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सामाजिक समरसता

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सामाजिक समरसता 

भारत जैसे महान देश की सामाजिक सोच और परिवेश को बदलने का सिलसिला आज भी जारी है। इस देश के बहुसंख्यक समाज को कोसने के लिए नित्य नये विमर्श गढ़े जाते हैं। यहां पराभव की मानसिक रुग्णता से ग्रस्त लोग विजेता को कोसते रहते हैं। विचित्रता तो यह कि विजेता का मानस निन्दा की झंझा से हर पल डोलता दिखायी पड़ता है। यह ऐसा कालखण्ड है कि यदि कामुक शूर्पणखा की नाक लक्ष्मण भैया ने आज काटी होती तो उनके विरुद्ध भारत की गलियों और सड़कों पर रैलियां हो रही होतीं। लज्जा से रावण और उसके कुल के लोग नहीं श्रीराम से अपेक्षा की जाती कि वह स्पष्ट करें कि शूर्पणखा का विवाह प्रस्ताव मान लेते तो कौन सा पहाड़ फट पड़ता?

हिन्दू समाज समरस नहीं है यह अपराध बोध स्वयं बहुसंख्य हिन्दू ढोता फिर रहा है। इसे हिन्दुओं की ओर आरोप की तरह उछालने वाले वो राजनीतिक लोग हैं जो सम्पूर्णता में सनातन हिन्दू संस्कृति की गहरी जड़ों को काटने का हठ लिये फिरते रहते हैं। पीड़ित का शोषण और विभेद राक्षसी चित्तवृत्ति का द्योतक होता है। श्रीराम जब माता शबरी के आश्रम की ओर जा रहे थे तब बहुत से लोगों ने उन्हें रोका। उनसे कहा- हे श्रीराम आपको पहले श्रेष्ठ ऋषियों से मिलना चाहिए। शबरी तो सर्वथा अज्ञानी, धर्म और भक्ति की मर्यादाओं से हीन एकाकी वंचित वृद्धा है। प्रख्यात ऋषियों के आश्रमों में पहुंचने से आपको उनके दर्शन पाने का गौरव मिलेगा। इन आश्रमों की छटा रमणीय है। मार्ग की दुरुहताओं से उपजी सारी थकान ऐसे आश्रमों में पहुंचते ही दूर हो जाएगी।

श्रीराम से कहा गया- ऋषिगण परम ज्ञानी हैं, तत्वज्ञ हैं, राक्षसों के संहार की अक्षय शक्तियों के दाता हैं। तद्यपि श्रीराम उनकी ओर नहीं मुड़े और माता शबरी के समक्ष जाकर खड़े हो गये। पर शबरी तो प्रतिदिन की तरह तैयारियों में लगी थीं। श्रीराम के अनुज लखनजी ने सोचा यह बूढ़ी माता तो जाने कहां खोयी हैं। भैया की ओर देखा तक नहीं। उनसे रहा नहीं गया। बोल पड़े- अरे माई देखो श्रीरामजी आये हैं। शबरी ने इतने पर भी ध्यान नहीं दिया। कहने लगी- हां धीरज धरो वह आएंगे। तब तुम्हें भी दर्शन कराउंगी। अभी टोको नहीं। मुझे तैयारी कर लेने दो। श्रीराम ने लघु कुमार को स्थिर खड़े रहने का संकेत किया। निवृत हुई तो द्वार की ओर दौड़ी चली गयीं। वहां खड़ी होकर गुहार लगाने लगी। श्रीराम असमंजस में पड़ गये। दीर्घ काल की प्रतीक्षा ने उसे कभी निराश नहीं किया। आज प्रभुजी कुटिया में खड़े हैं तो वह बाहर गुहार रही है। लखनजी ने देखा, वह बड़े भैया को हाथ पकड़कर ला रही है। सोचने लगे, अरे भैया तो मेरे संग थे। वह द्वार पर कब पहुंच गये। यही तो है भगवान का भक्त वत्सल रूप। प्रभुजी वही करते हैं जो भक्त को प्रिय है। शबरी का व्रत और ऋषि मतंग का वचन पूर्ण हुआ। राजा का उत्तराधिकारी युवराज श्रीराम नहीं ब्रह्माण्ड के नायक महाप्रभु को हाथ पकड़ कर शबरी ने आसन पर बिठाया।

श्रीराम से शबरी ने ढेरों बातें की। कभी गुरुदेव मतंग की चर्चा तो कभी वन के कहे अनकहे प्रसंग। फिर शबरी को एक बात पूछने की उत्कट इच्छा हुई। पर सहसा रुक गयीं। कुछ सोच में पड़ते ही दोनों नयनों से जल कण ऐसे गिरे मानों श्रीप्रभु के चरणों में लोटने को बहुत दिनों से प्रतीक्षा में थे। फिर शबरी ने कहा कि मेरे आश्रम से कुछ दूर एक जलस्रोत है। उसी का जल मेरे गुरुजी प्रयोग करते थे। मुझे भी वह प्रिय है। पर सभी क्षेत्रीय जनों ने मेरे कारण उसे त्याग दिया है। कहते हैं शबरी के कारण उसमें कीड़े पड़ गये होंगे। मुझे वह जनजातीय होने के कारण त्याज्य मानते हैं। श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण को लेकर उस जलस्रोत तक गये। दोनों भाइयों ने कई अंजुलि जल पिया। फिर माता शबरी से अनुमति लेकर दोनों भाइयों ने उसमें स्नान किया।  माता के स्नेह के अतिरेक की पुनीत अनुभूति श्रीराम को तब हुई जब मां ने चख-चख कर उनको बेर खिलाये। शबरी को अक्षय भक्ति का वरदान देने वाले श्रीराम ने सामाजिक समरसता की सीख अपने आचरण से इस तरह दी कि सुदूर क्षेत्रों के ऋषियों की अगुवाई में उस जल स्रोत में हजारों लोगों ने अवगाहन किया। इसके निकट बहने वाली महानदी के किनारों पर आज भी सर्व समाज के लोग तीर्थाटन और स्नान के निमित्त पहुंचते रहते हैं। भारत की नदियों के तट हिन्दू समाज की समरसता के साक्षात प्रतीक बने हुए हैं। समाज के सभी वर्गों के समझदार और ज्ञानी जन जातिभेद के कारण भेदभाव से बचते हैं। विभेद अलग तरह की रुग्णता है। अपने पराये का भेद सामाजिक समरसता की हीनता नहीं एक अपराध है। भारत में हिन्दू जातीयता कतिपय राजनीतिक दलों का सबसे सस्ता और उपयोगी राजनीतिक पेय है। हिन्दू समाज को वह कभी समरस नहीं होने देते।

छत्तीसगढ़वासी गर्व से कहते हैं कि उनके राज्य में शिवरीनारायण स्थान है। यहां श्रीराम और माता शबरी का मन्दिर है। पास में महानदी का प्रवाह है। पूरा क्षेत्र अत्यन्त सुरम्य है। कर्नाटक के भक्तगण अपने राज्य में शबरी माता की एक पुण्य स्थली की बात करते हैं तो गुजरात में भी ऐसी कहानी मिलती है। दक्षिण पश्चिम गुजरात के डांग जिले में शबरी माता के आश्रम और मंदिर में हर वर्ष हजारों हिन्दू श्रद्धालु पहुंचकर माथा झुकाते हैं। भारत की सनातन संस्कृति श्रीराम के मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप की आराधना का सन्देश देती है। संसार भर में मानव जाति के जितने समूह हैं उन सभी में पारस्परिक विषमता के कटु प्रसंग भरे पड़े हैं।

कुछ द्रोही यह प्रचारित करते हैं कि सनातन हिन्दू संस्कृति में जाति भेद है। इसी भेदभाव के दुष्प्रचार का ठेका राजनीतिक स्वार्थ के लिए दूसरे सम्प्रदायों, रिलीजन और मजहब के ध्वजवाहक करते रहते हैं। मुगलों के कालखंड में जिन हिन्दू वीरों के परिवार अपना धर्म त्याग कर मतान्तरण नहीं करते थे उनको या तो मार डालते थे अथवा सब कुछ छीनकर मैला ढोने का काम कराते थे। सारे समाज से कहकर उन्हें अछूत घोषित कर देते थे। इसी तरह अन्य ऐसे काम करवाते जिससे वो अपने कुल की पहचान से विरत हो जाएं। यह क्रम अंग्रेजों के काल खण्ड में भी बंद नहीं हुआ। सनातन संस्कृति में वैदिक काल से वर्ण व्यवस्था है। 

वर्ण व्यवस्था को जातीय व्यवस्था का पर्याय मानना भारी भूल और निपट अज्ञानता है। वर्ण व्यवस्था कर्म अनुसार विभाजन को कहते हैं। जबकि जाति व्यवस्था विवाह से लेकर सभी तरह के संस्कारों, मर्यादाओं का नियमन करने की एक सामाजिक प्रणाली का नाम है। कालान्तर के अनेक नियम जैसे अव्यवहार्य हो जाते हैं उसी तरह कभी उनकी अनुचित व्याख्या भी अप्रिय वातावरण को जन्म देती है। भारत में  कुछ राजनीतिक समूहों को जातियों में केवल हिन्दू बंटे दिखते हैं जबकि ईसाई, मुसलमान और अन्य सभी सम्प्रदायों के लोग हिन्दुओं से कहीं अधिक विद्रूप सामाजिकता को जीते आ रहे हैं। जिनके विभेद उनके भयावह इतिहास में भरे पड़े हैं। 

रिलीजन और मजहब दोनों के समर्थकों को भारतीय हिन्दू समाज सबसे आसान शिकार लगता है। इसलिए मतान्तरण का खेल निरन्तर चल रहा है। भारतीय लोकतंत्र मतान्तरण की चक्की के दो पाटों के बीच फंसा है। हिन्दू समाज को खंडित करके अपने साजिश में फंसाने के प्रयत्न किये जाते हैं।