वनवासी राम: समरस चेतना के आदिपुरुष
वनवासी राम का सारा जीवन दर्शन सामाजिक समरसता का अनुकरणीय मार्ग रहा है। वल्कल पहने राम ने वनगमन के समय हर पथ पर समाज के उस अंतिम व्यक्ति को गले से लगाया जिसे आज के समय में उपेक्षित और कमजोर कहा जाता है। केवट को भगवान राम ने गले लगाकर समाज को यह संदेश दिया कि सभी लोग एक हैं। आत्मा और परमात्मा एक हैं। उनमें जाति और ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं है। वर्तमान में वंचित समुदाय में शामिल केवट को भगवान राम ने गले लगाकर सामाजिक समरसता का प्रतिमान स्थापित किया है।
भगवान राम अयोध्या के युवराज हैं। भगवान राम को वनवासियों के बीच में रहने के कारण ही वनवासी राम के रूप में उनको ख्याति प्राप्त हुई। राम का पूरा जीवन सामाजिक समरसता, समानता तथा बंधुत्व के सर्वाेत्तम उदाहरण के रूप में देखा जाता है। वनगमन में चाहे निषाद राज से मित्रता का प्रसंग हो या शबरी के झूठे बेर खाना या अहिल्या का उद्धार या जटायु को गले लगाकर सम्मान देने की कथा हमें निरंतर समरसता के भाव को ही स्थापित करती है। बहुत सी वनवासी प्रजातियों को उन्होंने गले लगाया, उनको बराबर का दर्जा दिया।
शोध उद्देश्य: प्रस्तुत शोध का उद्देश्य वनवासी राम के समरसता युक्त प्रसंगों का विवेचन करना है।
शोध विधि:शोध की प्रविधि गुणात्मक प्रविधि है। इस शोध पत्र में रामचरितमानस की विषयवस्तु का गुणात्मक विश्लेषण किया गया है।
विवेचन: वर्तमान में भी हम देखते हैं तो स्पष्ट दिखाई देता है कि वनवासी आर्थिक रूप में अभावग्रस्त हो सकता है, लेकिन सांस्कृतिक समृद्ध तथा समन्वयवादी जीवन मूल्यों से संपन्न रहता है। वनवासी समाज के बीच आत्मीय संपर्क, परस्पर संबंध स्थापित रहता है। उसके यह आत्मीय संबंध विश्व कल्याण के मार्ग को प्रशस्त करता है।
राम सामाजिक समरसता के प्रतिमान हैं। अपने जीवन के सबसे संघर्ष के क्षणों में राम ने सहयोगी और सलाहकार वनवासियों को ही बनाया, इनमें केवट, कोल, भील, किरात, वानर और रीछ आदि सम्मलित रहे। इन सभी को वनवासी राम ने सखा माना। उन्होंने तो वनवासी हनुमान को लखन से अधिक प्रिय बताया। रामचरितमानस की चौपाई
‘सुनु कपि जियं मानसि जनि ऊना।
तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना।’
बालि संहार के बाद राम ने सुग्रीव को किष्किन्धा का राजा बनाया तो बालि पुत्र अंगद को इसका उत्तराधिकारी घोषित किया। जब लंका में राम ने विजयी होकर लक्ष्मण से कहकर विभिषण का राजतिलक करवाया यानि गलत आचरण करने वाले को दंड प्रदान करते हैं, लेकिन दूसरे के धन-संपत्ति आदि से विरक्ति का भाव ही रखते हैं। राम शक्तिशाली और धर्मानुरागी होने के कारण समाज के अपराधी को तो दंडित करते हैं, किंतु पराजितों के धन-संपदा राज्य आदि से मोह नहीं रखते।
वनवासी राम का दुश्मन के प्रति कैसा दृष्टिकोण था इसको रावण की मृत्यु के प्रसंग से समझा जा सकता है कि जब विभीषण अपने भाई रावण के किये पर लज्जित होकर उसके शव का अंतिम संस्कार करने में हिचकते हैं, तब राम समझाते हैं कि ‘मरणान्तानि वैराणि निर्वृत्तं नरू प्रयोजनम्। क्रियतामस्य संस्कारो ममाप्येष यथा तव।’ अर्थात् बैर जीवन कालतक ही रहता है। मरने के बाद उस बैर का अंत हो जाता है। इस प्रसंग से बंधुत्व को भी समझने की जरूरत है।
तुलसीकृत रामचरितमानस में राम के चरित्र को पढ़ते हैं तो समरस समाज के बिंदु दिखाई पड़ते हैं। सीता का जब अपहरण होता है, राम-लक्ष्मण सीता की खोज में जाते हैं तो रावण से युद्ध में परेशान गिद्धराज जटायु दिखाई पड़ते हैं। राम पक्षीराज को गोद में उठाते हैं और उनको पिता का दर्जा देकर उनका अंतिम संस्कार करते हैं। उन्हें अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष में जीवन गंवाने का पूरा सम्मान दिया। पक्षीराज जटायु वनवासी जनजातियों में से एक थे। वल्कल पहने राम ने वन में पिछड़े एवं गरीबों के साथ को स्वीकार किया। वनवासी राम ने मानवता से ओतप्रोत एक ऐसे समाज की रचना की जो अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भी तैयार रहे। राम ने अनुसूचित जातियों व जनजातियों को आत्मसात किया और उनके लोकप्रिय बने। उन्हें संगठित कर बुराइयों से निकालकर उनमें राष्ट्रधर्म और समरसता का स्वभाव पैदा किया।
राम अपने राज्य को निष्कंटक व आदर्श बनाने हेतु सांस्कृतिक समाज तैयार करने के साथ-साथ आसुरी प्रवृत्ति से मुक्त राम ने सेतु निर्माण के लिए एक उत्कृष्ट प्रतिमान स्थापित किया। सेतु निर्माण में प्रत्येक जन को एक प्रबल संदेश दिया कि कोई कितना भी छोटा, असहाय, पिछड़ा या गरीब क्यों ना हो, पर प्रत्येक स्तर पर हमें श्रम की महत्ता को अग्रेषित करना होगा। श्रम की पूजा ही नहीं बल्कि उसके प्रति निष्ठा, आस्था एवं सम्मान की भावना भी होनी चाहिए। राम सेतु के निर्माण के समय सबसे छोटे जीव के रूप में जुटी गिलहरी के भी योगदान को सराहते हैं। राम समाज के दुखी, गरीब तथा अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को भी उसी तरह प्यार करते हैं जैसे अन्य को। राम न्याय प्रिय हैं। वे समरसता युक्त समाज की स्थापना करने में सफल हो पाते हैं। उन्होंने समाज को सामाजिक समरसता संदेश दिया है। राम शांति हेतु रावण के पास दूत भेजते हैं।
वनवासी राम का सम्पूर्ण जीवन सामाजिक समरसता का प्रतीक है, यहां उन्होंने सदैव समाज के सबसे अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति को गले लगाया। राम ने दंडकारण्य की धरती से पूरी दुनिया तक “सम्पूर्ण समाज एक परिवार है” का संदेश दिया। वनगमन के बाद एक वनवासी के रूप में राम का जीवन मानो सामंजस्यता और समरसता का ही पर्याय बनकर हमारे लिए अनुकरणीय हो गया है। शबरी भील समुदाय की हैं, लेकिन वनवासी राम शबरी के झूठे बेर मां कहकर स्वीकार करते हैं और बड़े ही प्रेम से खाते हैं। शबरी वनवासी राम को प्रभु के रूप में मानती हैं और छोटी जाति होने से संकोच करती हैं, लेकिन वनवासी राम उनको भेद भाव से परे होने की बात कहते हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा कि राम जी कहते हैं कि-
‘कह रघुपति सुनु भामिनि बाता।
मानउँ एक भगति कर नाता।।
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई।
धन, बल, परिजन, गुन, चतुराई’।। अर्थात हे भामिनि! मेरी बात सुनो! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ। सामाजिक समरसता का मूलमंत्र समानता है, जो समाज में व्याप्त सभी प्रकार के भेदभावों एवं असमानताओं को जड़-मूल से नष्ट कर नागरिकों में परस्पर प्रेम एवं सौहार्द में वृद्धि तथा सभी वर्गों में एकता का संचार करती है। समस्त अखिल ब्रह्मांड में वनवासी राम में लौकिक एवं अलौकिक तमाम गुणों का समावेश मिलता है। वनवासी राम एक साधारण मनुष्य के रूप में समस्त सामाजिक, राजनीतिक तथा सांस्कृतिक मर्यादा को उच्च प्रतिमान पर स्थापित करने का प्रयास करते हैं। आदिपुरुष के रूप में स्थापित राम विपरीत परिस्थितियों में जीवन जीने की कला को सिखाते हैं। राम का जीवन सब कुछ हार चुके लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। उनके जीवन में ऐसी परिस्थितियां कई बार सामने आईं जिनमें सामान्य व्यक्ति या तो हताशा या निराशा की भंवर में जा सकता था। क्रोध व ईर्ष्या के वशीभूत होकर पारिवारिक तथा सामाजिक सदाचार की मर्यादा को भूल सकता था लेकिन राम ने विपरीत परिस्थितियों में उच्च मर्यादा को कैसे स्थापित रखा जा सकता है, ऐसा अप्रतिम उदाहरण प्रस्तुत किया है। भगवान राम को राज्याभिषेक के समय कैकेयी द्वारा 14 वर्ष का वनवास का आदेश देना और राम द्वारा स्वीकार करना यह माता की प्रतिष्ठा का भाव दिखाता है। उनके मन में किंचित मात्र भी द्वेष घृणा या प्रतिकार की भावना उत्पन्न नहीं हुई। वह माता कौशल्या की तरह ही उनके प्रति स्नेह आदर और ममता का भाव रखते हैं। लक्ष्मण द्वारा कैकेयी की निंदा करने पर वह तुरंत लक्ष्मण को रोकते हैं। साथ ही भरत अथवा शत्रुघ्न के प्रति उनके मन में उठ रहे संशयों को दूर करते हैं। राज्याभिषेक के बाद हनुमान जी को विदा करते हुए उनके विचार ‘हे कपिश्रेष्ठ, मुझ पर तुम्हारे ऐसे उपकार हैं कि उनमें एक- एक के बदले अपने प्राण तक दे सकता हूं, फिर भी शेष उपकारों के लिए मुझे तुम्हारा ऋणी बनकर ही रहना होगा। ’सामाजिक समन्वय को स्थापित करते हुए राम ने मित्र एवं राजधर्म का निर्वाहन जिस परिपक्वता से किया उसके कारण ही रामराज्य आज की एक आदर्श राज्य संकल्पना है। उनका अखिल ब्रह्मांड स्वरूप सदभाव सदविचार तथा सदभावना और परमार्थ ही परम लक्ष्य होने के कारण प्रजा में परस्पर प्रेम व स्नेह था, छोटे-बड़े ऊंच-नीच के कारण भेदभाव नहीं था।
निष्कर्ष: वनवासी राम ने अपने वनवास काल में समाज को एक सूत्र में पिरोकर अखंड समाज की रचना की है। सामाजिक शक्ति से युक्त राम ने आसुरी प्रवृत्ति के तमाम ऐसे लोगों पर विजय प्राप्त की जो समाज को नकारात्मकता प्रदान कर रहे थे। समाज को निर्भरता के साथ जीने तथा समाज का मार्ग प्रशस्त करने के लिए उन्होंने सामाजिक बुराइयों पर विजय प्राप्त की। उन्होंने कमजोर वर्गों को गले से लगाकर सामाजिक भेदभाव को पूरी तरह खत्म किया। वह निषाद राज गुह को गले से लगाते हैं और उन्हें मित्र का भाव देते हैं। आज समाज में जिस प्रकार छुआछूत तथा वैमनस्य का भाव व्याप्त है वहां राम के जीवन से हमें सीखने को मिलता है। पूरे भारत ही नहीं वरन् पूरे विश्व में सांस्कृतिक समरसता के आदिपुरुष के रूप में भगवान राम को देखा जाता है। किसी राष्ट्र या समाज की पहचान केवल एक वर्ग से नहीं होती, बल्कि उस राज्य या राष्ट्र के नैतिक आचरण से होती है। भगवान राम का जीवन इन्हीं सांस्कृतिक समरस तत्व को आत्मसात कर उत्कृष्ट रेखांकन करता है।
लेखक, आईआईएमटी कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट के जनसंचार एवं पत्रकारिता विभाग में सहायक प्राध्यापक हैं।




