राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी शुक्रवार को संकल्प फाउंडेशन व
पूर्व सिविल सेवा अधिकारी मंच के व्याख्यानमाला को डॉ. आम्बेडकर अंतरराष्ट्रीय केंद्र,नईदिल्ली में संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा की
पूरी दुनिया एक ओर जहाँ विश्व को बाजार मानती है वहीँ भारत एकमात्र ऐसा देश है जो
विश्व को परिवार मानने की परंपरा (वसुधैव कुटुम्बकम) में विश्वास करता है। भागवत
जी ने कहा, पश्चिमी देशों में नेशन का विकास और हमारे देश
में राष्ट्र के विकास का क्रम एकदम अलग है। हमारा नेशनलिज्म नहीं है, न ही राष्ट्रवाद है, हमारी तो राष्ट्रीयता है। आइये श्री भागवत जी के
वक्तव्यों के आलोक में भारत की आत्मा में निहित राष्ट्रीयता को विशेष रूप से समझने
का प्रयास करते हैं।
राष्ट्र शब्द की
उत्पत्ति:‘राजृ-दीप्तो’ अर्थात ‘राजृ’ धातु से कर्म में
‘ष्ट्रन्’ प्रत्यय करने से राष्ट्र शब्द बनता है अर्थात विविध संसाधनों से समृद्ध सांस्कृतिक पहचान वाला
देश ही एक राष्ट्र होता है। अमेरिका एक देश है क्यों की यूरोप की संस्कृति ने उसे
समृद्ध किया न की अमेरिका ने एक समग्र संस्कृति का विकास किया था।आज एशिया में राष्ट्र
की अभिव्यक्ति सिर्फ भारत के पास है क्यों की चीन, जापान और कोरिया तक
सभी भारत के सनातन (शैव, वैष्णव,
बौद्ध) संस्कृति से
ही सुसंस्कृत एवं सम्पन्न हुए थे।
पश्चिम के व्याकरण में राष्ट्र को परिभाषित करने
की अभिव्यक्ति ही नहीं है। नेशन शब्द का अभिर्भाव लैटिन भाषा की संज्ञा "नातिओ
(natio)" से हुआ है जिसका अर्थ है नस्ल या जाति का
विचार।नेशन से तात्पर्य है कि वह जन समूह साधारणतः समान भाषा,
इतिहास,
धर्म को मानता हो
परन्तु भारत तो शताधिक भाषाएँ बोलता है। नेशन की अवधारणा पर यूरोप का विकास हुआ एवं
जाति-नस्लों के आधार पर समाज एक दूसरे के अस्तित्व को
मिटाने हेतु सदियों तक संघर्षरत रहा। नेशन का कोई सबसे संभावित पर्यायवाची हिंदी
में है तो 'देश' है। देश शब्द की
उत्पत्ति “दिश” यानि दिशा या देशांतर से हुआ जिसका अर्थ भूगोल और सीमाओं से हैजो
नेशन के पश्चिमी विचार को परिभाषित करता है। कुल मिलाकर पश्चिम ने नेशन के गर्भ से
जन्मे अपने साम्राज्यवाद को ही राष्ट्र का पर्यायवाची मान लिया परन्तु ये सर्वथा
गलत है। नेशन विभाजनकारी अभिव्यक्ति है जबकि राष्ट्र, जीवंत,
सार्वभौमिक,युगांतकारी और हर
विविधताओं को समाहित करने की क्षमता रखने वाला एक दर्शन है।
यही कारण है की भारत
में आने वाले पश्चिमी अध्येता इस संस्कृति की सार्वभौमिक राष्ट्रीयता को जब नेशन
के चश्में से देखते हुए इसकी सीमाओं को ढूंढने का प्रयास करते हैं तो कहते हैं
भारत कभी देश नहीं था। सत्य भी है, भारत एक राष्ट्र है,
राष्ट्रीयता को आत्मसात
किये भारत जब रूस की सीमाओं से लेकर, हित्ती-मितन्नी और
ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप तक मिलता है तो इस विराटता को देश या नेशन की अवधारणा में
कैसे समेटा जा सकता है?
अरब या यूरोप की
संस्कृति, इतिहास लेखन पर टिकी है,
यदि आज कुरआन या
बाइबिल को अरब और यूरोप से हटा दिया जाय तो उनकी पूरी धार्मिक,
सांस्कृतिक विरासत
ही ख़त्म हो जाएगी परतु भारत जैसे राष्ट्र की समग्रता तो किसी एक ग्रन्थ के हटा
देने पर भी वैदिक, औपनिषदिक,
शैव,
शाक्त,
अद्वैत,
अनीश्वर आदि शताधिक
मतों के रूप में यशस्वी रहेगी। यही है एक राष्ट्र की अभिव्यक्ति जिसे पश्चिम ने
नेशन से जन्में एक भाषा, एक धर्म,
एक पूजा पद्धति के
साम्राज्यवादी ढांचे से व्यक्त नहीं किया जा सकता और अलग अलग विविधताओं को समेटकर
राष्ट्र की अभिव्यक्ति में अपना भारत हजारों सालों से यशस्वी हो रहा है। भारत कभी
सीमाओं के निर्धारण, इतिहास बोध और
भूभागों को जीतने और बांटने जैसे छोटे लक्ष्यों पर नहीं टिका रहा। भारत में भगवान
राम का जीवन चरित्र सहस्रों बार अपनी अपनी अभिव्यक्ति के अनुसार लिखा जाता रहा।
तुलसीदास या कम्बन से वाल्मीकि के रामायण को कोई संकट नहीं है,
यह राष्ट्रीयता है।
क्या अब्राहमिक धर्मों की पुस्तकों में किसी भी प्रकार का कोई बदलाव किया जा सकता
है? यह नेशन का साम्राज्यवाद है।
वेदों में राष्ट्रीयता:
भारतीय के
सांस्कृतिक वैभव एवं दर्शन के एक प्रमुख स्थान श्री दक्षिणेश्वर मंदिर, कलकत्ता के दीवारों
पर वेद-शास्त्रों के सुभाषित अंकित हैं उनमे से एक वैदिक
मन्त्र ने मुझे आकर्षित किया यह था यजुर्वेद का “राष्ट्राभिवर्द्धन मन्त्र” है जो
इस प्रकार है;
ॐ आ ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्
आराष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो
जायताम्
दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः
पुरन्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः
सभेयो युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्
निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न
ओषधयः
पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम्॥
-शुक्ल यजुर्वेद;
अध्याय 22, मन्त्र 22
अर्थ:हे ब्रह्म, हमारे देश में विद्वान
समस्त वेद आदि ग्रंथों से दैदिव्य्मान उत्पन्न हों। शासक, पराक्रमी, शस्त्र और
शास्त्रार्थ में निपुण और शत्रुओं को अत्यंत पीड़ित करने वाले उत्पन्न हों। गौ, दुग्ध देने वाली और
बैल भार ढोने वाला हो। घोड़ाशीघ्र चलने वाला और स्त्री बुद्धिमती उत्पन्न हो।
प्रत्येक मनुष्य विजय प्राप्ति वाले स्वाभाव वाला, रथगामी और सभा
प्रवीण हो।इस यज्ञकर्ता के घर विद्या, यौवन सम्पन्न और
शत्रुओं को परे फेंकने वाले संतान उत्पन्न हों। हमारे देश के मेघ इच्छा-इच्छा पर
बरसें और सभी औषधियां (अन्न) फल वाले होकर
पकें। हमारे राष्ट्र के प्रत्येक मनुष्य का योग और क्षेम उसके उपभोग हेतु पर्याप्त
हो।
वैदिक काल में भी भारत की राष्ट्रीयता न केवल
मानवों अपितु पशुओं, जीवों,
कृषि,
वनों आदि के कल्याण
की कामना करता है।
कौटिल्य के अनुसार राष्ट्र:
कौटिल्य के अनेक
स्थानों में देश के स्थान पर राष्ट्र शब्द का प्रयोग इसलिए किया है क्यों की सिर्फ
भूगोल से समाज और राष्ट्र का निर्माण नहीं होता है।राष्ट्र में जिन जिन वस्तुओं का
होना अनिवार्य है उनका उल्लेख करके कौटिल्य ने उन गौण वृत्तियों वाले अवयवों जैसे कृषि,
धान्य,उपहार,
कर,
वाणिज्-लाभ,
नदी-तीर्थादि-लाभ
एवं पत्तन आदि लाभ, सब राष्ट्र के लिए
आवश्यक बतलाये गए हैं। राष्ट्र में जिन जिन वस्तुओं का होना आवश्यक है, जिन विशेषणों से
विशिष्ट होने से देश, राष्ट्र हो सकता है,
उनका निर्देश भी
कौटिल्य ने किया है।
जिस देश की रक्षा
सीमावर्ती पर्वत, अरण्य,
नदी,
समुद्र आदि भौगोलिक साधनों
से सुगम हो, वह देश स्वारक्ष होकर राष्ट्र है। जो देश कृषि,खनिज द्रव्य,
हस्ती,
अरण्य आदि से युक्त,
गोवंश के लिए अनुकूल,पुरुषों को हितावह,
सुरक्षित गोचर
भूमियुक्त, विविध पशुओं से संपन्न हो,
यथासमय जिसमें वर्षा
हो एवं जो जल-स्थल के विविध मार्गों से युक्त हो , वह राष्ट्र है। सारभूत,आश्चर्यपूर्ण,
अत्यंत पवित्र
तीर्थादि से युक्त, दंड एवं कर आदि को
सहन कर सकने वाला, कर्मशील शिल्पी एवं
किसानों से युक्त, बुद्धिमान गंभीर
धार्मिक स्वामी से युक्त, वैश्य-शूद्रादि
वर्णों के लोग जिस देश में पर्याप्त हो, वहां राजभक्त,
पवित्र,
निष्कपट एवं धार्मिक
बन निवास करते हों, ऐसी जनपद-सम्पत से
युक्त देश राष्ट्र है। कामन्दक आदि नीतिशास्त्रों ने भी इन्हीं बातों का वर्णन
अपने ग्रंथों में किया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्र की संकल्पना:
राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ इसी महान राष्ट्रीयता की संकल्पना के आधार पर जब भारत को परिभाषित करते हुए
इस्लाम और इसाइयत को भी इसी राष्ट्र की महायात्रा में शामिल होने की बात करता है
तो साम्राज्यवादी मानसिकता से उपजे वैचारिक दैन्य के कारण छद्म बुद्धिजीवियों में
हंगामा खड़ा हो जाता है। यदि आज भारत के मुस्लिम और इसाई,
मस्जिद या चर्च जाते
हुए भी इस बात में विश्वास करें की वो जिस भारत में सुख और सम्मान से जीवन जी रहे
हैं उसके प्राचीन गौरव, सहिष्णुता और
सामाजिक साहचर्य ने ही उन्हें इस समाज में उनके धार्मिक स्वरुप को स्वीकार करते
हुए अपना पडोसी मान लिया तो वह संघ के इस दर्शन को बेहतर ढंग से समझ पाएंगे।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जब कहता है की हमारे पूर्वज एक हैं एवं पूजा पद्धति बदलने भर से हमारा इतिहास, साझी विरासत और पूर्वज नहीं बदल जाते तो इसे देश के मुसलमानों एवं ईसाईयों को स्वीकार करना चाहिए क्यों की यह संघ का कोई नया दर्शन या एजेंडा नहीं है अपितु वैदिक काल से चले आ रहे राष्ट्रीयता के भाव की मूक भारतीय अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति समय समय पर भारत की आत्मा में निहित राष्ट्रीयता के भाव ने सिद्ध भी किया है जिसका उदाहरण हैं इस देश में आये यहूदी, पारसी एवं कई अन्य धर्मों के लोग जो यहाँ पुष्पित पल्लवित हुए।न केवल भारत को अपितु संसार के सभी देशों को विश्व शांति हेतु इसी राष्ट्रीयता के भाव का पोषण करना चाहिए।
लेखक सांस्कृतिक विषयों के जानकार
हैं।
(नोट : ये लेखक के निजी विचार हैं)