बालासाहब देवरस जी ने क्या कहा?- OLD IS GOLD ऐसा मत सोचना
मई 1974 के व्याख्यान श्रृंखला को संबोधित करते हुए बालासाहब देवरस ने ‘सद्-असद् विवेक चाहिए’ पर कहा: “अत्यंत प्राचीनकाल से चली आ रही संस्कृति के हम अभिमानी हैं। संपूर्ण हिन्दू समाज को अपनी संस्कृति का अभिमान रखना चाहिए, यह हमारी अपेक्षा है। हम समझते हैं कि हिन्दू को यदि सच्चे अर्थ में हिन्दू के रूप में जीवित रहना है तो उसे अपनी संस्कृति के शाश्वत जीवन-मूल्यों को, जो प्रदीर्घकाल के आघातों और ऐतिहासिक तथा राजनीति की उथल-पुथल के बावजूद टिके रहे, बने रहे, उनकी विरासत को नहीं छोड़ना चाहिए। ऐसा सोचना उचित ही है। किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि 'जो पुराना है वह सोना है', वह अपरिवर्तनीय और शास्त्र-शुद्ध है। 'पुराणमित्येव न साधु सर्वं-अर्थात् पुराना है, इसलिए अच्छा है, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं। यह भी सोचने का तरीका उचित नहीं कि पुरानी बातों से अब तक हमारा गुजारा होता रहा, अत: आज ही नए ढंग से सोचने की क्या आवश्यकता है? ‘तातस्स्य कूपोध्यमिति दुवाणा। क्षार जलम कापुरुषा पिबन्ति।।’ अर्थात यह कुआं मेरे पिताजी का है, उस का जल खारा हुआ तो क्या हुआ? उन्होंने इसका जल पिया है, उनका कुछ नहीं बिगड़ा, अतः हम भी उसी जल को पिएंगे, इस प्रकार का दुराग्रह करना ठीक नहीं होगा। समाज में अनेक प्रकार के लोग रहते हैं। एक वर्ग किसी भी नई बात को स्वीकार करने को तैयार रहता है। अन्य प्रकार के लोगों में पुरानी बातों से चिपके रहने की वृत्ति होती है। ‘सांता परीक्षन्यतरत् भजन्ते।’ऐसा विचार कर अर्थात कसौटी पर कसकर, सब विवेक बुद्धि से किसी वस्तु का त्याग अथवा स्वीकार करना ही अधिक उचित होगा। अधिकाधिक लोग इसी पद्धति से विचार और आचार करने हेतु प्रवत्त हों, ऐसा हमें प्रयास करना चाहिए।”
।। 5 सरसंघचालक, अरुण आनंद, प्रभात प्रकाशन, प्रथम संस्करण-2020, पृष्ठ- 124-25 ।।