संघ संस्मरण
वर्ष 1939 में गुरुजी की भाऊ साहब माडखोलकर, जो एक प्रसिद्ध मराठी लेखक और दैनिक समाचार पत्र तरुण भारत के संपादक थे, से एक विस्तृत चर्चा हुई जिसमें डॉक्टर हेडगेवार भी उपस्थित थे। माडखोलकर उस चर्चा के विषय में लिखते हैं कि मैंने श्री गुरुजी से पूछा कि आपने स्वामी विवेकानंद के गुरु भाई से दीक्षा प्राप्त की और उसके बाद आश्रम छोड़कर संघ की ओर पहल की, यह कैसे हुआ? क्या आपको नहीं लगता कि संघ का उद्देश्य आश्रम के उद्देश्य से बिल्कुल अलग है? माडखोलकर लिखते हैं कि श्री गुरुजी ने इस प्रश्न को सुनकर आँखें बंद कर ली और कुछ समय बाद धीरे-धीरे बोलना प्रारम्भ किया, उन्होंने कहा “यह एक आकस्मिक प्रश्न था, परन्तु संघ तथा आश्रम की संस्थिति में कोई प्रथक्कता है या नहीं, डॉक्टर जी इसके प्रति अधिक विस्तार से बता पाएंगे, क्योंकि क्रान्तिकारी आन्दोलन के समय कलकत्ता में थे और उनकी गतिविधियों में गहनता से जुड़े रहे थे। आपने भगिनी निवेदिता की वह पुस्तक अवश्य पड़ी होगी, जिसका शीर्षक है ‘सकारात्मक हिन्दुत्व’। मुझे पूर्ण विश्वास है, आपको यह भी पता है कि वह क्रान्तिकारियों से किस प्रकार गहरे जुड़ी थीं। शुरू ही से मेरा झुकाव दोनों तरफ था- एक ओर तो आध्यात्मिकता और दूसरी ओर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का कार्य। मेरे बनारस, नागपुर और कलकत्ता प्रवास के दौरान मैंने यह जाना कि अगर मैं संघ में रहता हूँ, तो मैं इस कार्य को अधिक प्रभाव पूर्ण ढंग से कर सकता हूँ। इसलिए मैंने खुद को संघ के हवाले कर दिया। मैं समझता हूँ, जो मैं कर रहा हूँ, वह स्वामी विवेकानंद के दर्शन, मार्गदर्शन और विधियों के अनुरूप है। अन्य किसी भी महान व्यक्तित्व की जीवनी ने मुझे इतना प्रभावित नहीं किया है। मेरा मानना है कि संघ का कार्य करते हुए मैं सिर्फ उन्हीं के कार्य को आगे बढ़ाऊँगा।‘’
।। पुस्तक- 5 सरसंघचालक (पृष्ठ- 73) लेखक- अरुण आनंद ।।