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सनातन विज्ञान का प्रमाण कोणार्क का सूर्य मंदिर

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सनातन विज्ञान का प्रमाण कोणार्क का सूर्य मंदिर 

मंदिर प्राचीन काल से आस्था, शिक्षा और विज्ञान के प्रेरणा स्रोत रहे हैं। अनेक मंदिरों की वास्तुकला हजारों वर्ष बाद भी आज के शोधार्थियों के लिए शोध का विषय है। इसी क्रम में सूर्य मंदिर प्रमुख है। गौरतलब है कि भारत में कुल 12 सूर्य मंदिर हैं। इनमें आकार और शिल्प में सबसे भव्य और दिव्य सूर्य मंदिर कोणार्क आज भी अपने वैभव की गाथा लिए खड़ा है। ऐसा माना जाता है कि यही एक ऐसा मंदिर है, जिसमें सूर्य की वैदिक अवधारणा विद्यमान है। इसकी परिकल्पना ‘सप्ताश्व रथ’ के रूप में की गई है। प्राचीन काल के अखंड भारत में सैकड़ों सूर्य मंदिर वेदों में वर्णित हैं। लेकिन साम्ब पुराण में तीन प्रमुख मंदिरों का उल्लेख मिलता है। चिनाब के तट पर मुल्तान में, यमुना के तट पर कालप्रिय कालपी में और शुतीर या मुंडीर में कोणादित्य या कोणार्क मंदिर। इसी मंदिर की प्रतिकृति के रूप में भारत के प्रतिष्ठित व्यवसायी घनश्याम दास बिड़ला ने विवस्वान् सूर्य मंदिर की स्थापना की। ऋग्वेद में विवस्वान् को मानव जाति के आदि पुरुष मनु का पिता बताया गया है। विवस्वान् का शाब्दिक अर्थ तेजस्वी है। अर्थात् सूर्य की ऊर्जा का तेज। यह मंदिर कोणार्क के सूर्य मंदिर की तरह विशाल तो नहीं है, लेकिन इसका मुख्य प्रतिदर्श (मॉडल) कोणार्क से लिया गया है।

कोणार्क का सूर्य मंदिर: मुगल शासकों ने कलिंग राज्य को आधिपत्य में लेने के बाद यहां के सूर्य मंदिर को भी नष्ट करने की कोशिश की थी। लेकिन इस कालखंड में यहां गंगवंश के सूर्यवंशी शासक थे। पुरी राज्य की मंदल-पंजी के अनुसार 1278 ईसवी के ताम्रपत्रों से पता चलता है कि यहां 1238 से लेकर 1282 तक यही लोग शासक रहे थे। ये शक्तिशाली सम्राट होने के साथ कुशल योद्धा भी थे। भारत में नरसिंह देव के पिता अनंगभीम देव ऐसे बिरले शासकों में से एक हुए हैं, जिन्होंने तुर्क-अफगानी हमलावरों को कलिंग (प्राचीन ओडिशा) में न केवल घुसने से रोका, बल्कि इस्लामी शासन के विस्तार पर भी अंकुश लगा दिया था। अनंगभीम देव ने मुस्लिमों को पराजित करने की प्रसन्नता में कोणार्क मंदिर की नींव रखी, जिसे उनके पुत्र नरसिंह देव ने आगे बढ़ाया और फिर अनंगभीम के पोते नरसिंह देव द्वितीय ने इस मंदिर को चुंबकीय तत्व मिश्रित पत्थरों और इस्पात की पटटियों से कुछ इस विलक्षण ढंग से निर्मित कराया। उन्होंने भगवान सूर्यदेव की प्रतिमा को अधर में स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली थी। यह प्रतिमा भौतिकी के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत पर वायु में प्रतिष्ठित की गई थी। इस मंदिर का निर्माण 1250 में शुरू होकर 1262 में समाप्त हुआ था। 

कोणार्क का संधि-विच्छेद करने पर ‘अर्क’ का अर्थ ‘सूर्य‘ और ‘कोण‘ के मायने ‘कोना‘ निकलता है। यह मंदिर पुरी के पश्चिमी भाग में चंद्रभागा नदी के तट पर बना है। मान्यता है कि इस मंदिर की विशेषता इसके गुंबद पर रखा 52 टन का चुंबकीय तत्वों से मिश्रित पत्थर का शिखर था। साथ ही मंदिर की चौड़ी दीवारों में लोहे की ऐसी पट्टिकाएं लगाई गईं थीं, जिनमें प्रभावशाली चुंबक था। इन पट्टियों और शिखर को स्थापित करने में कुछ ऐसी अनूठी तकनीक अपनाई गई थी, जिस कारण भगवान सूर्यदेव की मुख्य प्रतिमा बिना किसी सहारे के हवा में तैरती रहती थी। इस मंदिर की चुंबकीय शक्ति इतनी ताकतवर थी कि जब इस मंदिर के निकट से अंग्रेजों के समुद्री जहाज गुजरते हुए मंदिर के चुंबकीय परिधि में आ जाते थे, तो उनके ‘दिशा निरूपण यंत्र’ काम करना बंद कर देते थे। परिणामस्वरूप जहाज दिशा बदलकर मंदिर की ओर खिंचे चले आते थे। इस कारण इन सागर पोतों को भारी नुकसान होता था। इसलिए अंग्रेज शासकों ने जब इस रहस्य को जान लिया तब उन्होंने मंदिर के शिखर को हटा दिया। चूंकि यह शिखर केंद्रीय चुंबकत्व का केंद्र था, इसलिए इसके हटते ही मंदिर की दीवारों से जो चुबंक-पट्टिकाएं आबद्ध थीं, उनका संतुलन बिगड़ गया और मंदिर के पत्थर खिसकने लगे और मंदिर का मूलस्वरूप तितर-बितर हो गया। 

उस कालखंड में सूर्य मंदिर इसलिए बनाए जाते थे, क्योंकि हिन्दू मान्यता के अनुसार सूर्य एकमात्र ऐसे देवता हैं, जो प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देते हैं। सूर्य की आराधना से श्रद्धालुओं को सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। सूर्य शक्ति और जीवन के दाता हैं। इस मंदिर की कल्पना सूर्यरथ से की गई है। रथ में 12 जोड़े विशाल पहिये लगे हुए हैं, इनमें आठ तीलियां हैं। इस रथ को सात शक्तिशाली घोड़े तीव्र गति से खींच रहे हैं। इस रथ के प्रतीकों को समझने से पता चलता है कि 12 जोड़ी पहिये दिन और रात के 24 घंटे को दर्शाते हैं। ये पहिये वर्ष में 12 माह के द्योतक हैं। पहियों में लगी आठ तीलियां दिन और रात के आठों प्रहर की प्रतीक हैं। मंदिर में सूर्य भगवान की तीन प्रतिमाएं हैं। उदित सूर्य, यह मूर्ति सूर्य की बाल्यावस्था की प्रतीक है, जिसकी ऊंचाई आठ फीट है। युवावस्था के रूप में मध्यान्ह सूर्य की प्रतिमा है, जिसकी ऊंचाई 9.5 फीट है। तीसरी प्रतिमा प्रौढ़ावस्था यानी अस्त होते सूर्य की है, जिसकी ऊंचाई साढ़े तीन फीट है। साफ है, यह मंदिर प्रकृति की दिनचर्या को मूर्त रूप में अभिव्यक्त करता है। 

ग्वालियर का सूर्य मंदिर: ग्वालियर प्राचीन नगरों में से एक होने के साथ अपने दुर्गम और विशाल किले के लिए प्रसिद्ध है। यह किला गोपाचल पहाड़ी पर निर्मित है। ग्वालियर के निकट मिले शैलचित्रों और पत्थर के उपकरणों से इस क्षेत्र की प्राचीनता प्रागैतिहासिक मानी गई है। ऐसे में प्रसिद्ध मंदिरों की प्रतिलिपियों के निर्माण के लिए जाना जाने वाले बिड़ला परिवार ने पहल की। प्राचीन प्रमाण अनुसार मातृ चेट नामक व्यक्ति ने गोप पर्वत पर सूर्य मंदिर का निर्माण किया था। यह निर्माण कार्य हूण नरेश मिहिर कुल के राज्यकाल में 530 ईसवी में संपन्न हुआ था। बिड़ला जी ने इसी से प्रेरणा लेकर कोणार्क के सूर्य मंदिर की अनुकृति ग्वालियर में बनाने का निर्णय लिया। अतएव कोणार्क शैली के अनुरूप मंदिर सरंचना की मुख्य विलक्षणताओं को ध्यान में रखते हुए मंदिर निर्माण की योजना बनाई गई। 

विवस्वान् मंदिर के नाम से निर्मित इस मंदिर का मुख्य आधार कोणार्क के मंदिर को ही बनाया गया है। सूर्य रथ को कोणार्क की तरह लघु आकार में ढाला गया है। यह मंदिर मुरार नदी के पश्चिमी तट पर एक अत्यंत मनोहारी स्थल पर निर्मित है। मंदिर पूर्वाभिमुखी है। इस मंदिर में भी 24 चक्र हैं, रथ के दोनों और 12-12 पहिये बनाए गए हैं। ये पहिये लगभग 5 फीट व्यास के हैं। प्रत्येक चक्र में आठ मुख्य और आठ गौण तीलियां हैं। इन पर कलात्मक अलंकरण उत्कीर्ण हैं। पहियों की 16 तीलियां दिन और रात के आठ-आठ यामों (प्रहर) की प्रतीक हैं। बारह चक्र कृष्ण पक्ष तथा दूसरे बारह चक्र शुक्ल पक्ष के प्रतीक हैं। जगमोहन मंडप के तीनों द्वारों के बाहर अलंकृत स्तंभों पर नवग्रह पट स्थापित हैं। इस मंडप की दीवारों पर बारह आदित्यों, सप्त मातृकाओं तथा नवदुर्गा और नृत्यांगनाओं की मूर्तियां बनी हैं। गर्भगृह के मध्य में सप्ताश्व रथ के रूप में संगमरमर का चबूतरा है। चबूतरे के सामने सात अश्व हैं, जिनकी लगाम सारथी अरुण के हाथ में है। सूर्यदेव का मुखमंडल अलौकिक आभा से आलोकित हैं। सूर्यदेव के पीछे संगमरमर से निर्मित तोरण के आकार में प्रभामंडल है। यह सूर्य प्रतिमा पौराणिक सनातन धर्म की त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा सूर्य का समन्वित रूप प्रस्तुत करती है। कोणार्क की अनुकृति के रूप में इस मंदिर का निर्माण भारतीय मंदिर वास्तुशिल्प के इतिहास में एक अद्वितीय है। इससे सिद्ध होता है कि भारत में प्राचीनकाल से ही काल चक्र की गणना और ज्योतिष का ज्ञान-विज्ञान अपने चरम पर था। जिसके अनेक प्रमाण आज भी विभिन्न मंदिरों में उपलब्ध हैं।