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संघ दर्शन

संघ के विचार, व्यवहार और दर्शन का विस्तार काल

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 संघ के विचार, व्यवहार और दर्शन का विस्तार काल  

संघ यात्रा-2  (1935-1945) 

स्व, हिन्दुत्व और राष्ट्र को समर्पित राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ का वर्ष 1925 में रोंपा गया बीज 1935 में अब तरुण पौधा बन चुका था। वर्ष 1940 तक संघ का विस्तार प.पू. डॉ. हेडगेवार की जीवन यात्रा का ही विस्तार है। संघमय डॉक्टर जी के सानिध्य में ही इस संघ यात्रा को समझा जा सकता है। वर्ष 1935 में संघ कार्य के विस्तार को देखते हुए डॉ. हेडगेवार ने तेजस्वी एवं कार्य कुशल स्वयंसेवकों को शिक्षा प्राप्त करने हेतु दूसरे प्रांतों में भेजना शुरू किया जिससे उनके माध्यम से वहां भी संघ की शाखाएं प्रारंभ हुईं। हिंदी भाषी क्षेत्रों में जाने वाले स्वयंसेवक हिंदी सीखकर और निकट के आंध्र प्रदेश में कार्य विस्तार हेतु तेलुगु भाषा सीखकर जाते। 1927 में संघ के जो नियम, कार्य-पद्धति, अचार-पद्धति आदि निश्चित की गई थी उन पर पुनर्विचार करते हुए अक्टूबर 1935 में श्री अप्पाजी जोशी, श्री दादा साहब देव तथा श्री कृष्ण राव मोहरी के साथ सिंदी में विचार मंथन कर पूज्य डॉक्टर जी ने उन्हें और अधिक परिष्कृत किया। 28 दिसंबर 1935 को पुणे में 500 गणवेशधारी स्वयंसेवकों के  संचलन तथा मान वंदना कार्यक्रम को देखकर जनमानस में संघ के प्रति उल्लास का वातावरण बना। संघ कार्य से प्रभावित होकर 1936 में नासिक के पूज्य शंकराचार्य जी ने डॉ. हेडगेवार जी को ‘राष्ट्र सेनापति’ की पदवी प्रदान करने की घोषणा की। बाद में अपने लिए इस पदवी के उपयोग न करने का डॉ. साहब ने सबसे आग्रह किया था। 24 मार्च 1936 को डॉ. साहब द्वारा जलगांव विभाग में प्रचारक बनकर जा रहे श्री कृष्ण राव वाडेकर को लिखा गया पत्र ‘संघ स्थापना विधि’  नए स्थान पर कार्य प्रारंभ को लेकर स्वयंसेवक के गुणों की डॉ. साहब की परिकल्पना को निहित किए हुए है। अक्टूबर 1936 में श्री गुरुजी संसार से विरक्त होकर स्वामी विवेकानंद के गुरुभाई स्वामी अखंडानंद जी का शिष्यत्व ग्रहण कर बंगाल चले गए। 1937 में उनके नागपुर वापस आने तक डॉक्टर जी श्री गुरुजी के विषय में चिंतित रहे। 1936 में ही संघ विस्तार हेतु विभिन्न प्रांतों सहित पंजाब के विभिन्न स्थानों पर भी कार्य प्रारम्भ हो चुका था। 

2 सितम्बर से 12 नवम्बर 1936 तक डॉ. साहब के नागपुर प्रवास काल में  संघ के विचार, दर्शन और व्यवहार पर उनके 10 भाषण अधिकारी वर्ग नागपुर में हुए। इसी वर्ष 25 अक्टूबर 1936 को संघ के एक स्वयंसेवक की माता श्रीमती लक्ष्मी बाई केलकर ने हिन्दू नारी संगठन ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की स्थापना की। हिन्दू स्त्रियों को हिन्दुत्व तथा अपनी रक्षा में समर्थ बनाने के उद्देश्य से इस समिति की स्थापना करने के लिए डॉक्टर जी से उन्होंने कई बार विचार विमर्श किया था। 

इस काल में कोल्हापुर में देशी रियासत होने के कारण तब वहां के नरेश छत्रपति राजाराम भोंसले के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध के कारण वहां संघ का कार्य राजा राम स्वयंसेवक संघ के नाम से चला था। अकोला के सम्मेलन में डॉ. साहब ने 28 मार्च 1937 को संघ स्थापना का इतिहास विस्तार पूर्वक बताते हुए संघ के उद्देश्यों की विशालता और उसके लिए विराट संघ शक्ति के निर्माण के लिए विचारशील हिन्दुओं का आह्वान किया। वर्ष 1937 में पुणे के मारुति मंदिर में घंटा बजाने से समीप स्थित मस्जिद की नमाज में बाधा न पड़े इसके लिए 24 अप्रैल से 14 मई तक सरकारी प्रतिबंध लगाया गया था इसके विरुद्ध हिन्दुओं ने सत्याग्रह प्रारंभ किया। जागरूक हिन्दू के रूप में संघ के स्वयंसेवकों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी। वर्ष 1937 के नागपुर के विजयादशमी उत्सव पर संचालन की ‘सावधान’ साप्ताहिक अखबार ने विशिष्ट प्रशंसा की थी। 1937 के अंत में स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर के साथ डॉक्टर जी ने विदर्भ प्रांत में भंडारा, अकोला आदि स्थानों की यात्रा की। 1937 के अंतिम दिनों में लगने वाले संघ के शीत शिविरों में नागपुर के 1000 बाल स्वयंसेवकों का शिविर महत्वपूर्ण रहा, जिसका उद्घाटन औंध नरेश के द्वारा हुआ था। इसी वर्ष श्री गुरुजी भी अपने गुरु स्वामी अखंडानंद जी के समाधिस्थ हो जाने के बाद बंगाल से लौट आये थे। 1938 के प्रारंभ में वे पुनः डॉ. हेडगेवार जी के साथ मिलकर फिर से संघ कार्य में जुट गए। 


अप्रैल 1938 में हिन्दू युवक परिषद् से संबंधित एक बड़ा सम्मलेन पुणे में हुआ। परिषद् के संभाषण में डॉक्टर जी ने राष्ट्रभक्ति के अनेक महत्वपूर्ण सूत्रों को प्रस्तुत किया। परिषद में ही दूसरे दिन वीर सावरकर ने संघ के विषय में कहा था कि, ”संघ भावी हिन्दू राष्ट्र की आशा तथा भावी पीढ़ी निर्माण करने का एकमेव स्थान है।“ परिषद् की समाप्ति पर भी डॉक्टर जी का अत्यंत प्रेरक भाषण हुआ जिसमें उन्होंने हिन्दू समाज से छत्रपति शिवाजी महाराज के आदर्श को अपनाने का आग्रह किया। हिन्दू युवक परिषद् के इस विशाल एकत्रीकरण में हुए डॉक्टर जी के उद्बोधन के बाद संघ से जुड़ने वाले हिन्दू युवाओं की संख्या बढ़ गई।  

15 अगस्त 1938 को डॉक्टर जी, श्री गुरुजी को साथ लेकर नागपुर से वाराणसी, दिल्ली होते हुए लाहौर पहुंचे। लाहौर के अधिकारी शिक्षण वर्ग में 27 अगस्त को डॉक्टर जी ने राजा नरेंद्र नाथ की उपस्थिति में अत्यंत प्रभावशाली भाषण दिया जो आज भी स्मरण किया जाता है। अक्टूबर 1938 में हैदराबाद निजाम की हिन्दू विरोधी नीतियों के विरुद्ध जो सत्याग्रह आरंभ हुआ उसमें संघ के हजारों स्वयंसेवकों ने व्यक्तिगत रूप से उत्साहपूर्वक भाग लिया।

वर्ष 1938 के संघ के नागपुर में शीत शिविर का उद्घाटन करने के लिए स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर आए थे और उन्होंने संघ की अत्यधिक प्रशंसा की थी। 

1939 में द्वितीय विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया था। उस समय त्रिलोक्यनाथ चक्रवर्ती, वीर सावरकर तथा सुभाष चंद्र बोस जैसे क्रांतिकारी एवं दूरदर्शी राजनीतिज्ञ अंग्रेजों की लाचारी से लाभ उठाकर भारत को स्वतंत्र कराने के लिए प्रयत्नशील थे परंतु महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस विपत्ति में फंसे हुए शत्रु पर प्रहार करने को अनुचित मान रही थी। उस समय डॉक्टर जी के नेतृत्व में संघ भी राष्ट्रीय स्वतंत्रता के विषय में चिंतन कर रहा था किंतु उस समय विदर्भ, मध्य प्रांत तथा महाराष्ट्र को छोड़कर पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा गुजरात इत्यादि में संघ की शाखाएं सशक्त नहीं थी और कई प्रांत ऐसे भी थे जहां संघ कार्य था ही नहीं। 

फरवरी 1939 में सिंदी में प्रमुख कार्यकर्ताओं द्वारा संघ की प्रार्थना, आज्ञाएं, प्रतिज्ञा, कार्य-पद्धति, आचार- पद्धति तथा संघ के विधान पर मंथन हुआ और संघ की संस्कृत प्रार्थना तैयार की गयी। संघ की आज्ञाएं पूर्णतया संस्कृत में कर दी गईं। 

श्री गुरुजी और श्री विट्ठलराव पतकी जी ने कलकत्ता जाकर संघ कार्य प्रारंभ किया। कुछ सप्ताह पश्चात श्री गुरुजी नागपुर वापस आ गए और पतकी जी प्रचारक के रूप में कलकत्ता रह गए। इसी काल में भाऊराव देवरस जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय में अध्ययन करते हुए लखनऊ की शाखा प्रारंभ कर दी थी। श्री बाबा साहब आप्टे के प्रयत्न से कानपुर में संघ शाखा (लखनऊ से पूर्व) चलने लगी थी। वाराणसी, प्रयाग, पंजाब में भी तेजी से संघ कार्य बढ़ रहा था।   

1939 में नागपुर के अधिकारी शिक्षण वर्ग के लिए श्री गुरुजी सर्वाधिकारी नियुक्त किए गए थे। इस वर्ग में पंजाब, उत्तर प्रदेश, बंगाल आदि कई प्रांतों के बहुभाषी स्वयंसेवकों ने भाग लिया था। श्री गुरुजी के संरक्षण में इस वर्ग से निकले स्वयंसेवकों ने संघकार्य के विस्तार को और गति प्रदान की। संघ की सशक्त होती स्थिति को देखते हुए पुणे के एक उद्बोधन में डॉक्टर जी ने कहा था कि, ”अब संघ का विनाश बाहर की कोई शक्ति नहीं कर सकती। यदि किसी ने संघ पर आघात किया तो उसे वही अनुभव हो जो फौलाद के कठोर गोले पर प्रहार करने वाले हाथों को होता है।“ 

20 जून 1939 को डॉक्टर जी ने एक प्रयोग किया, उन्होंने पुणे के संघचालक श्री विनायक राव आप्टे को बुलाकर कहा कि 2 घंटे में पुणे के सभी स्वयंसेवकों को पूर्ण गणवेश में शिवाजी मंदिर संघ स्थान पर एकत्र कीजिए। ठीक 8ः00 बजे स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में उपस्थित हो गए। इसके बाद दिए अपने उद्बोधन में आपातकाल में एकत्र होने की स्वयंसेवकों की प्रवृत्ति को डॉक्टर साहब ने स्पष्ट करते हुए कहा कि आपातकाल में पुलिस और सरकारी विभाग वेतन के लिए दौड़-भाग करते हैं परंतु यदि बिना वेतन लिए, देशभक्ति से प्रेरित होकर, निजी कामों को त्यागकर संघ के आह्वान पर उत्तर देने वाले स्वयंसेवकों की विशाल संख्या सदा तैयार रहे तो पूरे भारतवर्ष के बुरे दिन समाप्त हो सकते हैं। 

13 अगस्त 1939 को नागपुर के गुरु पूर्णिमा उत्सव के अवसर पर डॉक्टर जी ने श्री गुरुजी को सरकार्यवाह घोषित किया। संघ के इस भव्य उत्सव  का समाचार महाराष्ट्र के केसरी, मद्रास के संडे टाइम्स, कोलकाता के अमृत बाजार पत्रिका, प्रयाग के लीडर, दिल्ली के हिन्दू आउटलुक और लाहौर के ट्रिब्यून आदि अनेक पत्रों में प्रकाशित हुआ।  जून 1940 तक संघ कार्य का विस्तार देश के अनेक प्रांतों में हो चुका था। नागपुर में अधिकारी वर्ग के दीक्षांत कार्यक्रम में डॉक्टर जी का एक उद्बोधन हुआ उस समय डॉक्टर जी अत्यंत अस्वस्थ एवं कष्ट की अवस्था में थे। उनका यह उद्बोधन उनके अंतिम संदेश के रूप में ग्रहण किया जाता है और सभी स्वयंसेवकों के लिए प्रेरणा का स्रोत है। 

20 जून को नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने नागपुर प्रवास के समय गंभीर रूप से अस्वस्थ डॉ. हेडगेवार से मिलने आए थे परंतु वे सो रहे थे, नेताजी उन्हें प्रणाम कर लौट गये। 21 जून 1940 को डॉ. हेडगेवार ने मातृभूमि की सेवा करते-करते इस नश्वर देह को त्याग दिया। जिस बीज का उन्होंने रोपण किया था उसके जीवंत एवं देदीप्यमान वटवृक्ष बनने का मूलमंत्र वे हमें दे गए हैं।  3 जुलाई 1940 को पूज्य डॉक्टर साहब के श्रद्धांजलि कार्यक्रम में श्री गुरुजी की नए सरसंघचालक के रूप में घोषणा की गयी। संघ की बढ़ती शक्ति से घबराकर अंग्रेजों ने 1940 में संघ के सैनिक पद्धति को लेकर टिप्पणी करते हुए इस पर अघोषित प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया जिसे श्री गुरुजी ने उचित उत्तर देकर विफल कर दिया। संघ के स्वयंसेवकों ने राष्ट्रहित को ध्यान में रखते हुए अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में बड़ी संख्या में प्रतिभागिता की। महाराष्ट्र के आष्टी-चिमूर क्षेत्र में कुछ स्वयंसेवकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। रामटेक ‘नगर कार्यवाह’ श्री बालासाहेब देशपांडे को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई लेकिन बाद में ब्रिटिश सरकार ने इस सजा को रद्द कर दिया।

अगस्त क्रांति ढाई माह में ही असफल हो गयी। जिन प्रश्नों का उत्तर आन्दोलन से जुड़े नेता नहीं दे पाए थे उनका उत्तर जनता को श्री गुरुजी के उद्बोधनों में मिलने लगा था। नवम्बर 1943 में लाहौर के एक कार्यक्रम में श्री गुरुजी ने स्पष्ट किया कि संघ का उद्देश्य छुआछूत की भावना को मिटाना और हिन्दू समाज के सब वर्गों को एकता के सूत्र में पिरोना है।  संघ कार्य में ब्रिटिश तंत्र द्वारा अवरोध उत्पन्न न किया जाए, इसलिए 1943 में संघ का सैनिक विभाग औपचारिक रूप से बंद कर दिया गया।       

1945 तक श्री गुरुजी के संरक्षण में संघ दृढ़ता से उस दिशा में बढ़ रहा था जिसका निर्देशन पूज्य डॉक्टर जी कर गये थे। अब भारत के दक्षिण में भी संघ कार्य का विस्तार हो रहा था, श्री गुरुजी स्वयं स्थान-स्थान पर प्रवास कर स्वयंसेवकों का उत्साह बढ़ा रहे थे।

- इस श्रृंखला में यहीं तक अगली कड़ी में बात करेंगे संघ यात्रा के अगले दशक की...