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नारी किसी भी समाज का केवल आधा हिस्सा ही नहीं वरन
आधार होती है
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नारी लोपमुद्रा,
मैत्रेयी, गार्गी, मां शारदा जैसे व्यक्तित्व की स्वामिनी रही है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ का उद्देश्य एवं कार्य प्रक्रिया समाज परिवर्तन द्वारा समाज के उत्कर्ष की है।
संघ का वही दृष्टिकोण होता है जो हमारी सनातन सांस्कृतिक विचारधारा का दृष्टिकोण होता
है जिसमें समाज अपने उत्कर्ष पर पहुंचे और विश्वगुरु कहलाये। संघ का विचार हिन्दुत्व
का है। संघ अपने स्थापना काल से समाज जीवन में भारतीय नारी के योगदान को लेकर चिन्तित
रहा है। संघ चाहता है कि उसका प्रत्येक कार्य परिवार में चूल्हे तक पहुंचना चाहिये।
व्यवहार में प्रत्येक स्वयंसेवक इसी कार्यनिष्ठा के साथ व्यवहार रखता है। नारी किसी
भी समाज का केवल आधा हिस्सा ही नहीं वरन आधार होती है। समाज का उत्कर्ष बिना नारी के
सम्भव नहीं है।
आम जन में संघ
की पहचान हर रोज लगने वाली शाखा है। शारीरिक और बौद्धिक कार्यक्रमों द्वारा स्वयंसेवक
का चरित्र निर्माण करने वाली इन शाखाओं में स्त्रियों की प्रत्यक्ष सहभागिता नहीं है।
इस कारण संघ विरोधियों को इस अप्रचार का सूत्र मिल जाता है कि संघ में स्त्रियों का
कोई स्थान नहीं है। यद्यपि शाखा में स्त्रियां नहीं है तथापि संघ कार्य में बड़ी संख्या
में स्त्रियाँ संलग्न है। वे संघ के समानान्तर संघ जैसा व्यक्ति निर्माण करने वाली
राष्ट्र सेविका समिति का विश्वव्यापी संगठन चलाती हैं। संघ के उत्सव, प्रबोधन, बौद्धिक
जैसे सभी कार्यक्रमों में महिलायें समान रूप से उपस्थित होती हैं।
महिलाएं हिन्दू
संस्कृति की प्रतीक हैं। वह कुटुम्ब का आधार, अन्नपूर्णा, स्नेहमयी पत्नी और वात्सल्यमयी
मां है। ज्ञान और शिक्षा की ज्योति है। शक्ति रूपा हैं। वेद ऋचाओं की उसने रचना की
है। गुरुकुल की स्थापना की है, मुख्य शिक्षिका और कुलपति का भार ग्रहण किया है। वह
सैन्य गतिविधियों के संचालन में भी प्रवीण है।
वह लोपमुद्रा,
मैत्रेयी, गार्गी, मां शारदा जैसे व्यक्तित्व की स्वामिनी रही है। भारतीय संस्कृतियों
के रूप में स्त्री का विशेष स्वरूप है। आदिशक्ति से मातृशक्ति तक समष्टि को मात्र शान्ति
आधारित समाज के रूप में भारत में उसका वन्दन होता रहा है। हमारी कुटुम्ब व्यवस्था मातृ
प्रधान रही है। नैतिक पतन से अपनी तरुण पीढ़ी का बचाव करने का दायित्व माताओं पर ही
है। मां ही परिवार में ऐसा वातावरण का निर्माण कर सकती है जिससे समाज के कई दोषो से
व्यक्ति सुरक्षित रह कर देशप्रेम कर सकता है। यद्यपि पश्चिम के नारीवादी आन्दोलनों
और भारतीय स्त्री के अस्तित्व के पहचान की लड़ाई में एक आधारभूत अन्तर है। यह अन्तर
सांस्कृतिक मूल्यों और परिस्थितियों के कारण है। सांस्कृतिक अवधारणा में यही स्त्री
पुरुष के समतुल्य है। सामाजिक स्तर पर भी उसे यह स्थान प्राप्त रहा है। भगवान राम के
अश्वमेध यज्ञ किये जाने का अवसर रहा हो या आदि शंकराचार्य से शास्त्रार्थ में मण्डन
मिश्र के निरुत्तर हो जाने पर भी निर्णायिका देवी भारती द्वारा उन्हंे पराजित न घोषित
करना अन्ततः यही दर्शाता है। यहां अर्धनारीश्वर के स्वरूप को व्यवहारिकता मिली है।
शिवाजी के निर्माण में जीजाबाई की अनिवार्यता, संरक्षण एवं सानिध्य अपरिहार्य था। यही
कारण है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक सघं भारतीय नारी को स्वावलम्बन की शिक्षा देने में
राष्ट्र सेविका समिति के माध्यम से संलग्न है। यह संगठन एक विशाल वटवृक्ष का रूप ग्रहण
कर चुकी है। संस्थापिका प्रमिला ताई मेढ़े ने वर्धा में डाक्टर हेडगेवार जी से जो चर्चा
कर स्त्री शिक्षा, संस्कार, स्वावलम्बन का व्रत लिया था, आज वह कार्य ब्रिटेन, अमेरिका,
मलेशिया, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका यूरोप सहित विश्व के कई स्थानों पर छात्रावास, चिकित्सालय,
उद्योग, मन्दिर, भजन मण्डल, पुरोहिती सहित नारी संस्कार के सैकड़ों प्रकल्प चला रहा
हैं।
भारत की परम्परा
ने महिला के प्रति किसी प्रकार के भेदभाव की मान्यता नहीं दी है, अपितु उसे श्रृद्धा
व सम्मान का स्थान दिया है। ऋग्वेद में 30 से अधिक महिला मन्त्र-दृष्टाओं का उल्लेख
है तथा जीवन के सभी क्षेत्रों में उसकी सम्मानजनक सहभागिता के प्रचुर उल्लेख विद्यमान
हैं। भारतीय जीवन मूल्यों एवं परम्परा के अनुसार नारी और पुरुष को परस्पर पूरकता एवं
संचालन करते हुये राष्ट्र जीवन के विविध क्षेत्रों में अपनी-अपनी भूमिका का निर्वहन
करने का प्रमाण है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने वर्ष 2008 में संघ की
अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में नारी गरिमा को ले कर एक प्रस्ताव पारित किया था जिसमें
नारी के प्रति संघ का दृष्टिकोण एवं कर्त्तव्य क्या हो, इस पर विचार व्यक्त किया गया
था। प्रतिनिधि सभा ने यह गहराई से अनुभव किया था कि वर्तमान संस्कृति- विध्वंसक परिस्थिति
में सार्थक परिवर्तन लाने हेतु समाज की मानसिकता को भी समग्रता में बदलना होगा। केवल
सरकारी कानूनों के भरोसे बैठे रहना आत्मवंचना होगी। वर्तमान समाज में रेप और मर्डर,
तलाक लिव-इन-रिलेशन, लव जेहाद जैसी क्रूरता नारी के साथ हो रही है, यह भारतीय समाज
पर कलंक है। संघ का मत है कि समाज को यह प्रमाणिकता से अनुभव करना होगा कि उसका निर्माण
परिवार संस्था से होता है और परिवार की धुरी स्त्री होती है। स्त्री को सुविज्ञ, सजग
और सशक्त किये बिना विकसित समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। साथ ही महिलाओं के प्रति
सम्मानजनक व्यवहार की दृष्टि से परिवार, शिक्षा, मीडिया एवं समाज की मनोभूमिका में
परिवर्तन नितान्त आवश्यक है। इस सम्बन्ध में संघ के साथ समाज, नेताओं, साधुसंतों, शिक्षाकेन्द्रों
और नारीवादियों की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।
विगत दिनों
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मा. मोहन भगवत ने एक पत्रिका को दिये साक्षात्कार
में कहा था- ”हम स्त्रियों का बराबरी में योगदान चाहते हैं, उनको बराबरी में लाना पड़ेगा।
उनको सक्षम करना पड़ेगा, उनको प्रबोधन देना पडे़गा, उनको सशक्त बनाना पड़ेगा, कर्तृत्व
उनमें है, उनको बाकी मदद करने की जरूरत नहीं है। हमने जो दरवाजा बंद किया है केवल वह
खोलना पड़ेगा। आज के समय में भारतीय महिला की यह प्रतिमा है कि घर परिवार की जिम्मेदारी
के अतिरिक्त वह कुछ नहीं करेगी। घर परिवार की जिम्मेदारी के साथ वह कुछ करेगी। लेकिन
इसके लिए घर-परिवार की जिम्मेदारी में उसको कुछ राहत और जितनी वह चाहे उतनी स्वतंत्रता
उसे देनी चाहिए, तो आज की परिस्थिति में अपना यह जो स्थाई मूल्य है परिवार का, उस परिवार
में महिला का स्थान माता का है। उसकी सृजनशीलता भी है और वह शक्ति भी है। वह प्रतिभा
भी देती है और साथ में पूरी ताकत भी देती है। उसके इस स्थान को पहचान कर उसको ना तो
देवी बनाकर पूजा घर में बंद रखो और ना ही दासी बना कर उसे किसी कमरे में बंद करो। उसको
भी बराबरी से काम करने दो, जिम्मेदारी लेने दो इसके लिए उसे सशक्त बनाओ। उसे आगे बढ़ाओ।
अगर उसकी इच्छा है तो आर्थिक दृष्टि से वह संपूर्ण हो सके, ऐसी उसको सलाह दो और अवसर
दो। इस दिशा में हम थोड़े-थोड़े आगे बढ़ रहे हैं। यह हम करेंगे तो वह बराबरी से अपना सहभाग
और सहयोग करेगी। वह बराबरी से करेगी, तो पुरुषों के भार को भी वह सहज रूप से बहुत हल्का
बनाएगी। क्योंकि उनके ऐसा करने से भी हमारे यहां शक्ति का नया संचार होगा तथा हमारे
काम और आसान हो जाऐंगे। इसलिए यह बराबरी का सहभाग और बराबरी की तैयारी, महिलाओं के
बारे में यह स्थायी विचार होना चाहिए।“
संघ चाहता है
कि मातृशक्ति को उसकी वास्तविक भूमिका में खड़ा करना है तो उसे अपने ही इस राष्ट्र के
सनातन मूल्यों के आधार पर ही करना होगा। इन विषयों में बाकी दुनिया का अनुभव हमारी
तुलना में थोड़ा है। युगों-युगों से अनेक प्रकार के उतार-चढ़ाव देखते हुये सब प्रकार
की परिस्थितियों में से गुजर कर भारतीय समाज यहां तक पहुंचा है इसलिये अनुभव का समृद्ध
भण्डार हमारे पास है। जब कि दुनिया अपने प्रयोगावस्था में है। जो शाश्वत सत्य अपने
पास है उसके आधार पर ही मातृशक्ति खड़ी करना संघ का दृष्टिकोण है।
(नोट : ये लेखक के निजी विचार हैं)