हिन्दू राष्ट्र की अंगड़ाई लेता नेपाल
लेखक- डॉ. मनमोहन सिंह शिशोदिया गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, ग्रेटर नोएडा
पाली जनमानस का मन हिन्दू राष्ट्र की अपनी खोई पहचान पुनः प्राप्त करने के लिए मचल रहा है। चीन के प्रभाव से राजशाही के खत्म होने और दुनिया के इकलौते हिन्दू राष्ट्र से पंथनिरपेक्ष बनने के बाद नेपाल के माओवादी दलों ने नेपालियों को चीन केंद्रित विकास के जो सब्जबाग दिखाए थे, वे वास्तव में मृग मरीचिका ही सिद्ध हुए है। नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र और हिन्दू पहचान के खात्मे को लेकर जहां चीन समर्थित वामपंथी दलों का भरपूर योगदान रहा, वहीं भारत के वामपंथियों का दखल तथा ज्ञानेन्द्र शाह की घटती लोकप्रियता भी इसका एक अहम कारण बनी।
जनसंख्या की दृष्टि से नेपाल में 81.2 प्रतिशत हिन्दू, 8.2 प्रतिशत बौद्ध, 5.1 प्रतिशत मुस्लिम तथा 1.8 प्रतिशत ईसाई है। भारत-नेपाल संबंधों की गहराई का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि भारत-नेपाल की लगभग 1751 किमी अंतर्राष्ट्रीय सीमा आवाजाही के लिए खुली है, जो भारत के उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल तथा सिक्किम राज्यों को छूती है। इतिहास गवाह है कि नेपाल और भारत के सम्बन्ध केवल व्यापारिक न होकर सांस्कृतिक, आध्यात्मिक, ऐतिहासिक और रोटी-बेटी के रहे हैं। जहां भारत में लगभग 30-40 लाख नेपाली रहते हैं वहीं नेपाल में भी 4 लाख से अधिक भारतीय रहते हैं। दोनों देशों का धर्म, दर्शन, संगीत, भाषा, पूजा-पद्धति, संयुक्त परिवार प्रथा आदि समान हैं। नेपाल में यह भावना पनप रही है कि वहां इस्लाम, ईसाईयत तथा चीनी सभ्यता के बढ़ावे से मूल नेपाली संस्कृति नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। नेपाली जनमानस इसे नेपाली संस्कृति को धूल में मिलाने के अन्तर्राष्ट्रीय षड़यंत्र के रूप में देख रहा है।
राजतंत्र खत्म होने के बाद से पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र शाह केवल विशेष त्योहारों एवं अवसरों पर ही बयान देते थे। परंतु पिछले कुछ समय से वह लगातार नेपाल का भ्रमण कर जनता के साथ हमदर्दी दिखा रहे हैं। वहीं नेपाली जनता भी अपने किए पर पछताते हुए उन्हें आंखों पर बिठा रही है। 9 मार्च को ज्ञानेन्द्र शाह का काठमांडू के त्रिभुवन हवाई अड्डे पर बड़ी संख्या में लोगों ने स्वागत किया और राजतंत्र की वापसी तथा नेपाल को पुनः हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की मांग की। इस रैली में लोग नारा लगा रहे थे 'नारायणहिटी खाली गर, हाम्रो राजा आउँदै छन्' यानी नारायणहिटी खाली करो, हमारे राजा आ रहे हैं, 'राज महल को राजा के लिए खाली करो', 'राजा वापस आओ नेपाल बचाओ', 'हमें राजतंत्र चाहिए'। इन नारों में नेपाल की जनता की कुंठा, निराशा और सरकार के प्रति अविश्वास और आक्रोश साफ झलकता है। इसके विपरीत नेपाल का बड़ा वर्ग वहां लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित करने को उनकी मूल पहचान मिटाने के लिए किया गया छलावा मानने लगा है।
नई व्यवस्था से न तो राजनीतिक स्थिरता आई, न ही अर्थव्यवस्था सुधरी और न ही भ्रष्टाचार पर लगाम लग सकी। वर्ष 2008 में राजतंत्र की समाप्ति के बाद नेपाल में 13 सरकारें बदलना स्वयं नेपाल की दुर्दशा और लोगों की आशाओं पर हुये तुषारापात की कहानी बयां करता है। राजशाही की वापसी के लिए हो रहे प्रदर्शनों में सभी आयु वर्ग, व्यवसायों तथा संप्रदायों के लोगों सहित मुस्लिम भी भाग ले रहे हैं। प्रधानमंत्री के.पी. ओली की कम्युनिस्ट सरकार ने भारत-नेपाल संबंधों के विकल्प के रूप में चीन के साथ संबंधों को मजबूत किया। इन्होने भारत के कालापानी, लिंपियाधुरा तथा लिपुलेख को नेपाल के नक्शे में प्रदर्शित करने जैसे विवादित कार्यों से चीन को साधने, भारत को भड़काने और स्वयं को राष्ट्रवादी नेता के रूप में स्थापित करने का असफल प्रयास किया। परन्तु यह वास्तविकता है कि हम दोस्त बदल सकते हैं पर पादौसी नहीं। नेपाल भारत के बीच परस्पर खुली सीमाएं सुरक्षा एवं सामरिक दृष्टि से भी अहम है।
नेपाल में भारत विरोधी सरकार होने से नेपाली भूमि का दुरुपयोग भारत को अस्थिर करने में होने की संभावनाएं रहेंगी। हालांकि यह भी सत्य है कि नेपाली सरकार भले ही भारत विरोधी क्यूं न हो जाए, नेपाली जनता भारत के साथ थी, है और रहेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि श्री अयोध्यायाम में प्रभु रामलला प्राण प्रतिष्ठा, काशी विश्वनाथ कॉरीडोर के निर्माण और भव्य महाकुम्भ के अनुपम आयोजन ने नेपाली जनता में भी 'स्व' के प्रति बोध जगाया है। भारत और नेपाल एक दूसरे के सहयोगी बनकर सांस्कृतिक अनुनाद पैदा कर दुनिया का दीप-स्तम्भ बन सकते हैं। किन्तु मात्र राजतंत्र की पुनर्स्थापना नेपाल के लिए रामबाण औषधि शायद ही सिद्ध हो। नेपाली नेतृत्व को लचर स्वास्थ्य सुविधाओं, अशिक्षा, पलायन, गरीबी, बेरोजगारी, प्राकृतिक आपदा जैसी चुनौतियों से पार पाने के साथ ही ड्रैगन के चंगुल से बचने के जमीनी प्रयास करने होंगे। (संदर्भ स्रोतों के प्रति आभार एवं कृतज्ञता)