जीवनवर्धक और जीवनसंहारक शक्तियों के बीच समाया कुम्भ का रहस्य
लेखक- राजेन्द्र सिंह जल पुरुष
भारत में कुम्भ का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। छह बरस में अर्धकुम्भ, 12 बरस में कुम्भ और 144 बरस में महाकुम्भ। जाति, धर्म, अमीरी-गरीबी यहां तक कि राष्ट्र की सीमाएं भी इस सनातन पर्व पर परस्पर विसर्जित हो जाती हैं। साधु-संत-राज-समाज-देशी-विदेशी सभी इस आयोजन में एकरस हो आनंद में डूब जाते हैं। कुम्भ में आकर ऐसा लगता है कि जैसे हम कभी भिन्न थे ही नहीं। दुनिया में पानी का इतना बड़ा मेला मैंने कहीं नहीं देखा। यह क्रम हजारों बरस से निरंतर जारी है। यह बात हैरान भी करती है और मन में कई जिज्ञासाएं भी उठाती है।
मन जानना चाहता है कि भारतीय जनमानस में सदियों से अनवरत रचा-बसा कुम्भ क्या नदी में एक डुबकी स्नान कर लेने की मात्र आस्था का आयोजन है अथवा इसकी पृष्ठभूमि में कुछ और भी रहा है? कुम्भ, अर्धकुम्भ और महाकुम्भ की नामावली व समयबद्धता का आधार क्या रहा होगा? यदि कुम्भ का प्रयोजन स्नान मात्र ही हो, तो फिर कल्पवासी यहां महीनों कल्पवास क्यों करते हैं? स्नान का इतना बड़ा आयोजन क्यों?
लोक आस्था देवताओं और दानवों के बीच समुद्र मंथन से उत्पन्न अमृत कलश के इर्द गिर्द घूमती है। जो बारह वर्षों में सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति के योगा-योग के चार प्रभाव बिन्दुओं को कुम्भ का स्थान मानती है।
कुम्भ का विज्ञान: विश्व को ब्रह्माण्ड रूप कुम्भ ही कहा गया है। वैज्ञानिक इसी से दिन, रात, महीना और वर्ष की गणना करते हैं। पृथ्वी एक दिन में एक बार अपनी धुरी पर और बारह महीनों में एक बार सूर्य की परिक्रमा पूरा करती है। भारत के ऋषि वैज्ञानिक तर्क देते हैं कि ब्रह्माण्ड में ऑक्सीजन प्रधान जीवनवर्धक और कार्बन-डाइ-आक्साइड प्रधान जीवन संहारक दोनों प्रकार के पिंड हैं। बृहस्पति ग्रह जीवनवर्धक पिंडों और तत्वों का तो शनि ग्रह जीवनसंहारक तत्वों का केन्द्र है। सूर्य का द्वादशांश छोड़ दें, तो शेष भाग जीवनवर्धक है। सूर्य पर दिखता काला धब्बा... ही वह हिस्सा है, जिसे जीवनसंहारक कहा जाता है। अमावस्या के निकट काल में, जब चन्द्रमा क्षीण हो जाता है, तब संहारक प्रभाव डालता है। शेष दिनों में खासकर शुक्ल पक्ष में चंद्रमा जीवनवर्धक होता है। शुक्र सौम्य होने के बावजूद संहारक है। अतैव इसे आसुरी शक्ति का पुरोधा कहा जाता है। मंगल रक्त और बुद्धि दोनों पर प्रभाव डालता है। बुध उभय पिंड है, जिस ग्रह का प्रभाव अधिक होता है, बुध उसके अनुकूल ही प्रभाव डालता है। छाया ग्रह राहु-केतु तो सदैव ही जीवन संहारक यानी कार्बन-डाइ-ऑक्साइड से भरे पिंड हैं। इनसे जीवन की अपेक्षा करना बेकार है। अलग-अलग ग्रह अलग-अलग राशियों के स्वामी हैं। इसलिए जीवनवर्धक ग्रहों का प्रधान बृहस्पति जब-जब संहारक ग्रह की राशि में प्रवेश कर जीवनसंहारक तत्वों में रुकावट पैदा करता है; ऐसे संयोग शुभ तिथियां मानी गईं। ऐसे चक्र में एक समय ऐसा आता है जब ऑक्सीजन प्रधान पिंड बृहस्पति जीवन संहारक प्रधान ग्रह शनि की खास राशि कुम्भ में प्रवेश करता है तथा सूर्य और चन्द्रमा मंगल की राशि मेष में आ जाते हैं। तब इनके प्रभाव का केन्द्र-बिन्दु हरिद्वार बनता है। यह समय हरिद्वार में कुम्भ पर्व का समय माना जाता है। इसी प्रकार जब बृहस्पति ग्रह दैत्यगुरु शुक्र की राशि वृष में प्रवेश करता है तथा सूर्य और चन्द्रमा का शनि की मकर राशि में प्रवेश होता है, तब प्रयागराज प्रभाव बिन्दु बनता है और कुम्भ प्रयाग में होता है। याद रहे कि यही वह तिथि होती है, जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होता है। सूर्य का उत्तरायण होना कर्मकाण्ड की दृष्टि से शुभ माना जाता है। जब भादो की भयानक धूप होती है, तब सूर्य के मारक प्रभाव से बचाने के लिए बृहस्पति सूर्य की राशि सिंह में प्रवेश करता है। इस समय जब तक सूर्य चन्द्र सहित सिंह राशि पर बना रहता है, तब तक नासिक इसका केन्द्र बिन्दु होता है और वहां गोदावरी तीरे कुम्भ पर्व मनाया जाता है। जब बृहस्पति सिंहस्थ हो, सूर्य मंगल की मेष राशि में हो और चन्द्रमा शुक्र की राशि तुला में पहुंचे जाये, तो महाकाल का पवित्र क्षेत्र उज्जैन प्रभाव बिन्दु बनता है और शिप्रा किनारे कुम्भ का मेला लगता है।
कुम्भ का सिद्धान्त: मेरा मन आस्था और विज्ञान के इस उत्तर से संतुष्ट नहीं हुआ। मैंने धर्माचार्यों से चर्चा की। कल्पवासियों के बीच बैठा। अनुभवों को टटोला, तब एक बात समझ में आई कि भारत में लम्बे समय से समाज को अनुशासित करने के लिए बनाई गई वैज्ञानिक रीति-नीति को धर्म, पाप-पुण्य और मर्यादा जैसी आस्थाओं से जोड़ा जाता रहा है। समाज को विज्ञान की जटिलताओं में उलझाने की बजाए आस्था की सहज, सरल और छोटी पगडंडी का मार्ग अपनाया गया। इसलिए पुराण की मानें तो भी और विज्ञान की मानें तो भी, जब-जब देवताओं अर्थात् जीवनवर्धक रचनात्मक शक्तियों द्वारा आसुरी शक्तियों अर्थात् जीवनसंहारक नकारात्मक तत्वों के दुष्प्रभाव को रोकने की कोशिश की गई, तब-तब का समय/प्रयास कुम्भ नाम से विख्यात हुआ। सम्भव है कि ऐसे शुभ कर्मों को निरंतरता देने के लिए समाज के नियन्ताओं ने इसे नियमित कर्म का रूप दे दिया और जो-जो स्थान इन कोशिशों का केन्द्र-बिन्दु बने, वे कुम्भ पर्व का स्थान हो गए ।
कुम्भ का व्यवहार:- अनुभव बताता है कि जब समृद्धि आती है, तो वह सदुपयोग का अनुशासन तोड़कर उपभोग का लालच भी लाती है और वैमनस्य भी। ऐसे में भविष्य का पूर्वाभास व कुछ सावधान मन ही रास्ता दिखाते हैं। ऐसे में जीवनवर्धक शक्तियों को जागृत होना पड़ता है। वे आपस में एकजुट होकर विचार-विमर्श करती हैं और समाधान खोजती हैं। अच्छे कामों को आगे बढ़ाती हैं।
सावन, भाद्रपद के महीनों में भूमि को गर्भवती माना जाता है। इन महीनों में जुताई और खुदाई प्रतिबन्धित रहती है। नदी माँ है, इसलिए इसमें मलमूत्र व गंदगी का त्याग वर्जित है। ये पूजनीय हैं। नदी को पूजनीय मानने वाला समाज भला माँ के वक्षस्थल पर हल चलाने की इजाजत कैसे दे सकता था? फिर क्या? नदी पाट पर खेती को लेकर विवाद बढ़ा। समाज ने ऋषियों को नदियों की पवित्रता और सुरक्षा की पहरेदारी सौंपी थी। समाज प्रकृति के प्रतिनिधि माने गये ऋषियों के पास गया। ऋषियों ने कहा कि नदी अकेले न समाज की है, न ऋषियों की। यह तो सभी की साझा है। राज, समाज, ऋषि और प्रकृति के जीव व वनस्पति, सभी का इस पर साझा अधिकार है। अतः इसकी समृद्धि और पवित्रता कायम रखने के लिए सभी को बैठकर निर्णय करना होगा। बस, एक दस्तूर बन गया और राज-समाज और ऋषि-संत सभी निश्चित अवधि व अंतराल पर नदी किनारे जुटने लगे। आज भी समाज किसी न किसी नाम से साल में कई बार अपनी-अपनी नदियों के किनारे जुटता ही है। कहीं इसका कारण छठ पूजा है, तो कहीं वसंत पंचमी, पोंगल और कहीं माघ तथा श्रावणी मेला। ऐसा माना जाता है कि कोई भी नदी करीब 150 बरस में अपनी धारा की दिशा और दशा में बदलाव करती है। सम्भवतः इसीलिए 144 बरस में महाकुम्भ का निर्णायक आयोजन तय किया गया। महाकुम्भ के निर्णयों की अनुपालना और निगरानी के लिए हर छह बरस पर अर्धकुम्भ और बारह बरस पर कुम्भ के आयोजन की परम्परा बनी।
कुम्भ के वाहक: यह सच है कि भारत में जब जहां संकट दिखा कोई महापुरुष, घटना या संदर्भ प्रेरक बनकर खड़ा हो गया। इतिहास के पन्नों पर निगाह डालें तो राजा, प्रजा और ऋषि तीनों कहीं न कहीं अपने-अपने वर्ग के समक्ष प्रेरणा बनकर खड़े दिखाई देते हैं। जो कुम्भ का अभिप्राय कभी न भूले, जिन्होंने कुम्भ के विमर्श को कभी नहीं नकारा, कुम्भ के वाहक बने। जो राज, समाज और ऋषि अपनी भूमिका को कभी न भूले, समाज ने उन्हें हमेशा याद रखा। बरस-दो बरस नहीं, हजारों बरस बाद भी। जब उत्तर के मैदान में पानी का संकट था, तब राजा भागीरथ प्रतीक बने। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक के वर्तमान नामकरण वाले इलाकों में जब जल संकट हुआ तो ब्राह्मण गौतम ने गोदावरी को प्रगट किया। ब्रह्मपुराण में इस प्रसंग का जिक्र करते हुए गोदावरी को गंगा का ही दूसरा स्वरूप कहा गया है। विन्ध्यगिरि पर्वतमाला के उत्तर में बहने वाली गंगा भागीरथी कहलाई और दक्षिण की ओर बहने वाली गंगा गोदावरी नाम से विख्यात हुई। इसे गौतमी गंगा भी कहा जाता है। स्कन्दपुराण में वर्तमान आंध्र प्रदेश कभी नदी-विहीन क्षेत्र के रूप उल्लिखित है। दक्षिण के इस संकट में एक ऋषि का पौरुष प्रतीक बना। ऋषि अगस्त्य के प्रयास से ही आकाशगंगा दक्षिण की धरा पर अवतरित होकर सुवर्णमुखी नदी के नाम से एक जीवनदायी धारा बन गई। भागीरथ एक राजा, गौतम एक प्रजा और अगस्त्य एक ऋषि, तीनों ही नदी के अविरल प्रवाह के उत्तरदायी, तीनों ही रचनात्मकता के प्रतीक। सचमुच! कभी भारत में नदियों की समृद्धि में सभी साझेदार थे। हर भारतवासी के लिए उसकी अपने क्षेत्र की नदी गंगा जैसी ही पवित्र थी।
कुम्भ का वर्तमान: हम भूल गए अभिप्राय! कुम्भ की गौरवशाली परम्परा नदियों के प्रति हमारी आस्था का प्रतीक है और यह हमें याद दिलाता है कि हमें इसकी पवित्रता और अविरलता को बनाए रखना है। पर अफसोस। आज कुम्भ की नदियां न आचमन के योग्य हैं और न ही इन्हें पवित्रता की देवी कहा जा सकता है। गंगा, गोदावरी, शिप्रा? सभी प्रदूषण, शोषण और अतिक्रमण से त्रस्त हैं। आस्था से बंधे स्नानार्थी कुम्भ में इकट्ठे होते हैं, नदी के मलिन जल में स्नान और आचमन की औपचारिकता पूरी करते हैं। राज-प्रशासन व्यवस्था देता है और संत भी अमृत स्नान के नाम पर पहली डुबकी लगाकर इतिश्री कर लेते हैं। क्या किसी के मन में एक बार भी यह विचार नहीं आता कि हम जिसे माँ कहते हैं, जो कभी श्वेत, शुभ्र, धवल और अमृतमयी थी उसे हमने मैली, बीमार, शोषित व कचरा बना दिया है? नदियों की ऐसी दुर्दशा वाले भारत में, ऐसी सामाजिक व धार्मिक आस्था के कोई मायने नहीं है कि जो नदियों का जीवन न बचा सके।
कुम्भ का निवेदन, वापस लौटे समाज: जरूरत है कि हम अपनी स्थानीय नदी को गंगा ही मानकर संरक्षण व उन्नयन में लगें। हमें कुम्भ के मूल अभिप्राय व लक्ष्य को पुनः प्राप्त करना होगा। हमें अपने राज, समाज और संत सभी को याद दिलाना होगा कि अब जब भी नदी किनारे समाज जुटे, वहां अपनी आस्था के दीप तो जलाएं लेकिन नदी के प्रवाह की अविरलता, स्वच्छता और सुंदर स्वरूप को सुनिश्चित करने का संकल्प लेना भी न भूलें। अब छठ पूजा, माघ-श्रावणी मेला, कुम्भ और कावड़ियों की कलश यात्राएं नदियों के संरक्षण और समृद्धि के लिए सुनिश्चित कदम उठाने का माध्यम बनें। भारत में जल के विकेन्द्रीकृत जल प्रबन्धन का जो समयसिद्ध ज्ञान है, वह इसी रास्ते समृद्ध होकर पुनः समाधान सुझा सकता है। वैश्विक समस्याओं के स्थानीय समाधान प्रस्तुत करने का यही एक रास्ता है। जो जहां है वहां की समझ, शक्ति और संगठन को नदी किनारे के इन कुंभों से जोड़कर एक ताकत खड़ी करे ताकि पूर्व की तरह कुम्भ के निर्णय सर्वमान्य बनें। फिर उन निर्णयों की अनुपालना व निगरानी की सतत् व्यवस्था बनानी होगी। राज, समाज और संत सभी जिम्मेदार बनें।
यह हो कैसे ?: इस सवाल के साथ ही अलवर की पुनर्जीवित नदी अरवरी और 70 गांवों का संगठन-अरवरी संसद मेरे सामने आ खड़े होते हैं। अरवरी नदी भी कभी सूख गई थी... आज सदानीरा है। जब अरवरी समृद्ध और सदानीरा हुई, तो यहां भी लालच आया। राज में भी और समाज में भी। राज ने मछली का टेंडर खोल दिया और समाज अधिक पानी की फसल पाने को लालायित हो उठा। इसी समाज में कुछ समझदार लोग थे, जिन्होंने भविष्य देख लिया था। वे चेत गए। अरवरी के सत्तर गांव एक साथ बैठे। नदी सदा ही सदानीरा और समृद्ध बनी रहे, इसके लिए उसके जल के उपयोग का अनुशासन बनाया। नियम बने और उनकी पालना भी सुनिश्चित हुई। राज के लालच पर भी रोक लगी। ठेका रद्द हो गया। आज भी अरवरी के 70 गांव साल में दो बार अपनी नदी के किनारे एक साथ बैठते हैं। नदी और इसके आस-पास की हरियाली, जीव व प्रकृति की समीक्षा करते हैं और फिर से अपने काम में जुट जाते हैं, यह भाव लिए कि नदी, जंगल, पहाड़, पानी समृद्ध रहेंगे तो उनकी समृद्धि में भी कोई कमी नहीं आएगी। अरवरी आज उनका तीर्थ है और अरवरी संसद की हर बैठक एक कुम्भ। अरवरी के 70 गांव मुझे ताकत देते हैं, पर भारत में हर जगह का समाज ऐसा ही हो जाए, यह उम्मीद करना बेमानी है। हां! इस बात पर मुझे सदैव यकीन रहा है कि कोशिश और नीयत अच्छी हो, तो नतीजा आता ही है। क्योंकि हर जगह राज, समाज और संत सभी के बीच कुछ अच्छे लोग मिल ही जाते हैं। प्रकृति भी आपकी मदद करती है। मन ने कहा कि इन अच्छी ताकतों को एकजुट कर लिया जाए, तो रास्ता निकलेगा ही। नदी संरक्षण के लिए एक साथ मिल बैठने के ऐसे आयोजन को स्थानीय ‘जल कुम्भ’ का नाम दिया गया।
इस प्रकार कुम्भ मात्र एक धार्मिक पर्व या आध्यात्मिक संगम नहीं है, यह जीवन की पूर्णता का, इसके सभी क्षेत्रों में शुचिता का प्रतीक है। यह प्रकृति और इसके सभी घटकों के प्रति हमारी निष्ठा की अभिव्यक्ति है। सबसे बढ़कर यह हमारे मनुष्य होने के उत्तरदायित्व को समझने का, उसे अपने जीवन में धारण करने का संकल्प है....यह कुम्भ है।