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विश्व की धरती को कुटुम्भ बनाता भारतीय योग

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विश्व की धरती को कुटुम्भ बनाता भारतीय योग 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा 2015 में शुरु किये गये 21 जून के योग दिवस को संपूर्ण विश्व इसे दसवे बड़े उत्सव के रुप में मना रहा है। इस बार इसका थीम वन अर्थ वन हैल्थ यानि एक धरती और एक स्वास्थय रखा गया है। पूरी दुनिया  इस दिवस को जाति,रंग, धर्म,वर्ग व सम्प्रदाय का भेद किये बिना पूरी जीवंतता,सक्रियता और समर्पण के साथ अपनी सहभागिता प्रगट करने को आतुर है। भारत में भी यह दिवस सियाचिन से समुद्र तक तथा कश्मीर से कन्याकुमारी तक बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि 21 जून को अतंरराष्ट्रीय योग दिवस की वैश्विक अभिव्यक्ति अनायास ही नहीं है। दरअसल यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पहल पर संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 177 देशों की स्वीकृति के बाद ही इसे अतंरराष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया था। निश्चित तौर पर हमारे लिए यह आत्म गौरव और सम्मान का विषय है कि आज हमारे पूर्वजों के योग दर्शन और इसकी चितंन परम्परा को पूरी दुनिया स्वीकार कर रही है। इस अवसर पर हमारा भी यह पावन कर्तव्य बनता है कि हम भी अपनी बसुधैब कुटुंबकम् की अवधारणा को पुनः जीवंत करते हुए तथा इस योग दिवस पर प्रचारित होने वाले सूक्ति वाक्य ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः,सर्वे सन्तु निरामया’ के प्रकाश पुंज को लेकर  स्वंय के साथ देश और विश्व को भी आलोकित करें।

गौरतलब है कि साधारण अर्थो में योग का अर्थ जुड़ने और जोड़ने से लिया जाता है। दरअसल यह वह क्रिया है जो स्वंय के क्रिया करने से स्वंय को ही परिणाम भी देती हैे। कहना न होगा कि योगाभ्यास दरअसल वह क्रिया है जो शरीर को गति व शक्ति प्रदान करती हेै। यौगिक क्रियाओं से हमें खुद को लयात्मक बनाने और स्वंय से आत्म साक्षात्कार करने का अवसर मिलता है। इसके साथ ही इसके माध्यम से हम अपनी चेतना का विस्तार करते हुए अपनी सॉसों से अपने खुद के प्राणों को आयाम प्रदान करते हैं। सच यह है कि दुनिया की इस भीड़ और खासतौर पर कोरोना के कालखण्ड़ ने हम सभी को  बहुत अकेला कर दिया था। आज देखने में आ रहा है कि जीवन का यह अकेलापन हमें हमसे ही बहुत दूर ले जा रहा है। यही बजह है कि हम बाहरी लौकिक दुनिया के साथ हम अपने आप से भी कटे-कटे से रहने लगे हैं। शायद इन्हीं बजहों से हम लगातार रक्तचाप, निराशा, चिन्ता, अवसाद, मोटापा और मधुमेह जैसे रोगों से घिरते जा रहे हैं। निश्चित ही योग हमें अपने होने के अहसास और खुद से साक्षात्कार करने के लिए एक स्पेस प्रदान करता है। आज का सच यह है कि  भारत की श्वांस पद्धति और शारीरिक व्यायाम तकनीक की उपयोगिता दुनियाभर में स्वीकार की जा रही है। यहॉ तक कि संयुक्त राष्ट्र के साथ ही साथ पूरी दुनिया इस समय भारतीय योग की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रही है। 

हम सभी इस सच से अच्छी तरह परिचित हैं कि भारत का योग दर्शन तकरीबन ढ़ाई हजार साल पुराना है। योग का इतिहास बताता है कि इसकी उत्पत्ति सांख्य परम्परा से हुई तथा ऋषि पतंजलि ने इसे सूत्रबद्ध किया। तत्पश्चात यह अनेक आस्तिक,नास्तिक व तांत्रिक परम्पराओं का हिस्सा बना रहा।अद्वैत दर्शन ने तो इसे आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग के रुप में इसका अनुकरण किया। आज सामान्यजन जिसे योग कहते हैं वह योग दर्शन के आठ पायदानों (यम, नियम, आसन, प्राणयाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारण व समाधि) में एक योगासन है। यहां योग दर्शन साफ करता है कि चित्त पर अधिकार पाने के लिए तथा शरीर और उसको संचालित करने वाली इंद्रियों को वश में करने का जो प्रयत्न है वही आसन और प्राणायाम है। पतंजलि ने आसन को ‘स्थिर सुमासनम’ की संज्ञा दी है। उनका कहना है कि जिस मुद्रा में बिना कष्ट के देर तक बैठा जा सके वही आसन श्रेष्ठ है। पतंजलि ने अपने अष्टांग योग की व्याख्या को दो रुपों में बॉटा है। पहला व्यक्ति के स्तर पर और दूसरा राष्ट्र के स्तर पर। उनका साफ कहना है कि आसन व प्राणयाम व्यक्ति के शरीर व मन को स्वस्थ बनाते हैं। दूसरी ओर यम व नियम नैतिक चरित्र को ऊॅचा उठाते हैं। पतंजलि योग सूत्र में यम के जिन पॉच नैतिक आदर्शों को स्वीकारोक्ति मिली है वे अहिंसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं। यहां आपको यह याद दिलाना भी जरुरी है कि महात्मा गांधी ने योगदर्शन के इन्हीं पांच आदर्शों का अनुकरण करते हुए स्वतत्रंता की लड़ाई लड़ीं। साथ ही उन्होंने योग दर्शन के इसी मॉडल को फिरंगियों के सामने रखकर उसकी प्रासंगिकता भी सिद्ध की। अगर इतिहास में झॉककर देखें तो हमें महात्मा बुद्ध और भगवान महावीर के समाज दर्शन में भी योग के इन्हीं नैेतिक आदर्शों का सार आसानी से मिल जायेगा। 

देखने में आया है कि अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस की घोषणा के बाद हिन्दू अनुयायियों के साथ में दूसरे समुदायों की भी योग चिन्तन के प्रति उत्सुकता व जिज्ञासा बढ़ी है। बीच में सूर्य नमस्कार व कुछ योगासनों को लेकर थोड़ा धार्मिक विरोध भी सामने आया था। सोसल मीड़िया में भी यह चर्चा उठी थी कि योग दिवस के अवसर पर जो योगाभ्याास कराया जा रहा है उनका पातंजल योग से कुछ लेना-देना नहीं हैं। परन्तु अवलोकन बताते हैं कि इस योग दिवस के आते-आते खासतौर पर कोरोना के  संक्रमण काल में योग, योगाभ्यास, सूर्य नमस्कार व अन्य योग क्रियाओं को लेकर विरोध कम हुआ  और इसकी देश व विदेश के तमाम हिस्सों में स्वीकाराक्ति बढ़ी। विभिन्न धार्मिक संगठनों ने इस योग दिवस से जुड़ी योगिक क्रियाओं को अपने-अपने धार्मिक सांचे में ढ़ालकर इसे शरीर, मन, आत्मा और खुद के लिए जरुरी मानकर इस पर काम करना शुरु कर दिया है। यहां तक कि पाकिस्तान समेत अनेक इस्लामी देश ओैर वहां के लोग भी अच्छे स्वास्थय के लिए योग को जरुरी मान रहे हैं। यही बजह है कि आज का यह दिन भारत के योग दर्शन को जीवंत बनाने में कामयाबी के दिन के रुप में याद किया जा रहा है।

अब प्रश्न उठता है कि क्या हमें वर्ष में एक बार योग दिवस के मौके पर ही योग क्रियाओं का अतिरेकी प्रदर्शन कर बाकी दिवसों में सुसुप्त हो जाना चाहिए। पतंजलि ने योग को मन की अनचाही व अनजानी गति पर लगाम लगाने और उसे सही दिशा देना माना है। आज का सच यह है कि चित्त व मन की गति इस भौतिक दुनिया के साथ मिलकर बेलगाम हो जाती है। इस चंचल मन का मनोविज्ञान और समाजशास्त्र बताता है कि हर आदमी का मन इस भौतिक दुनिया के सुख का अनुभव करना चाहता है। मन के असीम सुख की चाह में आदमी का विवेक मर जाता है और सामाजिक चेतना शून्यता की ओर चली जाती है। मन का यही वह केन्द्र बिन्दु है जहां वह सुखवादी उद्देश्यों के सामने होने वाले कार्यों के दुष्परिणामों की ओर से बिल्कुल अनजान बन जाता है। आज हम चारों ओर जिस हिंसा, हत्या, घूसखोरी व जघन्य अपराधों में बढ़ोत्तरी देख रहे हैं वह सभी कुछ मन की इसी विवकेशून्यता के चलते केवल वर्तमान में जीने की लालसा के तहत ही दिखाई दे रहा है। आज आपसी संबंधों में शीतपन, विवाह और परिवार जैसी पवित्र संस्थाओं के साथ में रक्त संबंधों तक में स्वार्थो का विस्तार व कडुबाहट, धार्मिक असहिष्णुता, वैचारिक मतभेद व साम्प्रदायिक विभेद इत्याादि को केवल सरकार की नीतियों अथवा समाज की बिषमताओं के आधार पर ही नहीं समझा जा सकता। यह सभी कुछ मन व शरीर में उत्पन्न विकारों के चलते ही अधिक है।

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दरअसल योग तो एक ऐसी क्रिया है जो लोगों के सुख के बाहरी संसार को यहीं छोड़कर आंतरिक मन के सुख की यात्रा को सुख व मंगलमय बनाती है। शायद इसी बजह से पतंजलि द्वारा प्रवाहित की गई आरोग्य की इस धारा को आज वैश्विक स्वीकृति मिली है। अतं में कहना न होगा कि आसन व प्राणायाम लोगों के बाहरी आचरण को परिष्कृत करते हैं। वहीं दूसरी ओर यम व नियम हमारे निजी और सामाजिक जीवन में संतुलन व सामंजस्य बनाते हैं। इनके अनुकरण से हम सामाजिक परिवेश और प्रकृति के स्नेहपूर्ण रिश्तों को मजबूती देते हैं। इसलिए इस सच को यहां कहने में कोई गुरेज नहीं कि एक ओर जहां इससे लोगों के आन्तरिक जीवन को सजाने और संवारने से जीवन सुखमय बनेगा। वहीं दूसरी ओर समाज व देश में फैली सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक व आध्यात्मिक जटिलताओं के सुलझाने और विकारों के संकुल से बाहर आने में भी यह योग दर्शन अपना महत्वपूर्ण योगदान देगा। आइये हम सभी इस योग के दसवें वार्षिक दिवस को एक बार फिर से अपने जीवन और प्रकृति के साथ साथ विश्व की धरती के कल्याण के लिए इस दिवस को और अधिक विस्तार देकर इसे अपने स्वभाव व जीवनशैली का अंग बनायें।