कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी द्वारा ब्रिटेन में दिए बयानों का कुल निचोड़ यह है— "भारत में लोकतंत्र समाप्त है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के लोग भारतीय सत्ता-अधिष्ठान पर काबिज है। चुनाव आयोग से लेकर मीडिया, न्यायालय दवाब में है। देश में लोकतंत्र को बचाने हेतु अमेरिका और यूरोप को हस्तक्षेप करना होगा।" वास्तव में, इन वक्तव्यों में निहित चिंतन ही भारत की त्रासदी और उसके शताब्दियों तक आक्रांताओं के अधीन परतंत्र रहने का बड़ा कारण है।
वर्ष 1707 में मुगलिया आक्रांता औरंगजेब के देहांत के बाद भारत में इस्लामी हुकूमत क्षीण होने लगी थी। तब कालांतर में शाह वलीउल्लाह ने अफगान शासक अब्दाली (दुर्रानी) को भारत पर आक्रमण हेतु बुलावा भेजा, क्योंकि वह छत्रपति शिवाजी द्वारा प्रतिपादित 'हिंदवी स्वराज्य' को समाप्त करके भारत में पुन: इस्लामी राज स्थापित करना चाहता था। जब 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई हुई, तब वलीउल्लाह के निमंत्रण पर आए अब्दाली को भारत में पश्तून रोहिल्लाओं, बलूचियों, शुजाउद्दौला आदि नवाबों के साथ स्थानीय मुस्लिमों का समर्थन मिला, तो मराठा पराजित हो गए। अपने लोगों के विश्वासघात से मिली इस हार ने मराठा साम्राज्य को दुर्बल कर दिया। काफी हद तक संभलने के बाद 1803 के भीषण युद्ध में मराठा ब्रितानियों के हाथों हार गए। अंग्रेजों से मिली शिकस्त की जड़े चार दशक पहले उसी लड़ाई में मिलती है, जिसमें अब्दाली के नेतृत्व में गद्दारों के प्रहार से मराठाओं को भारी क्षति हुई थी। मराठाओं पर आश्रित पराजित मुगल, एकाएक अंग्रेजों के पेंशनभोगी हो गए। यदि 18वीं शताब्दी में 'अपनों' ने अब्दाली को बुलाया नहीं होता, तो संभवत: भारत का इतिहास कुछ और होता।
दुर्भाग्य से राहुल गांधी उसी इतिहास को दोहराने हेतु प्रयासरत है। वे विदेशी धरती पर भारतीय लोकतंत्र को कलंकित करके यूरोपीय देशों और अमेरिका से सहायता मांग रहे है। यह हास्यास्पद भी है कि जिन बाहरी शक्तियों ने भारत को सदियों तक दासता की बेड़ियों में जकड़े रखा, उन्हें से राहुल भारत को कथित रूप से बचाने का आह्वान कर रहे है। ब्रिटेन में राहुल के हालिया वक्तव्यों ने विंस्टन चर्चिल के उस विचार को सही सिद्ध कर दिया हैं, जिसमें उसने कहा था, "…भारतीय नेता बहुत ही कमजोर, भूसे के पुतलों जैसे होंगे।"
सामान्य भारतीय जानता है कि यदि विदेशियों— विशेषकर ब्रितानियों-अमेरिकियों को देश में लोकतंत्र की कथित बहाली हेतु हस्तक्षेप करने का अवसर दिया, तो यहां गुलामी का नया अध्याय प्रारंभ हो जाएगा। स्वतंत्र भारत में संसदीय निर्वाचन प्रक्रिया आज भी ठीक वैसी है, जैसी 1952 के कालखंड पश्चात थी। न्यायालय जितना पहले निष्पक्ष था, आज भी उतना है। मीडिया जितना पहले सत्ता समर्थित और विरोधी था, अब भी उतना है। कार्यपालिका भी सात दशकों से अपरिवर्तित है। फिर राहुल को देश का प्रजातांत्रिक-संवैधानिक ढांचा कमजोर होता क्यों दिखता है?
वास्तव में, राहुल गांधी उस विकृत मानसिकता से ग्रस्त है, जिसके मानसबंधुओं को भ्रम है कि वर्तमान और भविष्य तय करने का 'दैवीय विशेषाधिकार' केवल उन्हीं के पास है। इस चिंतन से ग्रस्त लोगों का मानना है कि सच्चा लोकतंत्र वही है, जिसमें 'लोक' और 'तंत्र' उनके अनुरूप संचालित हो या उनकी इच्छानुसार काम करें। यदि कतिपय कारणों से ऐसा नहीं होता, तो उनकी दृष्टि में लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा।
पाठकों को स्मरण होगा कि कैसे राहुल गांधी ने सितंबर 2013 में पार्टी की प्रेसवार्ता में अपनी ही संप्रग सरकार का अध्यादेश, दो टुकड़ों में फाड़ दिया था। इस मानसिकता का एक पुराना इतिहास है। कांग्रेस की हार पर वर्ष 1957-59 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.नेहरू ने केरल की पहली निर्वाचित सरकार को बर्खास्त कर दिया था। जब 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने चुनावी कदाचार मामले में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता को निरस्त किया, तब बदले की भावना से 13 दिन पश्चात इंदिरा ने आपातकाल घोषित करते हुए संविधान को स्थगित कर दिया। इसी तरह 1985-86 के शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बहुमत के बल पर संसद के भीतर पलट दिया। जब वर्ष 2004 में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी संवैधानिक कारणों से प्रधानमंत्री नहीं बन पाईं, तो सत्ता पर अपना 'विशेषाधिकार' अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु उन्होंने असंवैधानिक 'राष्ट्रीय परामर्श समिति' (2004-14) के रूप में समानार्थी सरकार और समानांतर संविधानेत्तर केंद्र को स्थापित कर दिया। मई 2014 के बाद से राहुल-सोनिया संवैधानिक ढंग से चुनी केंद्र सरकार के निर्णयों को रद्द या संशोधित कर पाने में असहाय और विवश है— इसलिए उन्हें भारत में लोकतंत्र खतरे में नजर आता है।
राहुल गांधी द्वारा संघ की इस्लामी कट्टरपंथी 'मुस्लिम-ब्रदरहुड' से तुलना करना, उनकी राजनीतिक अपरिपक्वता और वैचारिक द्वेष की पराकाष्ठा है। वर्तमान केंद्र और राज्य सरकारों के साथ कई सार्वजनिक संस्थानों में संघ से प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जुड़े व्यक्ति या तो निर्वाचित है या फिर निर्धारित प्रक्रिया के अंतर्गत नियुक्त। क्या राहुल यह कहना चाहते है कि भारतीय जनादेश मुस्लिम-ब्रदरहुड के कथित प्रतिरूप को मिला है?
वास्तव में, कांग्रेस का वामपंथ प्रेरित धड़ा दशकों से जिहादी अवधारणा को नगण्य करने हेतु मिथक 'हिंदू/भगवा आतंकवाद' का हौव्वा खड़ा करने पर तुला है। जब मुंबई 1993 में श्रृंखलाबद्ध बम धमाके से दहली, जिसमें 257 निरपराध मारे गए थे, तब महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री शरद पवार ने इन हमलों के पीछे की मानसिकता और हमलावरों की मजहबी पहचान से ध्यान भटकाने हेतु यह झूठ गढ़ दिया कि एक धमाका मुस्लिम बहुल मस्जिद बंदर के पास भी हुआ था, जिसमें श्रीलंकाई चरमपंथी संगठन लिट्टे का हाथ है। इस फर्जीवाड़े को शरद पवार मुखर होकर स्वीकारते है। इस प्रकार की परिपाटी को संप्रगकाल में पी.चिंदबरम और सुशील कुमार शिंदे ने केंद्रीय गृहमंत्री रहते हुए आगे बढ़ाया। इसमें दिग्विजय सिंह ने तो 2008 के 26/11 मुंबई आतंकवादी हमले का आरोप संघ पर लगाकर पाकिस्तान को क्लीन-चिट दे दी।
राहुल गांधी इस प्रकार की आधारहीन बातें करके एक तरफ जहां सुधीजनों को स्वयं से दूर कर रहे है, वही वामपंथी शब्दावलियों का प्रयोग करके अपनी वैचारिक शून्यता का परिचय दे रहे है।