हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता - राकेश सैन
राकेश सैन
ऑपरेशन सिन्दूर पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में कहा कि ‘मैं गर्व से कह सकता हूं कि कोई भी हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता।’ गृहमंत्री ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि वोट बैंक की राजनीति के लिए उसने भगवा आतंकवाद का झूठा सिद्धान्त बनाया। कांग्रेस ने बहुसंख्यक समुदाय को बदनाम करने की कोशिश की, लेकिन भारत की जनता ने इस झूठ को नकार दिया। अमित शाह का उक्त कथन उन लोगों के तो गले बिल्कुल नहीं उतर रहा जो अभी तक इसी विमर्श को पल्लवित-पोषित करते आ रहे हैं कि ‘आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता’।
निष्पक्ष हो कर बयान को परखा जाए तो सामने आता है कि इसमें न तो अतिरंजना है, न मनावेश या अतिश्योक्ति, बल्कि यह ऐतिहासिक सत्य, भारत-भूमि पर पनपा प्रमाणिक हिमालयी तथ्य है कि हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता।
सबसे पहले जानें कि आतंकवाद आता कहां से है, इसका वीर्य क्या है? असल में विश्व में ईश्वर को लेकर दो तरह की अवधारणाएं या मार्ग हैं, एक सनातन व दूसरा सेमेटिक या सामी। सभी मार्ग सम्मानित हैं, पर इनमें मौलिक अन्तर हैं। सेमेटिक मजहब में ईश्वर का एक निश्चित संदेशवाहक या पैगम्बर या दूत, एक ही धर्म ग्रन्थ रहता है – जैसे इस्लाम, ईसाई व यहूदी मजहब। उक्त सभी मजहब अपने-अपने पैगम्बर को ईश्वर का अंतिम दूत और अपने-अपने धर्म ग्रन्थों में वर्णित बातों को ही ईश्वर का अंतिम सन्देश मानते हैं। सामी मजहब वाले केवल ऐसा मानते ही नहीं, बल्कि अपने पैगम्बर व ग्रन्थों की बातों को दूसरे से श्रेष्ठ मानते हुए उन पर थोपने का प्रयास भी करते हैं। धीरे-धीरे इनके अनुयायियों में श्रेष्ठता की यही ग्रन्थी केवल मजहबी उन्माद तक ही सीमित नहीं रहती, बल्कि रहन-सहन, खान-पीन, भाषा-वाणी अर्थात जीवन के हर क्षेत्र को संक्रमित कर देती है। दूसरे को हीन समझ उस पर अपने विचार व आस्था लादने के लिए कोई क्रूसेड करता है तो कोई जिहाद। दुनिया में ईसाईयत व इस्लाम के नाम पर जो अत्याचार, हिंसा, खूनखराबा हुआ, सभी इसी श्रेष्ठा की ग्रन्थी के संक्रमण के चलते हुआ। दूसरे की आस्था के प्रति असम्मान, हिकारत, तिरस्कार में ही आतंकवाद के बीज छिपे रहते हैं। मध्य युग में ईसाईयत के नाम पर आतंकवाद फैला, परन्तु पश्चिमी समाज में आई नवचेतना के चलते इसने रूप बदल कर सेवा व लालच का ले लिया। परन्तु इस्लाम के प्रचार-प्रसार का अमानवीय ढंग निरंतर जारी रहा, जिसे आज इस्लामिक आतंकवाद कहा जाने लगा है। आज ईसाई मिशनरी सेवा व लालच के बल पर धर्मपरिवर्तन करते हैं और जिहादी बंदूक की नोक पर, दोनों का लक्ष्य एक ही है कि अपने-अपने मजहबों की संख्या बढ़ाना, चाहे साधन अलग-अलग हैं।
सामी मजहबों के विपरीत दूसरी विचारधारा है सनातन। ‘श्री अरविन्द की दृष्टि में हिन्दू और सामी मजहब’ पुस्तक में महर्षि अरविन्द कहते हैं – “जिस धार्मिक संस्कृति को हम आज हिन्दू धर्म के नाम से पुकारते हैं, उसने अपना कोई नाम नहीं रखा क्योंकि उसने स्वयं अपनी कोई साम्प्रदायिक सीमा नहीं बांधी। उसने सारे संसार को अपना अनुयायी बनाने का कोई दावा नहीं किया, किसी एकमात्र निर्दोष सिद्धांत की प्रस्थापना नहीं की, मुक्ति का कोई एक ही संकीर्ण पथ या द्वार निश्चित नहीं किया। वह कोई मत या पन्थ की अपेक्षा कहीं अधिक मानव आत्मा के ईश्वरोन्मुख प्रयास की एक सतत् विकासशील परम्परा है”।
सनातन का विचार है ‘एकम सत विप्रा बहुधा वदन्ति’ अर्थात सत्य एक है, जिसे विद्वान उसे विभिन्न नामों से बुलाते हैं।
‘अयं निज: परोवेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
अर्थात तेरे-मेरे की भावना छोटे मन का प्रतीक है, उदारचित्त वालों के लिए तो सारी पृथ्वी ही एक परिवार है। सनातन धर्म मानता है, तेरा धर्म तुझे मुबारक और मेरी आस्था मुझे। दोनों की मार्ग श्रेष्ठ हैं। मार्ग अलग-अलग हैं, परन्तु सभी की मंजिल एक है, जैसे सभी नदियां अंतत: एक समुद्र में विलीन हो जाती हैं। उसी तरह सभी पथ उस एक मंजिल पर ही मिलते हैं। यही भावना है जो हिन्दू को आतंकवादी बनने से रोकती है। इतिहास साक्षी है, कभी भारत ने तलवार के जोर पर न तो किसी के भू-भाग को कब्जाया और न ही दूसरे पर अपना धर्म या विचार थोपा। इसी सर्वसमावेशी व सर्वपन्थ समादर भाव वाली जीवन शैली के आधार पर ही अमित शाह ने राज्यसभा में डंके की चोट पर दावा किया कि हिन्दू कभी आतंकवादी नहीं हो सकता।
केवल आस्था ही क्यों, हिन्दू ने तो कभी नास्तिक या अनिश्वरवादियों को भी नहीं दुत्कारा। महर्षि चारवाक ईश्वरवाद के उलट और पूर्णत: भौतिकवादी थे। वेदों के बारे उनके विचार नकारात्मक थे, परन्तु हिन्दू समाज ने उन्हें भी महर्षि की उपाधि दी। जबकि सेमेटिक मजहबों में नास्तिकों को ‘नोन-बिलीवर या काफिर’ कह कर दण्डित करने का प्रचलन है। सनातन समाज ने कभी अपने आप को किसी देव विशेष, ग्रन्थ विशेष या व्यक्ति विशेष से नहीं बां,धा बल्कि सत्य की यात्रा को अनवरत बताया। हमारी परम्परा में देह वासना और लोकवासना की भान्ति देववासना व शास्त्र वासना को भी मुक्ति मार्ग की बाधा बताया गया है। इसी तरह की अनेक विशेषताएं हैं जो सत्य सनातन धर्म के मानने वाले अनुयायी को संकीर्ण, कट्टर व आततायी होने की अनुमति नहीं देती।