औरंगजेब के मंसूबों को ध्वस्त करने वाली छत्रपति शिवाजी महाराज की पुत्रवधु वीरांगना ताराबाई भोंसले
- छत्रपति सम्भाजी को औरंगजेब ने छलपूर्वक पकड़ा था। औरंगजेब ने सम्भाजी को बलात् इस्लाम स्वीकार करने के लिए भीषण यातनाएं दीं, परंतु सफल नहीं हो सका। इसलिए सम्भाजी की जघन्य हत्या कर दी गई। इस तरह स्व के लिए सम्भाजी की पूर्णाहुति हुई थी
- सम्भाजी के छोटे भाई राजाराम को छत्रपति बनाया गया। इसके साथ ही मुगलों के विरुद्ध सन् 1689 में स्वतंत्रता संग्राम का उद्घोष हुआ। परंतु दुर्भाग्यवश 1700 में छत्रपति राजाराम का देहावसान हो गया
ताराबाई भोंसले न केवल भारत वरन् विश्व की अद्भुत एवं अद्वितीय वीरांगना हैं। वह छत्रपति शिवाजी महाराज की पुत्रवधु, छत्रपति राजाराम की धर्मपत्नी थीं। उन्होंने पति छत्रपति राजाराम की असामयिक मृत्यु के उपरांत सन् 1700 से सन् 1707 तक मराठा साम्राज्य की संरक्षिका बनकर अपनी रणनीति और कूटनीति से क्रूर मुगल आक्रांता औरंगजेब के साथ जंग लड़ी और औरंगजेब के मराठा साम्राज्य को ध्वस्त करने के सपने को चकनाचूर किया।
छत्रपति सम्भाजी को औरंगजेब ने छलपूर्वक पकड़ा था। औरंगजेब ने सम्भाजी को बलात् इस्लाम स्वीकार करने के लिए भीषण यातनाएं दीं, परंतु सफल नहीं हो सका। इसलिए सम्भाजी की जघन्य हत्या कर दी गई। इस तरह स्व के लिए सम्भाजी की पूर्णाहुति हुई थी। सम्भाजी के छोटे भाई राजाराम को छत्रपति बनाया गया। इसके साथ ही मुगलों के विरुद्ध सन् 1689 में स्वतंत्रता संग्राम का उद्घोष हुआ। परंतु दुर्भाग्यवश 1700 में छत्रपति राजाराम का देहावसान हो गया। ऐसी विपरीत परिस्थिति में चार वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय को उत्तराधिकारी बनाकर वीरांगना ताराबाई ने एक संरक्षक परिषद् बनाई और स्वयं उसकी अध्यक्षता ग्रहण की।
महाराष्ट्र में सर्वोच्च सत्ता, अधिकार और निर्देश ताराबाई के हाथों में थे। उन्होंने स्वयं अपना मंत्रिमंडल बनाया, जिसमें रामचंद्र नीलकंठ को आमात्य, धन्नाजी जाधव को सेनापति, परशुराम त्रयंबक को सेनापति और शंकर जी नारायण को सचिव नियुक्त किया गया। दूसरी ओर राजाराम की मृत्यु का संदेश सुनकर औरंगजेब अत्यधिक प्रसन्न हुआ और उसने अपने शिविर में नौबतें बजवाकर आनंद उत्सव मनाया। उसके सैनिकों और सेनानायकों ने एक-दूसरे को बधाइयां दीं, परंतु यह सब औरंगजेब का भ्रम था। ताराबाई ने सेना और प्रशासन का योग्यता, दक्षता और दृढ़ता से संचालन किया और औरंगजेब की सेनाओं के आक्रमणों का केवल मुकाबला ही नहीं किया, अपितु मुगल इलाकों में प्रत्याक्रमण कर नेस्तनाबूद भी किया। ताराबाई के नेतृत्व में मुगलों के विरुद्ध संग्राम तेज हो गया था।
राजाराम की मृत्यु से मराठों के आक्रमणों में कोई कमी नहीं आई थी, अपितु आक्रमण अधिक तीव्र, आकस्मिक और व्यापक हो गए थे। ताराबाई मुगलों के विरुद्ध सैनिक आक्रमणों को कैसे आयोजित करती थीं और इसके लिए अपने अधिकारियों को किस प्रकार प्रोत्साहित करती थीं? 17 नवंबर, 1700 को कान्हो जी जुझारराव को लिखे पत्र से इसका पता चलता है। कान्हो जी को लिखा कि – वह शीघ्र मल्हारराव से, जिन्हें सिद्धियों के विरुद्ध 7000 सैनिकों के साथ भेजा गया है, जाकर मिल जाएं। इसी प्रकार जनवरी 1702 में ऐसा ही एक पत्र प्रतापराव मोरे को लिखा गया था। उसमें संताजी पांघरे की मलकापुर के समीप मुगलों की सैनिक चौकी पर अधिकार कर लेने के लिए प्रशंसा की है और मुगलों को निरंतर परेशान करने के लिए प्रोत्साहित किया है, जिससे मुगल विशालगढ़ और अन्य मराठा दुर्गों के विरुद्ध सफलतापूर्वक कार्यवाही नहीं कर सकें। उन्होंने औरंगजेब को विश्वासघाती, षड्यंत्री और कुचक्री बताया है और प्रतापराव को हिदायत दी है कि वह औरंगजेब के विरुद्ध सदैव सतर्क रहें।
वीरांगना ताराबाई के नेतृत्व में मराठों के सेनानायक एवं सेना ने दक्षिण के सभी मुगल शासित प्रदेशों में सर्वत्र तहलका मचाया, और मुगल सैनिक टुकड़ियों को परास्त कर दिया। अगस्त 1700 में हनुमंतराव निंबालकर ने खटाव जिला मुगलों से छीन लिया और राणो जी घोरपड़े ने बागेबाड़ी और इन्दी के समृद्ध प्रदेश मुगलों से जीतकर अपने अधिकार में कर लिये। महाराष्ट्र में मुगल सैनिकों के दबाव को कम करने के लिए मराठों ने खानदेश, उज्जैन, मंदसौर और सिरोंज तक तथा गुजरात में अहमदाबाद की सीमा तक हमले किए और धन हस्तगत किया। इससे मुगलों की सैनिक शक्ति क्षीण हो गई। दुर्गों में नियुक्त मुगलों के सुरक्षा सैनिक दल भी दुर्बल हो गए। मराठों ने परशुराम त्रयंबक के नेतृत्व में बसंतगढ़, पन्हाला, पवन गढ़ और सन् 1704 में अन्नाजी पंत की वीरता से सतारा दुर्ग मुगलों से जीत लिए।
मराठों ने सिंहगढ़, राजगढ़, रोहिड़ा और अन्य कुछ दुर्ग भी हस्तगत कर लिए। सन् 1705 में मराठों ने जनवरी में लोहगढ़ और जून में राजमाची और जुलाई में कोण्डना दुर्ग भी मुगलों से जीतकर अपने अधिकार में ले लिया। अब ताराबाई ने पन्हाला में पुनः अपने राज्य का मुख्य कार्यालय स्थानांतरित कर दिया और वहीं से शासन करने लगीं। सन् 1707 में धन्नाजी जाधव ने पूना और चाकन को भी मुगलों से छीन लिया। सन् 1706 में औरंगजेब सेना सहित लौटकर अहमदनगर में अपने शिविर में था, तब धनाजी जाधव, नेमोजी शिंदे, दादू मल्हार व रंभा निंबालकर के नेतृत्व में एक बहुत बड़ी सेना उसके डेरे से 6 किलोमीटर दूरी तक आ पहुंची और घमासान खूनी लड़ाई के बाद वहां से हटी।
इस प्रकार ताराबाई के नेतृत्व में उसके सेनापतियों ने 7 वर्ष की अवधि में साधन संपन्न शक्तिशाली मुगल साम्राज्य और उसकी सत्ता को लुंज-पुंज कर दिया।
7 वर्ष के इस स्वतंत्रता संग्राम में मराठों में वीरता, उत्कृष्ट सहनशीलता, घोर निराशा में आशा की भावना, आत्मविश्वास, उच्च आदर्शों के प्रति निष्ठा, श्रेष्ठ सैनिक नैतिक बल, आत्म बलिदान, राष्ट्रीय और देशप्रेम की उत्कृष्ट भावना जैसे गुण विकसित किए। वीरांगना ताराबाई ने औरंगजेब की मानसिक और शारीरिक अवस्था पर भयानक आघात किया और इस स्वतंत्रता संग्राम ने ऐसा विकराल रूप धारण किया कि दक्षिण में उन्होंने औरंगजेब और उसके साम्राज्य दोनों को ही क्षत-विक्षत कर समाप्त कर दिया। दक्षिण में ही तथाकथित बादशाह और साम्राज्य दोनों की मज़ार बनी।
डॉ. आनंद सिंह राणा