भक्ति आधारित होना चाहिए – सरसंघचालक जी

संत ज्ञानेश्वर द्वारा रचित श्री ज्ञानेश्वरी के अंग्रेजी संस्करण का विमोचन

नागपुर, 30 नवम्बर। लक्ष्मीनगर स्थित साइंटिफिक सभागृह में आयोजित संत ज्ञानेश्वर रचित श्री ज्ञानेश्वरी के अंग्रेजी संस्करण के विमोचन समारोह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि भक्ति मानव को समष्टि के साथ जोड़ने वाला आध्यात्मिक सत्य है। भक्ति के बिना ज्ञान और कर्म श्रेष्ठ नहीं हो सकता। भक्ति विहीन कर्म एक विक्षिप्त कार्य है। इसलिए ज्ञान और कर्म भक्ति आधारित होना चाहिए। भक्ति यदि पक्षी है तो उसका एक पंख (पर) ज्ञान है और दूसरा पंख कर्म है। भक्ति, ज्ञान और कर्म के संयोग से ही परम पद प्राप्त होता है।

इस दौरान व्यासपीठ पर श्री ज्ञानेश्वरी के अंग्रेजी ग्रंथ के सम्पादक गण डॉ. सुरेन्द्र दि. सूर्यवंशी,  ह.भ.प. डॉ. तुकाराम बा. गरुड़, डॉ. (श्रीमती) मीरा तु. गरुड़ (सूर्यवंशी) उपस्थित थे। उन्होंने कहा कि मूल मराठी में लिखी गई श्री ज्ञानेश्वरी के अंग्रेजी अनुवाद से आधुनिक समाज अवश्य लाभान्वित होगा।

सरसंघचालक डॉ. मोहन जी भागवत ने कहा कि भारत में विविधता में एकता है, ऐसा कहा जाता है। किन्तु अपने यहाँ एक से ही अनेक की सृष्टि हुई है। एक की अभिव्यक्ति विविध के रूपों में हुई है। इसलिए कहा जाना चाहिए कि यह ‘एकता की विविधता’ है। एक पेड़ के सभी पत्ते समान आकार और रंग के नहीं होते, फिर भी हम पत्ते को देखकर यह जान लेते हैं कि यह किस वृक्ष का पत्ता है। यह एकत्व की अनुभूति है।

उन्होंने कहा कि भारत में ही सत्य की खोज हुई। भारत के ऋषि-मुनियों और संतों ने पीढ़ी-दर-पीढ़ी समाज के अन्तिम व्यक्ति तक यह सन्देश पहुँचाया कि सम्पूर्ण सृष्टि ही भगवान का स्वरूप है, अर्थात सब कुछ ईश्वर ही है। ईश्वरत्व का प्रगटीकरण विविध रूपों में हुआ है। जड़, चेतन, चराचर आदि सभी परस्पर सम्बन्धित और परस्पर पूरक हैं। ईश्वर एक है या अनेक, इस पर हम चर्चा नहीं करते, वरन सब कुछ ईश्वर है, इस पर हमें विश्वास है। इसलिए हम देखते हैं कि माताएं अपने बच्चों से कहती हैं कि रात में पेड़ को मत छुओ, पेड़ सो रहे हैं। पेड़ में भी ईश्वरत्व को देखना हमारी संस्कृति ने मनुष्य को सिखाया है। उन्होंने कहा कि भाव के बिना भगवान नहीं मिलते। इसलिए आत्मीयता का व्यवहार हो। मनुष्य, समाज, सृष्टि, परमात्मा से हम एकाकार हों। सभी अपने हैं। सबको अपने साथ लेकर चलना है, इस भाव को जीना है।

मोहन भागवत जी ने कहा कि अपने यहाँ अनुभूतिजन्य विचार हैं। सृष्टि के आरम्भ से प्रलय तक होने वाले विचार यानी भूत, वर्तमान और भविष्य का ज्ञान श्रीमद्भगवद्गीता में समाहित है। सकल उपनिषद् का ज्ञान गीता है। हमारे यहाँ के भक्त, ज्ञानी और कर्मशील थे, इसलिए समाज में उत्तम व्यवस्था थी। आज इसी आदर्श को जीने की आवश्यकता है। हमें अपना आचरण अपनी उन्नति करने वाला, अपने परिवार और अपनी पीढ़ी को समुन्नत करने वाला तथा सृष्टि के हित में हो।

चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि आज घरों में मातृभाषा और संस्कृत का प्रयोग कम हो रहा है। ऐसा कभी न हो कि विदेश से लोग हमें संस्कृत पढ़ाने आएं। उन्होंने उल्लेख किया कि मूल भारतीय भाषा का अंग्रेजी अनुवाद में मूल भाव का आना अत्यन्त कठिन है। उन्होंने उदाहरण दिया कि ‘पसायदान’ का एक पद ‘चला कल्पतरूंचे आरव, चेतनाचिंतामणींचे गाव’ का अंग्रेजी अनुवाद क्या होगा। ‘कल्पतरु’ और ‘चेतनाचिंतामणीं’ के लिए अंग्रेजी में शब्द ही नहीं है। इसी तरह धर्म और राष्ट्र के लिए भी अंग्रेजी में शब्द नहीं है। ऐसे में एक मूल शब्द के लिए सुसंगत और समतुल्य शब्दों को परखा जाता है। इसलिए मूल को पढ़ना आवश्यक है। तभी उसके मूल भाव को समझा जा सकेगा।


इससे पूर्व कार्यक्रम की प्रस्तावना डॉ. सुरेन्द्र दि. सूर्यवंशी ने रखी और ह.भ.प. डॉ. तुकाराम बा. गरुड़ ने श्री ज्ञानेश्वरी और वारकरी सम्प्रदाय के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा कि इसमें विश्व कल्याण और सम्पूर्ण मानवता का विचार निहित है। कार्यक्रम का संचालन शुभांगी चिंचाळकर ने किया।