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धरोहर

प्राचीन भारतीय चिकित्सा विधाओं के अभ्युदय से भारत उदय’

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·         ईस्ट इंडिया कम्पनी के चिकित्सकों ने भी भारतीयों से सीखी शल्य चिकित्सा

·         भारतीय भोजन हैं वैज्ञानिक रूप से संतुलित

·         मानसिक समस्याओं में योग और प्राणायाम से सकारात्मकता का संचार

 

आयुर्वेद, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा विश्व की प्राचीनतम चिकित्सा विधाएं हैं जो विशुद्ध रूप से भारतीय ऋषि मुनियों की देन हैं। जिसने विश्व को, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत कुछ दिया है जो अतुलनीय और अविस्मरणीय है और अभी भी मानव जीवन के लिए उतनी ही उपयोगी और कारगर है जितनी उस समय थी। योग, आयुर्वेद एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति, प्रकृति के अनुरूप जीवन जीने वाले व्यक्ति के शरीर की समस्त कोशिकाओं व शारीरिक तंत्र को न केवल पूरी तरह नियंत्रित और संतुलित रखती हैं बल्कि स्वस्थ रखते हुए शतायु प्रदान करती है। आयुर्वेद जहां प्राकृतिक जड़ी बूटियों से रोगों का उपचार करता है वहीं योग, श्वसन सम्बन्धी विभिन्न क्रियाओं के द्वारा मनुष्य को स्वस्थ रहने के तरीके सिखाता है जबकि प्राकृतिक चिकित्सा, बिना दवाओं के अर्थात प्राकृतिक रूप से काया को निरोगी रखना सिखाती है।

प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य

स्वास्थ्य रक्षणमातुरस्य विकारप्रशमनं च।     (च.सू- 30.26)

अर्थात आयुर्वेद का पहला प्रयोजन ही व्यक्ति को रोगों से बचाकर उसे स्वस्थ रखना है।

चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति ईसा पूर्व प्रथम सदी में हुई जबकि चरक व सुश्रुत जैसे सुप्रसिद्ध आचार्यों ने आयुर्वेद विषयक अपने ज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को आलोकित किया। चरक की ‘कृति चरक संहिता’ कार्य चिकित्सा का प्राचीनतम प्रामाणिक ग्रन्थ है जो महर्षि आत्रेय के उपदेशों पर आधारित है। चरक संहिता का न केवल भारतीय अपितु सम्पूर्ण विश्व के चिकित्सा जगत के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है तथा इसका विभिन्न विदेशी भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है। भारतीय चिकित्सा शास्त्र का तो यह एक तरह से विश्वकोश ही है। चरक के कुछ समय पश्चात सुश्रुत का आविर्भाव हुआ। चरक कार्य चिकित्सा के प्रणेता थे तो सुश्रुत शल्य चिकित्सा थे। आयुर्वेद की आठ शाखाओं में से शल्य तंत्र अत्यंत महत्वपूर्ण विधा रही है। आचार्य सुश्रुत (500 ई.पू) ने सुश्रुत संहिता की रचना की जो शल्य चिकित्सा के मूल सिद्धांतों की उपयुक्त जानकारी देती है। इस दृष्टि से भारतीय शल्य विज्ञान, यूरोपीय शल्य विज्ञान से अठारहवीं सदी तक आगे रहा कहा तो यहां तक जाता है कि ईस्ट इंडिया कम्पनी के चिकित्सकों ने भी भारतीयों से इस विधा को सीखने में गर्व का अनुभव किया था।

 हिन्दू धर्म के चार वेदों ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद में आयुर्वेद का वर्णन है, ऐसा आयुर्वेद का इतिहास गवाही देता है। बीमारी, चोट, असुरक्षा, पवित्रता व स्वस्थ रहने के तरीकों के अतिरिक्त त्रिदोष-वात, कफ, पित्त पर चर्चा व इनसे होने वाले विभिन्न रोगों के उपचार में प्रयुक्त होने वाली जड़ी बूटियों आदि की जानकारी भी ऋग्वेद में मिलती है। आयुर्वेद में रोगों की पहचान विभिन्न प्रश्नों और आठ परीक्षणों जैसे नाड़ी, मल, मूत्र, जिह्वा, स्पर्श, नेत्र, आकृति व शब्द द्वारा की जाती है। यह पद्धति केवल शरीर के उपचार तक ही सीमित नहीं है बल्कि व्यक्ति के मन, आत्मा व परिवेश पर भी पूर्ण दृष्टि रखती है तथा उपचार पद्धति में विभिन्न औषधीय गुण रखने वाली वनस्पतियों व जड़ी बूटियों का इस्तेमाल किया जाता है। ऋषि चरक व सुश्रुत ने अपने ग्रंथों में औषधीय वनस्पतियों व जड़ी बूटियों का उल्लेख किया है। आयुर्वेद का मानना है कि मानव शरीर में वात, कफ व पित्त आवश्यक रूप से पाए जाते हैं जिनसे समस्त शारीरिक क्रियाएं नियंत्रित होती हैं परंतु इन तीनों का असंतुलन ही शरीर में प्रत्येक बीमारी का मूल कारण है। आयुर्वेद के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को छह रसों खट्टा, मीठा, खारा, कड़वा, तीखा, कसैला युक्त आहार ग्रहण करना चाहिए परन्तु किसी एक रस का कम या अधिक सेवन शरीर के लिए हानिकारक बन जाता है। अतः भोजन में ऐसे फल, सब्जी, अनाज, मसालों को सम्मिलित करना चाहिए जिससे शरीर में इन रसों का संतुलन बना रहे।

विभिन्न वनस्पतियों एवं जड़ी बूटियों से तैयार आयुर्वेदिक दवाएं न् केवल रोग को जड़ से समाप्त करती हैं बल्कि शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में भी वृद्धि करती हैं जिसका जीता जागता उदाहरण हमें गतवर्ष कोरोना महामारी के समय देखने को मिला। जब आयुर्वेद के बल पर भारत जैसे अत्यधिक जनसंख्या वाले देश में, अन्य देशों की अपेक्षा सबसे कम मृत्यु दर देखी गई। इसका सबसे बड़ा कारण यहां के लोगों का खानपान, रहन-सहन व प्राचीन चिकित्सा पद्धति पर विश्वास एवं भरोसा था। कोरोना काल में आयुर्वेदिक दवाओं ने लोगों की रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित करने के साथ न केवल उनमें आत्मविश्वास पैदा किया बल्कि स्वयं के स्वास्थ्य के प्रति भी जागरूक किया। प्रत्येक भारतीय परिवार की रसोई में इस्तेमाल होने वाला अनाज, दाल, सब्जी व मसाल दानी का प्रत्येक मसाला और विशेष रूप से गरम मसाला अपने आप में पूर्ण दवाई है। ये सभी मसाले न केवल भोजन को स्वादिष्ट और आकर्षक बनाते हैं बल्कि सुपाच्य और पौष्टिक भी बनाते हैं। हल्दी जहां एंटीबायोटिक का काम करती है वहीं सौंफ, अजवाइन, मेथी दाना पित्त को नियंत्रित करते हैं तो जीरा,धनिया पाचन में सहायक होते हैं जबकि लहसुन, अदरक, पुदीना वात को कम करते हैं। भोजन को सुगन्धित बनाने वाला गरममसाला तो पूर्ण औषधीय गुण लिए हुए है। इसी तरह प्रत्येक घर की बगिया में उगने वाली गुणकारी तुलसी, गिलोय, नीम व ग्वारपाठा आदि पौध का इस्तेमाल आयुर्वेदिक दवाओं में तो होता ही है साथ ही रसोई में भी इनका इस्तेमाल होता है। कहने का तात्पर्य है कि आयुर्वेदिक दवाओं में इस्तेमाल होने वाली ज्यादातर सभी जड़ी बूटियां एवं वनस्पतियां प्रत्येक भारतीय घर में प्रतिदिन उपयोग में लाई जाती हैं जो अंग्रेजी दवाओं की भांति शरीर पर विपरीत प्रभाव डाले बगैर शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि करती है।

योग, हजारों वर्षों से भारतीय जीवन शैली का अभिन्न हिस्सा रहा है ज्ञान, कर्म और भक्ति का मिश्रण योग, केवल भारत की धरोहर ही नहीं अपितु पूरी मानव जाति को एकजुट करने की शक्ति रखता है।योग में क्रमशः संयम, नियम, आसन, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि व प्राणायाम शामिल हैं। खासकर योग और प्राणायाम शरीर को हष्टपुष्ट रखकर बीमारियों से लड़ने में सहायक बनाते हैं। योग के विभिन्न आसनों से पेट, लिवर, आंतों को स्वस्थ रखने व प्राणायाम के द्वारा शरीर में प्राणवायु का उचित संचार करके व्यक्ति को आंतरिक रूप से सबल रखने का प्रयत्न किया जाता है। कोरोना काल में विश्वभर के लोग जो मानसिक रूप से हार मान चुके थे, योग और प्राणायाम ने उनमें नकारात्मक ऊर्जा का उत्सर्जन कर सकारात्मक ऊर्जा का संचार किया। आज भारत की योग पद्धति की महत्ता को पूरा विश्व पहचान चुका है और उससे स्वास्थ्य लाभ ले रहा है।

बाहरी दवाओं का इस्तेमाल किये बगैर प्राकृतिक पदार्थों से रोगों का निवारण प्राकृतिक चिकित्सा कहलाता है। इसके अनुसार मनुष्य में समस्त रोगों का मूल कारण अनुचित खानपान, अव्यवस्थित जीवनशैली तथा शरीर में उपस्थित मल है। तीर्थ स्थलों पर घूमना, उपवास रखना, संतुलित आहार ग्रहण करना, आश्रम में रहना, पैदल भ्रमण करना, सूर्य जल अग्नि व पेड़ पौधों की पूजा आदि प्राकृतिक चिकित्सा के उपचार के ही अंग हैं। जबकि भाप, गरारे, कुंजल, गर्म पानी का सेवन, नेती, नाक में तेल आदि प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के द्वारा कफ को कम अथवा समाप्त किया जाता है इसके अतिरिक्त मिट्टी के लेप, एनीमा, विभिन्न प्रकार के स्नान,पेट पर गर्म अथवा ठंडी पट्टी द्वारा पेट के रोगों का इलाज किया जाता है जबकि उपवास,फलाहार व सात्विक भोजन के द्वारा पित्त को नियंत्रित किया जाता है।प्राकृतिक चिकित्सा व्यक्ति की जीवन शैली में सुधार कर उसके पाचन तंत्र को मजबूत बनाते हुए उसे प्रकृति के नजदीक लाती है।

हमें यह कहने में कोई संकोच नहीं कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा विधाओं के अभ्युदय से भारत उदय संभव हो रहा है। कोरोना काल में व्यवस्थित जीवनशैली, संतुलित भोजन, नियमित योग व प्राणायाम के बलबूते ही देश में न केवल मृत्यु दर नियंत्रित रही बल्कि आयुर्वेद, योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति को अपनाने व उसे जीवन में उतारने से महामारी को परास्त करने में सफलता मिली। कोरोना वैक्सीन का सफल परीक्षण तत्पश्चात दुनिया के देशों को वैक्सीन उपलब्ध कराकर भारत, सेवा की अग्रणी भूमिका में विश्व का प्रतिनिधित्व करता नजर आ रहा है साथ ही चिकित्सा संबंधी सामग्री का बड़ा निर्यातक देश बन आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है। जरूरत है तो केवल इस बात की कि भारत सरकार प्राचीन भारतीय चिकित्सा विधाओं को आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति के अनुरूप अनुसंधानात्मक प्रमाणिकता प्रदान करे तथा आयुर्वेद के क्षेत्र में शोध करके उसे नए स्वरूप में देश व समाज के सम्मुख प्रस्तुत करे।


(नोट : ये लेखिका के निजी विचार हैं)