आजकल फास्ट फूड का जमाना है, जिसे देखो वही फास्ट फूड का दीवाना है...लेकिन आपको बता दें कि फास्ट फूड के नाम पर आज हम जो कुछ भी खा रहे हैं न तो वह अपने देश की परम्परा में है और न ही हमारी सेहत के लिए ठीक है. आजकल बच्चे या बड़ों में कोई भी ऐसा नहीं मिलेगा जो किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त न हो, यह सब इस खाने पीने की आदतों की ही देन है...कि हम एक अस्वस्थ जीवन जी रहे हैं.
हमारे पूर्वजों ने हर छह ऋतुओं और भौगोलिक जलवायु के हिसाब से खाने पीने के विभिन्न प्रकार के व्यंजनों और पौष्टिक आहार की परम्परा हमें दी थी जो सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी चलती आयी और जब तक हमने अपनी परम्पराओं का पालन किया हम भारतीय स्वस्थ और आनंदमय जीवन जीते रहे लेकिन जब से हमने पाश्चात्य जीवन शैली और खान पान को अपना लिया हमने अपना जीवन बर्बाद कर लिया है। यूरोप से आये फास्ट फूड के चलन में हमारी महान परम्परा ने भी दम तोड़ दिया है। लेकिन आज भी हमारी नारी शक्ति अपने पूर्वजों की उस परम्परा को सहेजने में सक्षम है और उसका ही एक उदाहरण है उत्तराखंड के देहरादून क्षेत्र की महिलाएं जो राष्ट्रीय आजीविका मिशन से जुड़कर कई परम्परागत पहाड़ी उत्पाद बनाकर उनकी पैकिंग कर बेचने का प्रशिक्षण दे रही हैं।
देहरादून की सरस्वती जागृति संस्था में 40 महिलाएं जुड़ी हैं जो परम्परागत पहाड़ी व्यंजन अरसा रोट, चौलाई के लड्डू, मंडूए के लड्डू, बर्फी, बिस्किट व नमकीन, मसाले बनाती हैं। समूह की संचालिका पूजा तोमर बताती हैं कि उन्होंने वर्ष 2008 में समूह बनाया था। पहाड़ी व्यंजनों को बनाने के साथ ही यहां महिलाएं कैटरिंग का कार्य भी करती हैं। विभिन्न विभागों व विवाह पार्टी की ओर से मिलने वाले आर्डर के आधार पर वह व्यंजन तैयार करती हैं। जिसमें कंडाली का साग, फाणु, चैंसू, झंगोरा, मंडूए की रोटी आदि पहाड़ी व्यंजन शामिल हैं। इस समूह का सालाना टर्नओवर सवा दो करोड़ रुपये है। समूह से जुडी महिलाओं को 15 से 20 हजार रूपये प्रतिमाह आमदनी होती है।
परम्परा के संरक्षण के साथ ही रोजगार का यह तालमेल नारी सशक्तिकरण का एक अच्छा उदाहरण है जो औरों को भी ऐसा ही कुछ करने के लिए प्रेरित करता है।