भीषण खतरे की चेतावनी है चरम मौसमी बदलाव
मौसमी बदलाव ने पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लिया है। मौसमी चक्र में आ रहा यह अप्रत्याशित परिवर्तन न केवल जलवायु परिवर्तन का संकेत है, बल्कि इसके दुष्परिणाम अब हर स्तर पर स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों में देश ने कहीं जरूरत से ज्यादा तो कहीं बेहद कम बारिश का सामना किया है। लगातार वर्षा और हिमपात ने मैदानी और पर्वतीय इलाकों में गर्मी से राहत तो दी है, लेकिन लोगों की परेशानियां बढ़ा दी हैं। चार दशक बाद अक्टूबर के पहले हफ्ते में ही उत्तराखंड की पहाड़ियां बर्फ से ढक गईं। लोग अक्टूबर में ही दिसम्बर जैसी सर्दी महसूस कर रहे हैं। पर्वतीय राज्यों में हिमपात से जनजीवन प्रभावित है। वैज्ञानिक इसे पश्चिमी विक्षोभ का परिणाम मानते हैं। भारत जलवायु जोखिम सूचकांक 2025 में सबसे अधिक प्रभावित देशों में शामिल है। 1993 से 2022 के बीच सूखे, लू और अन्य चरम मौसमी घटनाओं से देश में 80 हजार से अधिक लोगों की मौत हुई और लगभग 180 अरब डॉलर का आर्थिक नुकसान हुआ। हाल ही में सांख्यिकीय एवं कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट ”एनविस्टेट्स इंडिया 2025-पर्यावरण सांख्यिकी“ के अनुसार, पिछले 25 वर्षों में चरम मौसमी घटनाओं में 269 प्रतिशत की विस्फोटक वृद्धि दर्ज की गई है। यह केवल मानवीय क्षति ही नहीं दिखाती, बल्कि जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभावों के प्रति चेतावनी भी है। इस बार मानसून ने देश के अधिकांश हिस्सों में कहर बरपाया। अप्रत्याशित वर्षा के चलते बाढ़ और जलभराव ने सामान्य जीवन अस्त-व्यस्त कर दिया। उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पंजाब जैसे पर्वतीय राज्यों को इसका सबसे अधिक खामियाजा भुगतना पड़ा। मैदानी इलाकों में लगातार वर्षा के कारण जलभराव की समस्या बनी रही, तो वहीं राजस्थान तक में आफत की बारिश ने परेशान किया। दो सक्रिय पश्चिमी विक्षोभ, हरियाणा में चक्रवाती स्थितियां और बंगाल की खाड़ी में बने निम्न दबाव के क्षेत्र ने मिलकर स्थिति को और गंभीर बना दिया।
हिमालयी राज्यों में भूस्खलन की घटनाओं में तेजी का मुख्य कारण अनियंत्रित निर्माण है। बिना योजना के पर्यटन, सड़क और बांध परियोजनाओं ने पहाड़ों की स्थिरता पर गहरा असर डाला है। आपदा प्रबंधन की अपर्याप्तता और जनजागरूकता की कमी ने इन त्रासदियों को और बढ़ाया है। अब यह स्पष्ट हो गया है कि भारतीय मानसून की प्रकृति बदल चुकी है कभी सूखे जैसी स्थिति तो कभी रिकॉर्ड तोड़ वर्षा अब आम बात बन चुकी है। महासागरीय परिस्थितियां और क्षेत्रीय दबाव तंत्र मानसून को अप्रत्याशित बना रहे हैं। इस बार दो पश्चिमी विक्षोभों का लंबे समय तक सक्रिय रहना और बंगाल की खाड़ी में निम्न दबाव क्षेत्र का बने रहना विनाशकारी बारिश का कारण बना। अनियोजित शहरीकरण, जल निकासी की कमी और कमजोर आधारभूत ढाँचे ने नुकसान को बढ़ाया। इसके साथ ही, ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन, वनों की कटाई और औद्योगिक प्रदूषण वैश्विक तापमान को निरंतर बढ़ा रहे हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट बताती है कि मानवीय गतिविधियों से उत्सर्जित गैसों ने गर्मी की लहरों, असामान्य वर्षा और चक्रवातों की तीव्रता को कई गुना बढ़ा दिया है। पृथ्वी की धुरी लगभग 23.5 डिग्री झुकी हुई है, जिसके कारण पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों को वर्ष भर अलग-अलग मात्रा में सूर्य की किरणें मिलती हैं। यही झुकाव ऋतुओं में परिवर्तन का मूल कारण है। यह कोण लगभग हर 41,000 वर्षों में 22.1 डिग्री से 24.5 डिग्री के बीच बदलता है। जब यह कोण बढ़ता है, तो गर्मियां अधिक गर्म और सर्दियां अधिक ठंडी हो जाती हैं। वैज्ञानिक अनुमान लगा रहे हैं कि वर्तमान दर से ऊर्जा उपयोग और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के चलते अगले दो दशकों में वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ सकता है। यह पेरिस समझौते के उस लक्ष्य को असंभव बनाता दिख रहा है, जिसमें तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से दो डिग्री नीचे रखने की बात कही गई थी।
तेजी से बढ़ता तापमान आर्कटिक की बर्फ को पिघला रहा है, जिससे समुद्र के स्तर में वृद्धि और पारिस्थितिक असंतुलन की आशंका बढ़ रही है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यदि यह रुझान जारी रहा तो अगले 20-30 वर्षों में अटलांटिक महासागर की प्रमुख परिसंचरण प्रणाली। जसंदजपब डमतपकपवदंस व्अमतजनतदपदह ब्पतबनसंजपवद बाधित हो सकती है, जिसका सीधा असर विश्व के मौसम पर पड़ेगा। वायुमंडलीय दबाव, तापमान और आर्द्रता में होने वाले बदलाव भी मौसमी अस्थिरता को बढ़ा रहे हैं। उच्च दबाव से निम्न दबाव की ओर चलने वाली हवाएं उष्मा और नमी को स्थानांतरित करती हैं, जिससे भारी वर्षा या सूखा जैसी चरम घटनाएं घटित होती हैं। मौजूदा मौसमीय उतार-चढ़ाव महासागरीय घटनाओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। प्रशांत महासागर में एल-नीनो कमजोर पड़ रहा है और ला-नीना की संभावना बढ़ रही है, जिसने मानसून को इस वर्ष असामान्य रूप से सक्रिय किया। यही कारण था कि सितंबर में भीषण वर्षा की भयावहता देखने को मिली। अत्यधिक तापमान और चरम मौसमी घटनाएं मानव स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं। लगातार बढ़ती गर्मी न केवल कमजोर वर्गों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है, बल्कि नींद, कार्यक्षमता और मानसिक संतुलन को भी बाधित कर रही है। जलस्रोत सूख रहे हैं, जिससे उनसे जुड़े जीव-जंतु और पारिस्थितिक तंत्र संकट में हैं। सूखे और गर्मी के कारण आग लगने के खतरे बढ़े हैं, जबकि बाढ़ और वर्षा से कृषि उत्पादन पर भी गंभीर असर पड़ा है।
सामाजिक दृष्टि से देखा जाए तो महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग ऐसे मौसमीय बदलावों से सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। गर्मी की लहरें हृदय रोगों और श्वसन तंत्र से जुड़ी बीमारियों को बढ़ाती हैं, जबकि बाढ़ जैसी स्थितियां संक्रामक रोगों के प्रसार का कारण बनती हैं। इन परिस्थितियों में देश की स्वास्थ्य एजेंसियों और स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी कई गुना बढ़ जाती है। वर्तमान समय में मौसमी बीमारियां जैसे डेंगू, मलेरिया, वायरल संक्रमण और टायफायड तेजी से फैल रहे हैं। डब्ल्यूएचओ के अनुसार, हर साल विश्वभर में लगभग 6.5 लाख लोग इन्फ्लूएंजा के कारण मृत्यु को प्राप्त होते हैं। अमेरिका की स्टैनफोर्ड और हार्वर्ड विश्वविद्यालयों के शोधार्थियों के अनुसार, एशिया और अमेरिका के 21 देशों में 1995 से 2014 के बीच जलवायु परिवर्तन के चलते डेंगू के मामलों में 18 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस अवधि में हर साल औसतन 46 लाख नए मामले सामने आए। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अगले 25 वर्षों में इनकी संख्या तीन गुना से अधिक हो सकती है। भारत में भी डेंगू, चिकनगुनिया और मलेरिया जैसी बीमारियां जलवायु परिवर्तन की वजह से अपने प्रसार क्षेत्र बढ़ा रही हैं। बढ़ते तापमान और असामान्य वर्षा ने मच्छरों के प्रजनन चक्र को और तेज कर दिया है। स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यों को सतर्कता बरतने के निर्देश दिए हैं, लेकिन असली चुनौती मच्छरों को पनपने से रोकने और जन-जागरूकता बढ़ाने की है। अगर निवारक उपाय समय रहते नहीं अपनाए गए, तो मौसम से जुड़ी बीमारियों का खतरा गंभीर रूप ले सकता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि जलवायु परिवर्तन वायुमंडल को गर्म कर रहा है और उसकी नमी धारण क्षमता बढ़ा रहा है। इसी से भारी वर्षा, चक्रवात और ताप लहरों की आवृत्ति बढ़ रही है। वैज्ञानिक लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि यदि तुरंत और समन्वित वैश्विक कदम नहीं उठाए गए, तो आने वाले दशकों में पृथ्वी का पारिस्थितिक संतुलन स्थायी रूप से बिगड़ सकता है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह खतरा और बड़ा है क्योंकि यहां जनसंख्या घनत्व अधिक है, संसाधन सीमित हैं और आपदा प्रबंधन प्रणाली अभी भी कमजोर है। जरूरत इस बात की है कि हम विकास की नीतियों में जलवायु दृष्टिकोण को शामिल करें, अनियोजित निर्माण पर रोक लगाएँ और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण को सर्वाेच्च प्राथमिकता दें।
अंततः यह समझना जरूरी है कि मौसम के इन चरम बदलावों के पीछे केवल प्राकृतिक नहीं अपितु मानवीय कारण भी समान रूप से जिम्मेदार हैं। यदि हमने अपने जीवन और विकास के तौर-तरीके नहीं बदले, तो आने वाले वर्षों में यह संकट और भी विकराल रूप ले सकता है। समय रहते कदम उठाना ही हमारे और आने वाली पीढ़ियों के अस्तित्व की गारंटी है।




