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कर्मभोगी नहीं,कर्मयोगी बनें

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    प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस पर जब हमें अमृतकाल के पांच प्रण बताए तो उसमें नागरिकों का कर्तव्य सबसे आखिरी और सबसे खास संकल्प है। नागरिक चेतना और उसकी सतत सहभागिता ही किसी लोकतंत्र के जीवंत होने का प्रमाण है। इसी से लोकतंत्र सार्थक होता है। सामाजिक व्‍यवस्‍था में बहुत बड़ी भूमिका संभालने वाली हमारी युवा पीढ़ी आज बहुत कुछ नया करने का इरादा रखती है। 

     कोरोना संकट में, देश ने जिस तरह काम किया, देश की व्यवस्थाओं ने जिस तरह काम किया,उससे शासकीय अधिकारियों, कर्मचारियों और समाज ने भी बहुत-कुछ सीखा है। कोरोना वैश्विक महामारी के दौरान जो हमें सबसे बड़ा सबक मिला है, वो आत्मनिर्भरता का है। आज ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ की भावना, ‘आत्मनिर्भर भारत’ की भावना, एक ‘नवीन भारत’ का निर्माण होते हुए देख रही है। नवीन होने के कई अर्थ हो सकते हैं, कई भाव हो सकते हैं। लेकिन नवीन का अर्थ यही नहीं है कि आप केवल पुराने को हटा दें और कुछ नया ले आयें। नवीन का अर्थ है, कायाकल्प करना, रचनात्मक होना, जोश से परिपूर्ण होना। नवीन होने का अर्थ है, जो पुराना है उसे और अधिक प्रासंगिक बनाना, जो अप्रसांगिक है उसे छोड़ते चले जाना। 

   एक तरफ केंद्र सरकार जहां मिशन कर्मयोगी के माध्यम अधिकारियों एवं कर्मचारियों की क्षमता निर्माण की दिशा में अपनी तरह का एक नया प्रयोग कर रही है। जिसके जरिए, सरकारी कर्मचारियों को, उनकी सोच-अप्रोच को आधुनिक बनाना है, उनका कौशल सुधारना है, उन्हें कर्मयोगी बनने का अवसर देना है। वहीं प्रधानमंत्री जी नागरिकों में भी वही चेतना फैलते हुए देखना चाहते हैं। वे चाहते हैं कि हमारे अधिकारबोध के साथ हमारा कर्तव्यबोध भी प्रबल हो जिससे कोई देश और समाज सफलता के शिखरों को छूता है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- ‘यज्ञ अर्थात् कर्मणः अन्यत्र लोकः अयम् कर्म बंधनः’। अर्थात, यज्ञ यानि सेवा के अलावा, स्वार्थ के लिए किए गए काम, कर्तव्य नहीं होते। वो उल्टा हमें ही बांधने वाला काम होता है। कर्म वही है, जो एक बड़े विजन के साथ किया जाए, एक बड़े लक्ष्य के लिए किया जाए। इसी कर्म का कर्मयोगी हम सबको बनना है। इसके मायने यह हैं कि जब आप हर किरदार में अपनी भूमिका अच्छे से निभाएंगे, तो आप अपने संपूर्ण जीवन में भी सकारात्मक रहेंगे। यही सकारात्मकता आपकी सफलता के रास्ते खोलेगी, आपको एक कर्मयोगी के रूप में जीवन के संतोष का बहुत बड़ा कारण बनेगी। जब हम लोक से जुड़ेंगे तो लोकतंत्र में काम करना और आसान हो जाएगा। आप जिस धरती से निकले हों, जिस परिवार, समाज से निकले हों, उसको कभी भूलिए मत। समाज से जुड़ते चलिए। एक प्रकार से समाज जीवन में विलीन हो जाइए, समाज आपकी शक्‍ति का सहारा बन जाएगा। आपके दो हाथ सहस्‍त्रबाहु बन जाएंगे। ये सहस्‍त्रबाहु जन-शक्‍ति होती है, उन्हें समझने की, उनसे सीखने की कोशिश अवश्‍य करनी चाहिए। सरकार शीर्ष से नहीं चलती है। नीतियां जिस जनता के लिए हैं, उनका समावेश बहुत जरूरी है। जनता केवल सरकार की नीतियों की स्वीकारकर्ता नहीं हैं, जनता जनार्दन ही असली शक्ति है। इसलिए हमें सरकार से सुशासन की तरफ बढ़ने की जरूरत है। यह लक्ष्य नागरिकों के कर्तव्यबोध के बिना असंभव है।

    महात्मा गांधी द्वारा प्रकाशित समाचार पत्र ‘हरिजन सेवक’ के 10 नवंबर, 1946 के अंक में गांधी जी ने लिखा था कि, ‘‘गांव के लोगों में ऐसी कला और कारीगरी का विकास होना चाहिए, जिससे गांव के बाहर उनकी पैदा की हुई चीजों की उन्हें कीमत मिल सके। जब गांवों का पूरा विकास हो जाएगा, तो गांव में कर्मयोगियों की कोई कमी नहीं रहेगी।’’ इन पंक्तियों के माध्यम से महात्मा गांधी ये कहना चाहते थे कि किसी भी गांव का विकास अगर हो सकता है, तो उसका प्रमुख तत्व कर्मयोग ही है। भारत के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भी इसी कर्मयोग की बात करते हैं। आज जब सब लोग मिलकर भारत को विश्वगुरू बनाने में लगे हुए हैं, तब हर भारतीय का यह कर्तव्य बनता है कि हम कर्मपथ पर आगे बढ़ें। श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग के विषय में कहा गया है, ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि। अर्थात तेरा अधिकार कर्म करने में है, फल में नहीं। इसलिए तू कर्म फल की इच्छा मत कर। अक्सर हम देखते हैं कि मनुष्य का जोर कर्मभोगी होने पर होता है, जबकि हमें कर्मयोगी बनना चाहिए। कार्य कुशलता का प्रमाण इस बात में है कि छोटे-से-छोटा काम भी इस कुशलता से किया जाए, कि वह सुंदर और महत्त्वपूर्ण बनकर कर्त्ता की ईमानदारी का साक्षी बन जाए। 

     मनुष्य का सारा जीवन ही 'कर्म' से भरा हुआ है। किसी भी समय वह कर्म रहित होकर नहीं रह सकता। सोते-जागते, उठते-बैठते, यहां तक कि श्वांस लेने में भी वह एक कर्म ही करता रहता है। श्रद्धा, निष्ठा एवं लगन के साथ किया गया कोई भी काम मनुष्य को सद्भाव, उच्च विचार, उत्साह, संतोष और शांति प्रदान करता है। कर्मशील व्यक्ति वर्तमान को महत्त्व देता है और अपने काम में लगा रहता है। कर्म की महत्ता अनंत है। इसलिए उसे योग कहा गया है। अन्य योग साधनाओं की भांति ही मनुष्य कर्मयोग की साधना से पूर्णता प्राप्त कर सकता है। कर्मवीरों ने काम को ही जीवन का आधार बनाया है। एक महान संत ने इसलिए ये भी कहा है- ‘‘हे कार्य! तुम्हीं मेरा कामना हो, तुम्हीं मेरी प्रसन्नता हो, तुम्हीं मेरा आनंद हो।’’ प्रत्येक महान और असाधारण बनाने वाला काम प्रारंभ में छोटा एवं सामान्य लगता है, किंतु कर्मवीर जब उसमें एकाग्र होकर लगते हैं, तो वो कार्य भी महान और असाधारण महत्त्व के बन जाते हैं। मनुष्य जब अपने को कर्त्तव्य, कर्म, परिश्रम एवं पुरुषार्थ की आग में तपाता है, तो उसके भीतर सोया पड़ा उसका असल व्यक्तित्व उभर कर आता है। हम सभी के कामों में अनेक बाधाएं आती हैं। हम सब उससे परेशान भी होते हैं। कार्य तो वह है जिसमें बाधाएं आएं, और कर्मवीर वह है जो ऐसे ही कार्यों को करे जिनमें बाधाएं आ-आकर उसे सफलता के द्वार की ओर ले जाएं। इसलिए बाधाओं का स्वागत करिए, क्योंकि वे आपको सफलता का रहस्य समझाएंगी। सूरज, चांद, तारे अपना काम बिना किसी बाधा के प्रतिदिन करते हैं। नदी का काम है रास्ते में आने वाले स्थानों को सींचते और हरियाली बांटते हुए निरंतर बहते रहना। जब प्रकृति और उसके विभिन्न रूपों का ये नियम है, तो सजीव और सचेतन मनुष्य कर्महीन कैसे रह सकता है? 

     जीवन और प्रकृति के इन रूपों, नियमों और रहस्यों को समझकर ही गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा था कि ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा’ यानी इस जगत में कर्म करते रहना ही जीवन का चरम सत्य है। निजी हितों को त्यागकर, निष्पक्षतापूर्वक फैसले लेकर तथा सत्यनिष्ठा के साथ अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करना ही ‘निष्काम कर्मयोग’ है। और इसी कर्मयोग से ग्राम स्वराज की संकल्पना को साकार किया जा सकता है। हमारे यहां उपनिषद में कहा गया है- ‘न तत् द्वतीयम् अस्ति’। अर्थात, कोई दूसरा नहीं है, कोई मुझसे अलग नहीं है। जो भी काम करिए, जिस किसी के लिए भी करिए, अपना समझ  कर करिए। एक सामान्य नागरिक अपनी सेवा से, अपने समर्पण से देश की विकास यात्रा में, देश को आत्मनिर्भर बनाने में बहुत बड़ा योगदान दे सकता है। आत्मनिर्भरता की शुरुआत आत्म से होनी चाहिए। कर्मयोगी का भाव जगाइए। कर्मयोग के रास्ते पर चलने के लिए आगे बढ़िए। हम सब मिलकर आजादी के 100 साल के सपने साकार करने का अभी से काम प्रारंभ करें। यही हमारा संकल्प है। यही हम सबका साझा लक्ष्य है।

(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं)



(नोट : ये लेखक के निजी विचार हैं)