सबका साथ, सबके विकास का विचार लेकर चले थे दीनदयाल जी
हम विदेशी परिस्थिति एवं विदेशी चित्त में उत्पन्न विचारों का अध्ययन तो करें, किंतु स्वतंत्र भारत की विचारधारा का स्रोत तो भारतीय चित्त ही होना चाहिए।“
भारतीय समाज से यह आह्वान करने वाले पं. दीनदयाल उपाध्याय अपनी विचारधारा ‘भारतीय नैरेटिव सर्वोपरी’ के अपने समय के सबसे बड़े ब्रांड अम्बेस्डर थे। अपनी विचारधारा को पुष्ट करने के लिए पत्रों का संपादन, प्रकाशन, स्तंभ लेखन, पुस्तक लेखन उनकी रुचि का विषय था। उन्होंने अपनी बात समाज के बीच ना सिर्फ लिखकर बल्कि एक प्रखर वक्ता बनकर भी पहुंचाई। इक्कीसवीं सदी के तीसरे दशक की तरफ बढ़ते हुए आज विचारधारा के नए रंगरुट विभिन्न फेस्टीवल्स और सोशल मीडिया लाइव में बार बार इको सिस्टम और नैरेटिव की बात करते हुए दिखाई देते हैं। दीनदयाल जी जब इस विचार के साथ राष्ट्र प्रबोधन का संकल्प लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े, देश आजाद भी नहीं हुआ था। कांग्रेस जो राष्ट्रवादी विचार के साथ खड़ी हुई थी, धीरे धीरे अपने विचार से दूर जा रही थी। उस पर पंडित जवाहर लाल नेहरू की समाजवादी का विचारधारा का असर साफ दिखाई देने लगा था।
कांग्रेस पर हमेशा रहा लंदन का प्रभाव: तथ्य यह भी है कि कांग्रेस को बनाने और गढ़ने वाले एओ ह्यूम थे। इसलिए कांग्रेस के ऊपर लंदन का प्रभाव हमेशा रहा। उसी प्रभाव का असर था कि देश की आजादी की तारीख तय करते हुए ब्रिटेन की पसंद को प्राथमिकता दी गई, 15 अगस्त वही तारीख है जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान ने हार मानकर आत्मसमर्पण (15 अगस्त 1945) किया था। अब वैश्विक परीप्रेक्ष्य में जब भी भारत की आजादी की तारीख का जिक्र होता है, उसके साथ ब्रिटेन के सामने जापान के घुटने टेकने की बात भी आ ही जाती है। जबकि उस समय के कई ज्योतिषियों ने 15 अगस्त को अपशकुन भी बताया था। सिर्फ अंग्रेज हुक्मरानों को खुश करने के लिए जवाहर लाल नेहरु ने बंटवारे की बात और उसकी तारीख को स्वीकार किया। इतना ही नहीं, पंडित नेहरू प्रधानमंत्री बनने की इतनी जल्दी में थे कि अंग्रेज सरकार के अफसर भारत की आजादी के बाद भी भारत में हुक्मरान बनकर बैठे रहे, उन्हें फर्क नहीं पड़ा। लुई माउंटबेटन आजाद भारत के पहले गवर्नर जनरल बनाए गए। मतलब एक अंग्रेज आजादी मिलने के बाद भी प्रधानमंत्री नेहरू की सरकार में भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया। बात इतने भर की नहीं थी, 03 जून 1947 को वायसराय लुई माउंटबेटन ने बताया कि भारत विभाजन पर भारत और पाकिस्तान में सहमति बन गई है। यह सुनने के बाद वहां मौजूद कांग्रेस के सभी नेताओं ने खूब ताली बजाई। उन्हें मानो भारत के बंटवारे का कोई दुख ही नहीं था। पिछले दिनों पंडित नेहरू की विरासत संभाल रहे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने जब भारत मां की हत्या की बात की तो सारे कांग्रेसी ताली बजा रहे थे। भारत के बंटवारे और भारत मां की हत्या की बात पर ताली बजाने वाली कांग्रेसी मानसिकता का विरोध दीनदयालजी ने आजीवन किया। इस विचार के प्रसार के लिए उन्होंने संघर्ष किया। जब कांग्रेस जैसी राष्ट्रवादी पार्टी पंडित जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद वाम और समाजवाद की राह पकड़ चुकी थी। नेहरू से लेकर बाद में आई तमाम कांग्रेसी सरकारें पश्चिम की तरफ ही देखती रही। भारतीय शासन से लेकर शिक्षा और संस्कृति पर पश्चिम का प्रभाव साफ दिखने लगा। ऐसे में राष्ट्रवादी विचार को लेकर चलने वाले हर एक व्यक्ति को दबाने की हर तरह से कोशिश की गई। किसी भी देश की राजनीतिक निष्ठाएं एक रात में नहीं बदलती। उसे बदलने में दशकों और कई बार सौ साल भी लगते हैं। दीनदयाल उपाध्याय, डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, नरेंद्र मोदी तक पहुंची यह राजनीतिक विचार यात्रा साधारण नहीं है। इस विचार यात्रा में शामिल और अपना जीवन खपाने वाले विचारकों और प्रचारकों के साथ साथ लाखों अनाम वैचारिक संघर्ष में शामिल स्वयंसेवकों और वैचारिक मित्रों को अब याद किया जाना चाहिए।
सोशल मीडिया युग में दीनदयाल जी के विचार की प्रासंगिकता: आजादी के अमृत महोत्सव में देश ने उन क्रांतिकारियों को देश भर में तलाशने का एक महत्वपूर्ण टास्क अपने जिम्मे लिया, जिन्होंने इस राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया लेकिन उनका जिक्र हमारे टेक्स्ट बुक या आजादी दीलाने वाले योद्धाओं की कहानियों में शामिल नहीं हो पाया। उनकी कहानी अपने जिले अथवा कस्बे में सीमट कर रह गई। उन्हें राष्ट्रीय पटल पर लाने का काम आजादी के अमृत महोत्सव में हुआ है। असम के लाचित बरफूकन हो या फिर झारखंड के सिधु कान्हू और बिरसा मुंडा या फिर छत्तीसगढ़ के गुंडा धूर, अब देश इन नामों से परिचित हो रहा है।
आज के इंस्टाग्राम, एक्स संदेश, यू ट्यूब लाइव के सोशल मीडिया युग में दीनदयालजी के विचार की प्रासंगिकता पर यदि हम विचार करें तो बीते आठ सालों में एक व्यापक अंतर दिखाई देता है। वे जिस विचार की श्रृंखला खड़ी करके गए थे, वे आज होते तो देखकर खुश ही होते कि उनके द्वारा लगाया गया बिरवा, अब वटवृक्ष हो गया है। उनका विचार आगे की तरफ बढ़ रहा है और भारतीयता के विचार को छोड़कर पश्चिम की तरफ देखने वाला कांग्रेस सत्ता के साथ अपनी चमक के साथ दमकता रहा लेकिन ऐसे समय में भरोसा करना कठिन है कि दीनदयाल उपाध्याय जैसे साधारण कद-काठी और सामान्य से दिखने वाले मनुष्य ने अंग्रेजों के जाने के बाद भारत की सत्ता पर काबिज अंग्रेजियत से भरी वामपंथी इको सिस्टम वाली कांग्रेसी सरकार के चुनौती को स्वीकार किया और उन्होंने भारतीय राजनीति और समाज को एक ऐसा वैकल्पिक विचार और दर्शन प्रदान किया, जिससे प्रेरणा लेकर हजारों युवाओं की एक ऐसी लड़ी तैयार हुयी, जिसने इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भारतीय राजसत्ता में अपनी गहरी पैठ बना ली।
खंडित दृष्टि: इस तरफ या उस तरफ वाले विचार: दीनदयाल जी ने कभी नहीं कहा कि पश्चिम की बहसों में कुछ सीखने के लिए नहीं है, उनसे भी सीखा जा सकता है। लेकिन वे साथ ही साथ मानते थे कि हमें पश्चिम के द्वंदमूलक निष्कर्षों का अनुयायी नहीं बनना है। प्रकृति बनाम मानव, भौतिकवाद बनाम अध्यात्म, स्टेट बनाम चर्च, रिलिजन बनाम सांइस जैसे इस तरफ या उस तरफ वाले विचार को वे खंडित दृष्टि मानते थे। यह भारत में कांग्रेस राज का समय था। वे अपने कारखाने से वामपंथी इको सिस्टम वाले लेखक और विचारकों का उत्पादन कर रहे थे, जिससे देश में एक खास तरह का नैरेटिव स्थापित हो। वे इसमें दशकों तक सफल हुए। यह समय ऐसा था जब जनसंघ की आवाज अधिक लोगों तक नहीं पहुंच रही थी। कहने के हर एक माध्यम पर कांग्रेसियों और उनके वामपंथी इको सिस्टम का कब्जा था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों के बीच मौलिक भारतीय चिन्तन के आधार पर विकल्प देने की जिम्मेदारी दीनदयालजी ने स्वयं स्वीकार की। भारतीय जनसंघ की पहली पीढ़ी के सभी कार्यकर्ता इस काम में लगे। 1959 का पूना अभ्यासवर्ग, 1964 का ग्वालियर अभ्यास वर्ग तथा 1964 के संघ शिक्षा वर्गों का इस दृष्टि से विशेष महत्व है। इन वर्गों में परिपक्व हुये विचारों को दीनदयाल जी ने सिद्धांत और नीति प्रलेख में ‘एकात्म मानववाद’ नाम से प्रस्तुत किया। 1965 में भारतीय जनसंघ के विजयवाड़ा वार्षिक अधिवेशन में इसे मूल दर्शन के रूप में स्वीकार किया गया तथा 1985 में भारतीय जनता पार्टी ने भी इसे अपने मूल दर्शन के रूप में स्वीकार किया। दीनदयालजी ने बताया कि राष्ट्रीय विचार, मानव बनाम प्रकृति नहीं बल्कि मानव के साथ प्रकृति की एकात्मता का विचार है। भौतिक बनाम अध्यात्मिक नहीं बल्कि इन दोनों की एकात्मता का विचार है। भारत में इसे धर्म कहा गया है ‘यतो अभ्युदय निःश्रेयस संसिद्धि स धर्म।’ अर्थात् यह व्यष्टि, समिष्ट, सृष्टि व परमेष्ठी की एकात्मता का विचार है।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ को याद करते हुए लिखूं तो पश्चिमी चमक दमक को और चमकाने के लिए कांग्रेस ने पिछले सात दशकों में इतना मांजा है कि अब उस चमक दमक का मुलम्मा ही उतर चुका है। आज का युवा पश्चिम बनाम भारतीय के जाल में पड़कर फिर वामपंथी इको सिस्टम के जाल में फंसने को तैयार नहीं है। वह समेकित और एकात्मता के विचार को समझ चुका है। दीनदयालजी के ही विचार को प्रधानमंत्री मोदी अपने शब्दों में जब अभिव्यक्त करते हैं तो वह सबका साथ सबका विकास बन जाता है।