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पलायन से परिवर्तन तक: सरकोट की आत्मनिर्भरता की मिसाल

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सरकोट, उत्तराखण्ड 

गढ़वाल हिमालय की गोद में बसा सरकोट कभी उत्तराखण्ड के उन गांवों में गिना जाता था, जहां की सड़कों पर वीरान और सन्नाटा ही पहचान बन चुका था। हर ओर खाली होते मकान, बंद दरवाजे और पलायन की पीड़ा पसरी रहती थी। लेकिन अब वही सरकोट उम्मीद, आत्मनिर्भरता और पुनर्जन्म की प्रेरक गाथा सुना रहा है। यह कहानी केवल एक गांव की नहीं, अपितु उस सोच की है जो यह साबित करती है कि यदि संकल्प मजबूत हो और प्रयास सामूहिक हो तो किसी भी गांव का भाग्य बदला जा सकता है। सरकोट का कायाकल्प एक सुनियोजित योजना और ग्रामीणों की साझेदारी से संभव हो पाया। सबसे पहले गांव की मूलभूत जरूरतों की ओर ध्यान दिया गया सड़कें, बिजली, पानी और जीवन की बुनियादी सुविधाएं। इन व्यवस्थाओं के दुरुस्त होते ही गांव की रगों में फिर से जीवन दौड़ पड़ा। लोगों ने महसूस किया कि अब यहां रहकर भी भविष्य संवर सकता है। गांव से शहरों की ओर भागते कदम रुकने लगे और लौटने लगे।

इस बदलाव की असली बुनियाद बनी मशरूम की खेती और बागवानी। गांव की महिलाओं और युवाओं को वैज्ञानिक पद्धति से मशरूम उत्पादन का प्रशिक्षण दिया गया। कुछ ट्रे में शुरू हुई खेती आज व्यापारिक स्तर तक पहुंच गई है। सरकोट के मशरूम अब गैरसैंण के बाजारों में बिक रहे हैं और गांव की अर्थव्यवस्था को नई ऊर्जा दे रहे हैं। इसने ग्रामीणों को आत्मनिर्भर बनने का अवसर देने के साथ ही उनके आत्मविश्वास को भी नई उड़ान दी।

मशरूम के साथ-साथ गांव के लोग अब बागवानी की ओर भी बढ़ रहे हैं। बेर, आड़ू, सेब जैसे फलदार पौधों की छांव अब केवल पहाड़ की मिट्टी नहीं, अपितु स्वप्न को भी सींच रही है। छतों पर, खाली पड़ी भूमि पर इन पेड़ों को लगाकर ग्रामीणों ने यह दिखा दिया है कि संसाधन सीमित हो सकते हैं, लेकिन संकल्प नहीं। इस बदलाव के साक्षी बने गांव के वही युवा, जो कभी शहरों की चकाचौंध में भविष्य तलाशने गए थे। आज वे सरकोट लौट आए हैं अपने गांव को स्वावलंबन की राह पर आगे बढ़ाने के लिए। सरकोट की कहानी पहाड़ के उन अनगिनत गांवों के लिए संदेश है जो पलायन से जूझ रहे हैं। यह कहानी बताती है कि थोड़ी सी नीति, थोड़ी सी नियत और बहुत सी साझेदारी से वह चमत्कार संभव है जिसकी उम्मीद खो चुकी थी। यह कहानी उस आत्मनिर्भर भारत की है, जिसकी नींव गांवों की मिट्टी से ही मजबूत बनती है।