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संघ दर्शन

भारत की पहचान: एकात्म मानव दर्शन

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·         अपने आपको पहचान लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है- दीन दयाल उपाध्याय

·         उपाध्याय जी के दो नारे अन्त्योदय और एकात्म मानवदर्शन

·         समन्वय से बढ़ती है समरसता

·         एकात्म मानव दर्शन दर्शन पूर्ण से है भारतीय संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विवेचन

 

संसार में दो पक्ष सदा से रहे हैं। सृष्टि ने इनमें से किसी एक को मिटाना कभी उचित नहीं समझा होगा। तभी दोनों का अस्तित्व हर कालावधि में मिलता रहा है। एक पक्ष में क्रोध, घृणा और स्वार्थ का आधिपत्य है। दूसरे पक्ष में प्रेम, परमार्थ और त्याग के भावों का प्राबल्य है। सृष्टि के विकास के संग इन दोनों पक्षों में सन्तुलन की बात उठी होगी। तभी धर्म शब्द की व्युत्पत्ति हुई। धर्म को नानाविधि शब्दावलियों में बांधने के यत्न हुए। जिससे उसे भाषित किया जा सके। सबसे सरल परिभाषा यह कि धर्म वह जो प्रेम, परमार्थ और त्याग की ओर प्रवृत्त कर सके। क्रोधघृणा और स्वार्थ के दलदल से बचा सके। भारत  के एक महान चिन्तक, विचारक और उन्नायक का नाम स्मृतियों को चमत्कृत करता है, यह नाम है दीन दयाल उपाध्याय का। उपाध्याय जी का जीवन काल मात्र 52 वर्ष का रह सका। उनकी हत्या राजनीतिक षड्यन्त्रकारियों ने करा दी थी। वह 1916 में जन्मे और 1968 में कालकल्वित हो गये। दीन दयालजी का किसी से बैर भाव नहीं था। वह भारत के लोगों को यह बता रहे थे कि अपने आपको पहचान लेना ही सबसे बड़ा ज्ञान है। लोग जान सकें कि वह किस  पक्ष में खड़े हैं। कहीं क्रोध, लोभ और घृणा से गर्त में तो नहीं धंसते जा रहे हैं। वह कहते थे कि धर्म का एक मात्र उपयोग यह है कि उसके सिद्धान्तों के अनुरूप अपने जीवन का संयोजन किया जाय। विचित्रता यह है कि बहुत बड़ा वर्ग यह हठ ठाने बैठा है कि धर्म के नियमों को वह अपने अनुरूप गढ़ेगा।

दीनदयाल जी ने भारत के राजनीतिक विचारकों को एक कसौटी सौंपी थी। दो नारे दिये थे। पहला नारा था अन्त्योदय और दूसरा एकात्म मानवदर्शन। दोनों नारे भारतीय सनातन संस्कृति की मौलिकता से उपजे हैं। यह सच है कि उस मौलिकता को उपाध्याय जी ने नवीन और अत्याधुनिक चिन्तन धारा का स्वरूप प्रदान कर दिया था। सृष्टि की विविधता को विसंगति नहीं कह सकते। विविधता में एकात्मता सृष्टि का सुघड़ सिद्धान्त है। इसी बात को विस्तार देते हुए दीन दयाल जी ने कहा कि समन्वय से समरसता बढ़ेगी। तब विसंगतियां निर्मूल होंगी। अन्त्योदय का चिन्तन उनका मौलिक विचार था। इसका भाव यह था कि समाज की सबसे अन्तिम  सीढ़ी पर निराश खड़े  लोगों पर ध्यान दो। उनके विकास की प्राथमिकता को महत्व दो। इसे विकास का मापदण्ड मानकर योजनाओं का सृजन किया जाय। उन योजनाओं को परिणिति तक पहुँचाया जाय। यही है महात्मा गाँधी के रामराज्य की परिकल्पना को साकार करने का सीधा राजमार्ग। अन्त्योदय के नारे को अलग अलग शब्दावलियां देकर भारत के राजनीतिक दलों ने अपनी विचारधाराओं को धार देने का प्रयत्न तो किया तथापि उनकी परिणिति पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया। महात्मा गाँधी, डॉक्टर राम मनोहर लोहिया, डॉक्टर भीम राव बाबा अम्बेडकर ऐसे महान राजनेता थे जिन्होंने दीन दयाल उपाध्याय के अन्त्योदय के सिद्धान्त के समानार्थी चिन्तन को अपने उद्बोधनों में पिरोया । गाँधी का रामराज्य तो निर्धन और हरिजन की झोपड़ियों की पीड़ा देखकर ही प्रस्फुटित हुआ था। डॉक्टर लोहिया ने अनेक बार कहा था कि विकास की गाड़ी तब तक गतिमान नहीं होगी जब तक 95 प्रतिशत निर्बल वर्ग पर ध्यान नहीं दिया जाता। बाबा साहब ने वंचितों के लिए विकास के विचार का निरूपण किया तो साथ ही उपेक्षा, घृणा और असमानता की वैमनस्य फैलाने वाली सोच को भी तिलांजलि देने के ऐसे सूत्र बताये जो युगान्तर परिवर्तनों को भारत की धरा पर उतारने की राह बन गये । दीन दयाल जी 1916 में जन्मे, गाँधी बाबा 1869 में, डॉक्टर लोहिया 1910 में और बाबा भीमराव अम्बेडकर का जन्म 1891 में हुआ। दीन दयाल जी असमय  मार न डाले गये होते तो अन्त्योदय के विकास रथ  को इन महान नायकों की सम्मति से आगे बढ़ते पिछली पीढियां देख चुकी होतीं। दीनदयाल जी पर स्वामी विवेकानन्द के चिन्तन के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार, गुरुजी गोलवरकर की गहरी छाप रही। गुरुजी के संग उन्होंने संघ के प्रचारक का त्यागमय जीवन जिया। गुरुजी ने ही उन्हें भारत के राजनीतिक समरांगण में प्रवेश करने की प्रेरणा दी थी। स्वामी विवेकानन्द जी का जीवन दीन दयाल जी के जन्म से 14 वर्ष पहले 1902 में पूर्ण हो गया था। परन्तु संघ ने ऐसी परिपाटी डाली कि भारत की नयी पीढियां प्रेम, समरसता, परमार्थ और  त्याग की सनातन संस्कृति को जानने लगीं। भारतीय लोकतन्त्र के संख्याबल के सिद्धान्त का विकृत रूपान्तरण का कालखंड आया तो प्रेम, त्याग, परमार्थ और समरसता की बातों का लोप सा हो गया। घृणा, स्वार्थ और क्रोध की अग्नि में पवित्र सिद्धान्तों की पोटलियां भस्म की जाती रहीं। निर्धन, निर्बल और वंचितों की बातें तो बहुत हुईं परन्तु एक ओर  खोखले शब्दों की वर्षा  दूसरी ओर स्वार्थ की आँधियों ने भ्रष्टाचरण को लोकाचरण बना दिया।

भारत का लोकतन्त्र अपनी विशिष्टताओं को पुनः जगा रहा है।  इसी का परिणाम है कि सूर्योदय की भाँति मौलिक सूत्रों की धूल झाड़ी जा रही है । भारतीय संस्कृति की नाविन्यता का प्रमाण भी यही है कि जब कहीं विचलन दिखा तो नया मार्ग भी प्रसूत होता रहा। उदभट चिन्तक दीन दयाल जी का दूसरा सर्वकाल सिद्ध सिद्धान्त एकात्म मानव दर्शन का है। यह दर्शन पूर्ण रूपेण भारतीय संस्कृति के आधारभूत सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विवेचन है।

दीन दयाल जी ने बहुत सरल रीति से इसको 1965 के एक अधिवेशन में निरूपित किया था। यह अधिवेशन भारतीय जनसंघ का  था।  जिसके वह अध्यक्ष बने थे। उन्होंने बताया कि विकास का मौलिक भारतीय चिन्तन एकात्म मानव दर्शन पर टिका है। उन्होंने बताया कि केन्द्र स्थान पर मानव को रख कर देखें। उसके सबसे निकट एक घेरा है जो परिवार का है। परिवार के घेरे के बाद जाति का घेरा है। इसके उपरान्त गांव या बस्ती का सामाजिक घेरा है। इसके बाद का घेरा देश का , फिर संसार का और अन्ततः सृष्टि अर्थात ब्रह्माण्ड का घेरा  है। ये सब घेरे परस्पर विलग नहीं अपितु सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती। मण्डला कृति के इन घेरों की सम्बद्धता को दीन दयाल जी ने भारतीय संस्कृति के मौलिक चिन्तन से आबद्ध करके संसार को समझाया। यह उस कालखण्ड की  बात है जब भारत में साम्यवाद, समाजवाद, पूँजीवाद जैसे वादों पर चर्चा छिड़ी हुई थी। उपाध्याय जी ने यद्यपि मौलिक दर्शन की व्याख्या की थी तद्यपि वादों की चर्चा में उलझे लोगों ने इस दर्शन को भी एक वाद बता डाला। सच पूछो तो एकात्म मानव दर्शन को वाद की संज्ञा ही अनुचित है। दीन दयाल उपाध्याय जैसे मनीषी को राजनीति के एक दल का नायक भर मान लेना भी अनुचित है। उनके चिन्तन की व्याख्या जागृत पीढ़ियाँ करती रहेंगी। इसमें तनिक भी सन्देह अथवा विवाद नहीं है कि वह आधुनिक समर्थ भारत, सर्वश्रेष्ठ भारत की कल्पना को साकार करने की आधारशिलाएं नये भारत के कर्णधारों के हाथों में थमा गये हैं। दीन दयाल जी का आग्रह सदा इस बात पर रहता था कि भारत का विकास मॉडल भारत के लोगों की मौलिक चिन्तन धाराओं के मेल से खोजा जाना चाहिए। दूसरे देशों से आयातित विचार और वाद हमारे काम के नहीं हैं। हमें अपनी आवश्यकताओं और परिस्थितियों को परख कर  अपनी मौलिकता को बिगाड़े बिना आगे बढ़ना चाहिए। संसार जब भोगवाद पर केन्द्रित होकर चिन्तन कर रहा था तब दीनदयाल जी ने त्याग, परमार्थ और प्रेम की आधारशिला का महात्म्य समझाया। यह बड़ी बिडम्बना है कि आज संसार के अनेक वाद भोगवादी सोच के कारण ज्वलन्त प्रश्नों पर निरुत्तर खड़े हैं। विनाश की घण्टियाँ जब जब बजने लगती हैं संसार के अनेक वाद असहाय्य मुद्रा बनाकर खड़े हो जाते हैं। तब लगता है कि दीनदयाल जी के एकात्म मानव दर्शन की ओट ली होती तो आज इस दशा तक नहीं पहुँचते।  नैराश्य के इन पलों से संसार को भारत की चिन्तन धारा ही बाहर निकाल सकती है। जब जब  दीनदयाल जी की पुस्तकों के पन्ने संसार के लोग पलटेंगे उन्हें यह महा मानव सही राह पर चलना सिखाता रहेगा। ऐसी राह जिसमें सृष्टि के प्रत्येक अवयव के कल्याण और सबकी आवश्यकताओं की सम्पूर्ति का मूल भाव समाहित होगा।  श्रीराम चरित मानस में गोस्वामी तुलसी दास जी ने रामराज्य की परिकल्पना बड़े सुन्दर ढंग से बतायी है।

अल्प मृत्यु नहिं कवनिउ पीरा ।

सब सुन्दर सब विरुज शरीरा ।।

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना।

नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना ।।


(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)