नागपुर
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि वर्तमान परिस्थितियाँ और देश का नेतृत्व हमें बता रहे हैं कि भारत को अब आत्मनिर्भर बनना चाहिए। हमें अपने बल पर प्रगति करनी होगी। सभी प्रकार के बल में वृद्धि होनी चाहिए। यदि हमें आत्मनिर्भर बनना है, तो हमें अपने स्व को पूरी तरह से समझना होगा। सरसंघचालक जी रामटेक के कवि कुलगुरू कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय के वारंगा स्थित अभिनव भारती अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक परिसर में डॉ. केशव बळिराम हेडगेवार अंतरराष्ट्रीय गुरुकुल के उद्घाटन अवसर पर संबोधित कर रहे थे। मंच पर मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, उच्च शिक्षा मंत्री चंद्रकांत पाटिल, कुलपति डॉ. हरेराम त्रिपाठी, पूर्व कुलपति डॉ. पंकज चांदे, डॉ. उमा वैद्य और निदेशक कृष्णकुमार पांडे उपस्थित थे।सरसंघचालक जी ने कहा कि जहाँ स्वत्व होता है, वहाँ बल, शक्ति और लक्ष्मी का निवास होता है। यदि स्वत्व नहीं है, तो बल भी लुप्त हो जाता है। जब आत्मनिर्भरता आती है, तो बल-शक्ति और लक्ष्मी स्वयं ही आ जाते हैं। भारत की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। यदि हम पश्चिम के इतिहास को भी मान लें, तो सन् 1 से 1600 ई. तक भारत सबसे अग्रेसर था। हम अपने स्वत्व पर दृढ़ थे। जब हम इसे भूलने लगे, तो हमारा पतन शुरू हो गया और हम विदेशी आक्रांताओं के शिकार हो गए। अंग्रेजों ने तो हमारी बुद्धि को गुलाम बनाने का तरीका भी विकसित कर लिया। यदि हम आत्मनिर्भर बनना चाहते हैं तो हमें अपने वास्तविक स्वरूप को पूरी तरह समझना होगा।
भाषा ‘स्व’भाव को अभिव्यक्त करने का साधन
उन्होंने कहा कि भाषा हमारे ‘स्व’ भाव को अभिव्यक्त करने का साधन है। लोगों की जीवन-शैली इसी पर आधारित थी। जैसे समाज का भाव होता है, वैसे ही उसकी भाषा होती है। पश्चिमी देशों ने आसानी से एक वैश्विक बाज़ार का विचार दुनिया तर पहुचाया, पर वो विचार असफल रहा। हमने उन्हें वसुधैव कुटुम्बकम का विचार दिया।
संस्कृत भाषा का जीवन व्यवहार में उपयोग हो
संस्कृत जानने का अर्थ है, भारत को जानना। संस्कृत जानने वाला कोई भी भाषा शीघ्र सीख सकता है। हमारी परंपरा और भाव संस्कृत भाषा से विकसित हुआ है। इसे सभी को समझना चाहिए। यदि इससे जीवन व्यवहार होता है, तो संस्कृत भी इससे विकसित होगी। शब्दों का सबसे बड़ा भंडार संस्कृत में है और यह कई भाषाओं की जननी है। देश की सभी भाषाओं का उद्गम संस्कृत में है। भाषा भी देशकाल परिस्थिति के अनुसार विकसित होती है। संस्कृत जीवन व्यवहार में लाकर हमें इसे बोलने में सक्षम होना चाहिए। संस्कृत भाषा शास्त्र की भाषा है। अपितु इसके वार्तालाप का अध्ययन किया जाना चाहिए। इसके लिए किसी संस्कृत विश्वविद्यालय से डिग्री लेना आवश्यक नहीं है। कई घर ऐसे हैं, जहाँ इसे पारंपरिक रूप से कंठस्थ किया जाता है। संस्कृत को घर-घर पहुँचाना और इसके माध्यम से वार्तालाप करना आवश्यक है। संस्कृत भाषा को राजाश्रय की आवश्यकता है। भारतीयों की अस्मिता को जागृत करने के लिए देश की सभी भाषाओं और उन भाषाओं की जननी संस्कृत का विकास किया जाना चाहिए। राजाश्रय के साथ-साथ, संस्कृत को जनाश्रय भी मिलना चाहिए। इसमें संस्कृत विश्वविद्यालयों पर एक बड़ी जिम्मेदारी है। संस्कृत को जनाश्रय मिले, इस दिशा में प्रयास हो।