·
डॉ. हेडगेवर इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हिंदू समाज का बिखरा होना ही हमारी समस्याओं का मूल कारण है।
·
सभी राष्ट्रविरोधी चुनौतियों को हराने का एक मात्र प्रभावी उपाय यही है कि सुसंगठित हिंदू मनोबल तैयार किया जाए।
विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को आज कौन नहीं जानता। भारत के कोने-कोने में आज इसकी शाखायें है। विश्व में,
जिस देश में भी हिंदू रहते हैं वहां किसी न किसी रूप में संघ का काम है। वर्तमान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश का ही नहीं अपितु विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली, अनुशासित,
सामाजिक व सांस्कृतिक संगठन है। इसकी दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती लोकप्रियता के कई कारण है। समय-समय पर स्वयंसेवकों द्वारा राष्ट्रहित के महत्वपूर्ण प्रश्नों को लेकर जनजागरण अभियान छेड़ना। राष्ट्र पर संकट की स्थिति में,
चाहे वह दैवीय हो या मानवीय। राष्ट्र की पुकार को संघ ने कभी अनसुना नहीं किया। राष्ट्रीय जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संघ की सक्रिय सचेष्ठ भूमिका के माध्यम से सशक्त आंदोलन खड़े किये जाना और उसके द्वारा लाखों-करोड़ों देश वासियों के मन तथा मस्तिष्क को आन्दोलित करना है। ऐसे महत्वपूर्ण संगठन के अरुणोदय और अभ्युदय की गाथा अनेक दृष्टिकोणों से अद्वितीय है।
इस संगठन के संस्थापक डॉ. केशवराव हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल
1889 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, वि.सम्वत् 1946) को नागपुर में हुआ था। इनके पिता श्री बलिराम हेडगेवार तथा माता श्रीमती रेवती बाई थी। केशव जन्मजात देश भक्त थे। बचपन से ही उन्हें नगर में घूमने का शौक था। उनको अंग्रेज सैनिक, सीतावर्डी किले पर फहराता अंग्रेजों का झण्डा युनियन जैक तथा विद्यालय में गाया जाने वाला गीत
”गॉड सेव द किंग“ बहुत बुरा लगता था। उन्होंने एक बार सुरंग खोदकर उस झंडे को उतारने की योजना भी बनाई, परन्तु बालपन की यह योजना सफल नहीं हो पाई। वे सोचते थे कि इतने बड़े देश पर पहले मुगलों ने फिर सात समुंदर पार से आये अंग्रेजों ने अधिकार कैसे कर लिया ? वे अपने अध्यापकों और अन्य बड़े लोगों से प्रश्न पूछा करते थे। बहुत दिनों बाद उनकी समझ में आया कि भारत में रहने वाले हिंदू असंगठित है। वे जाति, प्रांत, भाषा,
वर्ग, वर्ण आदि के नाम पर तो एकत्र हो जाते हैं पर हिंदू के नाम पर नहीं। भारत के राजाओं और जमींदारों में अपने वंश तथा राज्य का दुराभिमान तो है पर देश का अभिमान नहीं। इसी कारण विदेशी आकर भारत को लूटते रहे और हम देखते रहे। यह सब सोचकर केशवराव ने स्वयं इस इस दिशा में कुछ काम करने का विचार किया।
उन दिनों देश की आजादी के लिए सब लोग संघर्षरत थे। स्वाधीनता के प्रेमी केशवराव भी उसमें कूद पड़े। उन्होंने कोलकाता में मेडिकल की पढ़ाई करते समय क्रांतिकारियों के साथ ”अनुशीलन समिति के माध्यम ये देश की स्वाधीनता के लिए कार्य किया। वहां से नागपुर लौटकर कांग्रेस के साथ जुड़े एवं सक्रिय रहकर कार्य किया। डॉक्टर बनकर घर पहुंचे तब भी उन्होंने अपनी और परिवार की दुख सुविधाओं से मन मोड़ लिया और तत्कालीन कांग्रेस द्वारा संचालित स्वराज्य के जन आंदोलन से नाता जोड़ लिया। दो बार वे जेल गए और कठिन कारावास भोगा। अपने ओजस्वी भाषणों के लिए विख्यात डॉ. केशवराव को
1921 में एक सार्वजनिक भाषण के लिए उन पर राजद्रोह का अभियोग लगाया गया तो उन्होंने अपने बचाव में न्यायालय में तीखा विद्रोहात्मक वक्तव्य दिया। उसे सुनकर जज ने निर्णय दिया कि बचाव का तुम्हारा वक्तव्य तुम्हारे भाषण से भी अधिक राजद्रोहात्मक है और उन्हें एक वर्ष के कठोर कारावास का दण्ड सुना दिया। इसी कारावास के दौरान उन्होंने बंदीगृह में रहकर इस समय का उपयोग चिन्तन और विचार विमर्श के लिए किया। उनके मन में स्वाधीनता के लिए तीव्र छटपटाहट तो थी ही पर स्वाधीनता के बारे में प्रचलित तत्कालीन नारे और सस्ते एवं उथले उपाय उन्हें कभी नहीं भाये। उन दिनों हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई और हिंदू-मुस्लिम एकता बिना स्वराज्य नही आदि जैसे नारों का बोलबाला था। कांग्रेस को बस यही चिंता खाये जा रही थी कि किसी प्रकार मुस्लिमों को अपने पक्ष में कर लें और इसी कारण उन्हें तुष्टीकरण के फिसलन भरे मार्ग पर अग्रसर होना पड़ा। उस समय यह बात सही थी और रणनीति की मांग भी थी कि ऐसी स्थिति न आने दी जाए जिसमें एक साथ अंग्रेज और मुस्लिम दो-दो प्रतिद्वंदियों का सामना करना पड़े। अतः यह प्रयास पूर्णतः सही था कि मुस्लिमों को अंगेजों से पूरी तरह से अलग किया जाए और उन्हें राष्ट्रवादी शिविर में लाया जाए। डॉ. हेडगेवार जी ने राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लेने वाले मुस्लिमों से स्वयं घनिष्ठ और सौहार्द पूर्ण संबंध रखे। किन्तु डॉ.
साहब इस बात पर भी उतना ही जोर देते थे कि मुस्लिमों को अपने पक्ष में मिलाने के लिए राष्ट्रवाद की भावना का पलड़ा कमजोर न किया जाए। वे चेतावनी दिया करते थे कि यदि मुस्लिमों की अनुचित मनुहार किया जाएगा तो उसका फल यही होगा कि उनकी सामप्रदायिक और विघटनकारी मनोवृत्ति और भड़केगी। वे निःसंकोच भाव से कहा करते थे कि अन्ततोगत्वा मुस्लिमों से उनकी आक्रामक और राष्ट्रविरोधी प्रवृतियां छुडवायी जा सकती है। पर ऐसा तभी संभव है जब हिंदू इतने सशक्त और संगठित हो जाएं कि मुसलमान यह अनुभव करने लगे कि उनका हित इसी में है कि वे हिंदुओं के साथ राष्ट्र की मुख्य धारा में सम्मलित हो जाए।
उनके चिंतन का मूल बिंदु था कि हम हिन्दू, बल,
विद्या, बुद्धि और कला कौशल में संसार में किसी से कम न तो कभी थे और न ही आज हैं। फिर भी क्या कारण है कि दूर-दूर देशों से आये मुट्ठी भर लुटेरों ने हमें दास बना लिया और हजारों वर्ष तक हम विदेशियों के गुलाम रहे। इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए उन्होंने अपने जेल के साथियों,
नेताओं तथा अन्य बहुत से लोगों से विचार-विमर्श किया। सभी ने अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार इस प्रश्न का उत्तर दिया। परन्तु डॉ.
हेडगेवार संतुष्ट नहीं हुए और वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि हिंदू समाज का बिखरा होना ही हमारी समस्याओं का मूल कारण है। जब तक हिंदू समाज संगठित नहीं होगा, तब तक आजादी नहीं मिलेगी और यदि मिल भी गई तो ज्यादा दिनों तक टिकेगी नहीं। इसलिए हिंदू समाज का संगठित होना अतिआवश्यक है। भारतीय राष्ट्रीय भवना के मूलाधार हिंदुओं को सशक्त बनाने को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी तभी अंग्रेजों से टक्कर ली जा सकेगी और मुस्लिमों को राष्ट्रवादी धारा में लाया जा सकेगा। कांग्रेस ने इसे समझने में भारी भूल की और शीघ्र ही कड़वे फल सामने आने लगे। कांग्रेस द्वारा मुस्लिम अलगाववाद को निरंतर पाला पोसा गया, एवं राष्ट्रवाद के मेरुदण्ड,
हिंदुओं को घातक रूप से जर्जर किया गया। डॉ.
साहब को इसका पूर्वानुमान था, इसी कारण उन्होंने निश्चय किया था कि स्वाधीनता प्राप्ति के लिए केवल हिंदुओं की संगठित राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जाए। इस दूरदर्शी दृष्टिकोण से उन्होंने जहां स्वाधीनता संग्राम की ज्योति को प्रज्जलित रखा गया, वहीं साथ-साथ राष्ट्र के मेरुदण्ड को भी सुदृढ़ किया। उनके विचार स्वाधीनता प्राप्ति के तात्कालिक उद्देश्यों तक सीमित नहीं थे।
अल्पसंख्यक अधिकार का बीन बजाकर मुस्लिम अलगाववाद के सर्प को रिझाने से मसीही मिशनरियों को भी प्रोत्साहन मिला और वे खुलकर सामने आ गये हैं। उन्होंने बिहार से मिजोरम तक फैले देश के पूर्वोत्तर भागों में अपनी विघटनकारी गतिविधियां तेज कर दी है।
डॉ. हेडगेवार को पता था कि ऐसी सभी राष्ट्रविरोधी चुनौतियों को हराने का एक मात्र प्रभावी उपाय यही है कि सुसंगठित हिंदू मनोबल तैयार किया जाए। अतः उसे सुदृढ़ करने के लिए वे सदैव उत्सुक रहते थे। उन्होंने प्रयास किया कि हिंदू जागरण के आंदोलन से चोटी के तत्कालीन नेताओं और कार्यकर्ताओं को सम्बद्ध किया जाये। बाबाराव सावरकर,
भाई परमानंद, पंडित मदनमोहन मालवीय आदि जैसे प्रख्यात हिंदू नेताओं से उनके संबंध अंतरंग मित्रों जैसे बने और इन सभी के सानिध्य एवं परस्पर संवाद से संघ की कार्यपद्वति एवं स्वरूप विकसित हुआ। उस समय हिंदू समाज में अनेक संगठन कार्य कर रहे थे, परंतु उनकी दृष्टि संकीर्ण थी। वे हिंदुओं के एक विशेष वर्ग को ही संगठित करना चाहते थे। परंतु डॉ.
साहब ने सोचा कि संगठन ऐसा होना चाहिए जिसमें सभी वर्गों के हिंदू सम्मलित हो सके और साथ-साथ प्रेमपूर्वक कार्य कर सके। इसलिए उनके मस्तिष्क में भगिनी निवेदिता की एक बात गूंज रही थी कि यदि हिंदू केवल
10 मिनट भी सामूहिक प्रार्थना कर ले तो ऐसी अजेय शक्ति उत्पन्न होगी जिसे कोई तोड़ नहीं सकेगा। इसलिए डॉ. साहब ने प्रतिदिन एक निश्चित स्थान पर एकत्र होकर एक घंटे का कार्यक्रम करने का नियम बनाया और इस आलोक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अरुणोदय हुआ।
संघ का प्रारम्भ विजयदशमी के दिन सन्
1925 में नागपुर के उपेक्षित मोहितवाड़ा मैदान में 10-12 किशोर बालकों के साथ खेलकूद और व्यायाम करके डॉ. केशवराव जी द्वारा प्रारम्भ किया। उस समय कोई नाम भी नहीं रखा गया था।
‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’नाम स्थापना के तीन वर्ष बाद 1928 में रखा गया और डॉ. साहब को उनके सहयोगियों द्वारा संघ का पहला सरसंघचालक नियुक्त किया गया।
बालकों की टोली से प्रारम्भ हुआ संघ आज विशाल वटवृक्ष का रूप ले चुका है। अब यह संसार का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन है।
(नोट : ये लेखक के निजी विचार हैं)