नारी सशक्तिकरण से ही सशक्त भारत : मोहन भागवत जी
महाराष्ट्र में महिलाओं के एक संगठन उद्योग वर्धनी के कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि “महिलाओं को उन प्रतिगामी रीति-रिवाजों और परंपराओं से मुक्त किया जाना चाहिए जो उनके विकास में बाधा डालती हैं। किसी भी राष्ट्र की प्रगति के लिए महिलाओं का सशक्तीकरण बहुत आवश्यक है”। उनका यह आग्रह केवल एक सामान्य वक्तव्य नहीं है, बल्कि आज की भारतीय नारी के लिए आत्ममंथन का आह्वान है।
दरअसल, स्त्रियों के रूढ़ियों से उबरने का विषय नया नहीं है।
इसकी चर्चा लंबे समय से होती रही है। किंतु जब समाज का एक प्रभावशाली नेतृत्वकारी
व्यक्तित्व इसे सार्वजनिक मंच पर उठाता है, तो यह केवल
विमर्श नहीं रह जाता, बल्कि बदलाव की दिशा में ठोस पहल का संकेत बन जाता है।
इसी दृष्टि से यह आवश्यक हो जाता है कि हम अतीत और वर्तमान दोनों को देखें। अतीत
इस बात का प्रमाण है कि भारत कि स्त्रियों ने अनेकों रूढ़ि वादी परम्पराओं को तोड़ा
है और आगे बढ़ी हैं, वर्तमान में भी कुछ परम्पराएं ऐसी है जिन्हें पीछे छोड़कर
या यूँ कहे उन बंधनों को तोड़कर नारी शक्ति को आगे बढ़ना चाहिए।
भारतीय संस्कृति में नारी को देवी का स्थान दिया गया है-“यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता”। किंतु यह विडंबना ही है कि भारत में स्त्रियों को शक्ति और सृजन का प्रतीक माना गया,पराधीनताकाल के दुष्प्रभाव ने बाल विवाह, पर्दा प्रथा, शिक्षा पर रोक और सामाजिक वर्जनाएँ नारी जीवन पर लाद दीं— ये सब परंपराएँ महिलाओं के लिए अवसर नहीं, बल्कि बंधन सिद्ध हुईं। परिणामस्वरूप, नारी का स्थान पूजाघर की मूर्ति तक सीमित रह गया, जबकि भारतीय परम्परा में जीवन के हर क्षेत्र में उनका योगदान रहा है। इतिहास गवाह है कि हर युग में कुछ साहसी महिलाओं ने अपनी अस्मिता पर लगे बन्धनों को तोड़ने का साहस दिखाया। सावित्रीबाई फुले ने 1848 में पहला कन्या विद्यालय खोला और समाज के विरोध के बावजूद लड़कियों की शिक्षा का अभियान शुरू किया। पंडिता रमाबाई ने विधवाओं की दुर्दशा और बाल विवाह की कुरीति को चुनौती दी और स्त्रियों को आत्मनिर्भर बनाने की राह दिखाई। बंगाल की बेगम रोकेया ने पर्दा प्रथा और महिलाओं की अशिक्षा का विरोध किया तथा स्कूल खोलकर बेटियों तक ज्ञान पहुँचाया। स्वतंत्रता आंदोलन में सरोजिनी नायडू, कमला देवी चट्टोपाध्याय, जानकी देवी बजाज और दुर्गाबाई देशमुख जैसी वीरांगनाओं ने यह साबित किया कि यदि नारी ठान ले, तो परम्पराएं उसके मार्ग की दीवार नहीं बन सकतीं। ये उदाहरण केवल गौरवशाली इतिहास नहीं हैं, बल्कि वर्तमान के लिए प्रेरणा भी हैं। यदि अतीत की स्त्रियाँ प्रतिकूल परिस्थितियों में भी रूढ़ियों को तोड़ सकती थीं, तो आज जब शिक्षा, प्रौद्योगिकी और अवसरों के इतने साधन उपलब्ध हैं, तो महिलाएँ क्यों पुरानीपरम्पराओंकीबेड़ियों में जकड़ी रहें?आज भी हमारे समाज में कई ऐसी परम्पराएं और मान्यताएँ मौजूद हैं, जो महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं देतीं और उनकी स्वतंत्रता को सीमित करती हैं।
21वीं सदी की महिला शिक्षित है, तकनीकी रूप से
सक्षम है और हर क्षेत्र में अपनी पहचान बना रही है। लेकिन अभी भी समाज में कई
परम्पराएं और सोच ऐसी हैं जो उसकी प्रगति की राह में रोड़े अटकाती हैं। दहेज प्रथा
अब भी कई परिवारों में अपने जहरीले रूप में मौजूद है, जहाँ विवाह को
लेन-देन का सौदा बना दिया जाता है। स्त्रियों की स्वतंत्रता पर सामाजिक पहरे इतने
मजबूत हैं कि लड़कियाँ अपने कैरियर, जीवनसाथी और व्यक्तिगत
निर्णय लेने में असहज महसूस करती हैं। पुत्र जन्म की कामना का दबाव आज भी बेटियों
के जन्म पर निराशा और बेटों पर उत्सव जैसा माहौल रचता है। धार्मिक–सामाजिक अनुष्ठानों से दूरी भी महिलाओं को भेदभाव का शिकार बनाती है, कहीं-कहीं नारियों को धार्मिक अनुष्ठानों में सक्रिय भूमिका से वंचित रखा
जाता है।जबकि भारत में किसी भी विवाहित पुरुष के द्वारा किया जाने वाला धार्मिक
अनुष्ठान तब तक पूर्ण नहीं माना जाता है जब तक की उसकी सहधर्मिणी उसके साथ उस
अनुष्ठान में सम्मिलित न हो। संपत्ति और उत्तराधिकार के अधिकारों की बात करें तो
कानून बराबरी देता है, परम्परा से भारत में
अनेक राजकुमारियों ने अपने पिता कि राजसत्ता को सम्भाला है किन्तु आज भी समाज में
कुंठित मानसिकता वाले लोग हैं जो बेटियों को अक्सर जायदाद से दूर रखने की
रूढ़िवादिता को आश्रय देते हैं। विधवाओं और अविवाहित महिलाओं के साथ भेदभाव आज भी
सामाजिक आयोजनों में साफ झलकता है, मानो उनका अस्तित्व
अधूरा हो। यह सब दर्शाता है कि समय बदलने
के बावजूद पराधीनता काल में समाज में घर कर गयी कुरीतियाँ आज भी समाज में गहरे तक
जमी हुई हैं, जिन्हें नारी की प्रगति के मार्ग से हटाना आवश्यक है।
भविष्य में दहेज प्रथा, स्त्रियों की स्वतंत्रता पर पहरे, पुत्र जन्म की अनिवार्यता और धार्मिक–सामाजिक अनुष्ठानों से महिलाओं को दूर रखने जैसी रूढ़ियाँ कोई स्थायी सत्य नहीं हैं। जिस जागरूक समाज ने सती प्रथा और पर्दा जैसी कुरीतियों को पीछे छोड़ दिया, वही समाज इन बंधनों को भी तोड़ सकता है। नारी का मार्ग रोकने वाली ये दीवारें उतनी ही कृत्रिम हैं जितनी पिछली कुप्रथाएँ थीं। अब समय है कि महिला स्वयं इन जंजीरों को तोड़कर आगे बढ़े और समाज उसकी शक्ति को स्वीकारे। जब स्त्री इन बंधनों को पीछे छोड़ देगी, तभी वह अपनी वास्तविक पहचान और सामर्थ्य के साथ भारत को वास्तविक रूप में भारत बनाने में अपना योगदान दे सकेंगी। बिना नारी के एक समर्थ और सशक्त भारत कि परिकल्पना नहीं की जा सकती है क्योंकि भारत में नारी, शक्ति और सामर्थ्य का पर्याय है। नवरात्र पूजन का यही अभिप्राय है। इन परंपराओं से मुक्ति दिलाना ही भागवत जी के कथन“जो परम्पराएं महिलाओं को पीछे ले जाती हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए”का व्यावहारिक स्वरूप है।
अब समय आ गया है कि भारतीय नारी सिर्फ परंपराओं की संरक्षिका न रहकर, नई परंपराओं की सर्जक बने। वह संस्कारों के साथ जुड़ी रहें, परंतु स्वयं उन बंधनों को तोड़ें जो उन्हें उन्नत बनने से रोकते हैं, उनकी प्रगति में बाधक हैं।जब स्त्री आगे बढ़ेगी तो समाज और राष्ट्र दोनों आगे बढ़ेंगे।भारत कि नारी के सशक्त होने से ही भारत माता की प्रतिष्ठा है।