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संस्कारों की प्रथम पाठशाला: परिवार

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संस्कारों की प्रथम पाठशाला: परिवार 

परिवार समाज की प्रथम इकाई है। एक परिवार जब समूह के रुप में कार्य करता है तो वह राष्ट्रोपयोगी बन जाता है। इसलिए परिवार का समूह में काम करने का स्वभाव बनना चाहिए। कोई भी व्यक्ति सकारात्मक परिवर्तन  करने की कल्पना एवं इसके लिए प्रयत्न कर सकता है लेकिन इसे अंतिम परिणिति तक ले जाने के लिए उसे समूह की आवश्यकता पड़ेगी। व्यक्ति से समूह यानी ‘मैं से हम की तरफ जाने वाली इकाई’ परिवार है।

अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। 

उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।

जैसा पावन विचार देने वाले भारत में भारतीय सनातन संस्कृति का आधार स्तंभ कुटुंब है। कुटुंब हमारे संस्कार की प्रथम पाठशाला है और माँ उसकी प्रथम शिक्षिका। एक संस्कार संपन्न परिवार से ही संस्कारवान समाज एवं समुन्नत राष्ट्र का निर्माण होता है। भारत वैदिक काल से ही अपनी संयुक्त परिवार प्रणाली के कारण विश्व विख्यात रहा है परंतु पश्चिमीकरण के कारण हमारे संयुक्त परिवारों का विघटन हुआ है। हमारे लिए बड़े दुःख का विषय है कि समूचे विश्व को वसुधैव कुटुम्बकम् का विचार देने वाले भारत के संयुक्त परिवार अब टूट रहे हैं। प्रेरणा विमर्श 2024 परिवर्तन की पंच धारा- स्व, सामाजिक समरसता, कुटुंब प्रबोधन, नागरिक कर्तव्य और पर्यावरण पर केंद्रित था। विमर्श में कुटुंब प्रबोधन पर मा. क्षेत्र संघचालक सूर्य प्रकाश टोंक जी के उद्बोधन से संकलित विचार प्रस्तुत हैं। 

परिवार समाज की प्रथम इकाई है। एक परिवार जब समूह के रुप में कार्य करता है तो वह राष्ट्रोपयोगी बन जाता है। इसलिए परिवार का समूह में काम करने का स्वभाव बनना चाहिए। कोई भी व्यक्ति सकारात्मक परिवर्तन करने की कल्पना एवं इसके लिए प्रयत्न कर सकता है लेकिन इसे अंतिम परिणिति तक ले जाने के लिए उसे समूह की आवश्यकता पड़ेगी। व्यक्ति से समूह यानी ‘मैं से हम की तरफ जाने वाली इकाई’ परिवार है। व्यक्ति जिस परिवार में रहता है उसका वातावरण व्यक्ति के व्यक्तित्व पर विशेष प्रभाव डालता है। व्यक्ति दुखी है, प्रसन्न है, आनंद में है, ये सब परिवार के वातावरण पर निर्भर करता है अगर उसको अपने जीवन का आनंद उठाना है तो परिवार आनंदमय होना चाहिए। परिवार इकाई की दृष्टि से तीन बातें महत्वपूर्ण हैं वह है भक्ति, शक्ति और आनंद। परिवार का वातावरण भक्तिमय होना चाहिए। परिवार में हमारी परंपराएं हैं उसमें कुछ न कुछ भक्ति के संदर्भ में काम होना चाहिए। उसमें शक्ति भी होनी चाहिए क्योंकि अगर परिवार को अपना संरक्षण करना है तो सक्षम होना बहुत आवश्यक है। तीसरी चीज इन दो बातों के होने से प्राप्त होने वाली है वह परिवार का आनंद है। वह अगर हमें मिलता है तो फिर जो उस परिवार के सदस्य हैं, जो उस इकाई का एक महत्त्वपूर्ण अंग है वो भी आनंद में रहेंगे। अगर आज के संदर्भ में हम देखें तो परिवार के सदस्य अलग-अलग व्यवहार करने वाले नहीं होने चाहिए। उनके बीच में अगर आपसी समझ और आपसी संवाद नहीं होगा, एक दूसरे के साथ अपना जो भी विचार है या समस्याएं हैं वह नहीं जानेंगे तो बात बनने वाली नहीं है। इसके लिए परिवार के अंदर व्यवस्था खड़ी करनी पड़ेगी। सभी सदस्य परिवार में कोई न कोई ऐसी व्यवस्था जरूर बनाएं जिसके आधार पर सब सदस्य एकत्र होकर भक्ति, भगवान के प्रति समर्पण के भाव से सामूहिक रूप से प्रातः या सायं बैठें। 

परिवार ठीक प्रकार से चले इसके लिए सदस्यों को अपनी कुशलता के आधार पर काम करना चाहिए। एक दूसरे की सहायता करनी चाहिए। सबके अलग-अलग प्रकार के कार्य हो सकते हैं यदि वे एक दूसरे की कठिनाइयों में अपना कुछ योगदान करते हैं तो परिवार शक्ति संपन्न होगा। सभी सदस्य किसी एक समय में मिलकर आपस में अपनी-अपनी बातों को शेयर करने की व्यवस्था बना सकते हैं। भोजन एक साथ कर सकते हम सबने बचपन में सांप-सीढ़ी खेली है। उसमें कभी सीढ़ी चढ़ जाते हैं तो कभी साँप डस लेता है तो गोटी फिर नीचे आ जाती है। परिवार के साथ भी ऐसा ही है। अगर परिवार के सदस्य आपस में सहयोगी भूमिका में है तो सीढ़ी का काम करेंगे, परिवार उन्नत होगा और यदि एक दूसरे को काटने का काम कर रहे हैं तो सांप बनकर डसने का कार्य करेंगे, परिवार का पतन होगा। परिवार व्यवस्था को मानसिक एवं व्यावहारिक रूप से समन्वित भूमिका में लाने का काम परिवार के सभी सदस्यों का है। घर के बालक बालिकाएं आने वाले समय में उस परिवार को आगे या पीछे ले जाने की भूमिका में आने वाले हैं तो उनका विकास कैसा हो रहा है उस पर ध्यान देना होगा इसके लिए पांच सूत्र ध्यान में आते हैं।  

सबसे पहला है शिक्षा। हमारे जो परिवार के बालक हैं वह ठीक से शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं क्या? जैसे शेरनी का दूध पिया जाता है न मजबूत होने के लिए, निडर होने के लिए, वह सारे गुण शेर में होते हैं वैसे गुण लाने के लिए शिक्षा एक महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा की व्यवस्था परिवार में ठीक प्रकार से चलने वाली हो यह पहला सूत्र है।

दूसरा सूत्र परिवार में होता है संस्कार। परिवार के अंदर, समाज में कैसे व्यवहार करना है उस संस्कार की व्यवस्था परिवार में होनी ही चाहिए। बच्चों द्वारा बचपन में प्राप्त किए गये संस्कार ही उसकी भावी भूमिका तैयार करेंगे। अगर संस्कार नहीं है तो शिक्षा व्यर्थ हो जाती है। वह शिक्षा प्राप्त तो कर लेगा, नौकरी भी लग जाएगी, नाम के आगे पीएचडी या एमए या जो कुछ भी है वो तो लग जाएगा लेकिन बालक के पास अगर संस्कार नहीं है तो न तो वह परिवार के लिए, न समाज के लिए, न राष्ट्र के लिए उपयोगी होगा, गड़बड़ ही करेगा। इसलिए संस्कार के बिना शिक्षा का औचित्य ही नहीं है।

तीसरा सूत्र है संगति। बालक किन लोगों के साथ बैठ रहा है वह संगति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। बड़े सदस्यों को उदाहरण प्रस्तुत करना पड़ेगा। बालक बालिकाएं देखते हैं कि परिवार के बड़े सदस्य किस संगति में हैं, उनके साथ कौन लोग बैठते हैं? वो क्या बातें करते हैं? परस्पर किस प्रकार से व्यवहार करते हैं? परिवार के साथ उसे देख कर उस नए सदस्य को जो आगे आने वाली जिम्मेदारी संभालने वाला है उसे ठीक प्रकार से निभाने की योग्यता विकसित होती है। अगर संगति ठीक नहीं है तो न शिक्षा काम की है और न संस्कार काम का है क्योंकि संस्कारों की अभिव्यक्ति भी संगति के ऊपर निर्भर करती है।

चौथा सूत्र है एकात्मता। परिवार के अंदर एकत्व है क्या? परिवार आपस में मिलकर काम करता है क्या? एक दूसरे की कठिनाइयों को केवल देखने-समझने तक सीमित नहीं है उसमें सहयोग करने का प्रयत्न करता है क्या? परिवार के अंदर कोई भी मुश्किल आती हो उसमें परिवार के सब सदस्य साथ मिलकर उस कठिनाई को दूर करने का प्रयत्न करते हैं क्या? और अगर वह करते हैं तो ठीक है पूर्व की तीनों बातें ठीक से काम करेंगी और अगर ठीक नहीं हैं तो पहली तीनों बातें बेकार हैं।  

पांचवा और अंतिम सूत्र है समाज में परिवार का स्थान। उपरोक्त चारों सूत्र के साथ-साथ परिवार समाज में क्या भूमिका निभा रहा है यह बहुत महत्त्वपूर्ण है? क्योंकि ये चारों सूत्र मिलकर जिस व्यक्ति का निर्माण करते हैं वह व्यक्ति फिर समाज में, राष्ट्र में भूमिका निभाता है। उसे अपने कर्मों को ऐसा निर्धारित करना पड़ेगा कि परिवार, समाज या राष्ट्र की दृष्टि से उसके कर्म सकारात्मक हों, उन्नायक हों। समाज में परिवार के स्थान की सामूहिक जिम्मेदारी परिवार के सभी सदस्यों की है। 

प्रयत्न कीजिए कि आप स्वयं और अपने परिवार के सदस्यों को उस दिशा में ले जाने का प्रयत्न करें कि जिससे ऊपर की जो इकाई है राष्ट्र और उससे भी ऊपर की इकाई विश्व है, उस तक के अच्छे होने की कल्पना करें। विश्व को ठीक करने की दृष्टि से पहले अपना देश ठीक होना चाहिए, अपना देश ठीक करने की दृष्टि से हमारा समाज ठीक होना चाहिए और उसका हेतु परिवार है। अगर मेरा परिवार ठीक है तो वो समाज ठीक होगा और अगर परिवार को ठीक रखना है तो मुझे ठीक होना पड़ेगा शुरुआत अपने से करनी होगी। यह मैं से हम की जो यात्रा है वह परिवार से ही प्रारंभ होती है। वसुधैव कुटुंबकम् का जो हम उद्घोष करते हैं कल्पना करते हैं वह इसी यात्रा से प्राप्त होने वाला आदर्श है।