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राष्ट्र के निर्माण में शिक्षा एवं शिक्षकों का योगदान

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राष्ट्र के निर्माण में शिक्षा एवं शिक्षकों का योगदान

शिक्षा किसी भी राष्ट्र की नींव होती है और शिक्षक राष्ट्र के निर्माता। किसी भी राष्ट्र का भविष्य वहां की शिक्षा-व्यवस्था एवं शिक्षकों के चरित्र और आचरण पर ही निर्भर करता है। भारतवर्ष की महान संस्कृति की पृष्ठभूमि में भी यहां के शिक्षकों की ही त्यागयुक्त तपस्या रही है। भारत यदि विश्वगुरु के पद पर लंबे समय तक प्रतिष्ठित रहा और आज भी यदि पूरा विश्व उसकी ओर आशा भरी दृष्टि से निहारता है तो उसके पीछे यहाँ के आदर्श शिक्षकों का ही शुचितापूर्ण आचरण एवं ज्ञान के प्रति समर्पण है। यहाँ का तो ध्येयवाक्य ही रहाः-

‘एतद्देश प्रसूतस्य शकासाद् अग्रजन्मनः, स्वं-स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथ्वियां सर्व मानवः। यह वह देश है जहाँ के शिक्षकों ने धरती को बिस्तर और आसमान को चादर बनाकर स्वयं झोंपड़ियों में रहकर भी महलों के लिए सम्राट तैयार किए। त्याग और तपस्या, साधना और संकल्प, सिद्धांत और आचरण की इस पावन भूमि पर गुरु-शिष्य संबंधों की महान परंपरा रही है। क्या हम विश्वामित्र-वशिष्ठ के बिना मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की, संदीपनी मुनि के बिना श्रीकृष्ण की, द्रोण के बिना अर्जुन की, परशुराम के बिना कर्ण की, चाणक्य के बिना चंद्रगुप्त की, परमहंस रामकृष्ण के बिना स्वामी विवेकानंद की कल्पना तक कर सकते हैं? क्या एक के बिना दूसरे का अस्तित्व एवं गौरव है? क्या यह सत्य नहीं कि दोनों परस्पर पूरक हैं? क्या इसमें कोई संदेह होगा कि दोनों अन्योन्याश्रित ढ़ंग से एक-दूसरे से जुड़े हैं।

यह जगतप्रसिद्ध सत्य है कि किसी एक क्षण की कौंध या प्रेरणा जीवन में युगांतरकारी परिवर्तन ला सकती है। यहां शिक्षकों ने अपने विद्यार्थियों के जीवन में दिव्य प्रेरणा या परिवर्तनकारी कौंध का वैसा पल सजीव-साकार किया है। वे बालक में अंतर्निहित प्रतिभा के प्रस्फुटन में सहायक परिवेश को रचने-गढ़ने में सफल रहे हैं। यह दावा अतिरेकी होगा कि शिक्षक न होता तो बड़ी-से-बड़ी प्रतिभा भी सामने नहीं आ पाती। पर यह दावा स्वाभाविक है कि योग्य एवं विद्वान गुरुओं/शिक्षकों के अभाव में बहुत-सी प्रतिभाएँ असमय ही काल कवलित हो जातीं। वे संसार के सम्मुख आने से पूर्व ही अपरिचय के अंधेरे में खो जातीं। प्राचीन काल से लेकर लगभग आज तक अनेकानेक ऐसे शिक्षक-प्रशिक्षक रहे, जिन्होंने स्वयं को नेपथ्य में रखकर अपने विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य का निर्माण किया। जिन्होंने विद्यार्थियों की प्रसन्नता में अपनी प्रसन्नता, उनके सुख-दुःख में अपना सुख-दुःख और उनकी सफलता में अपने जीवन की सफलता और सार्थकता खोजी और पाई। आज भी निजी विद्यालयों- महाविद्यालयों के ऐसे अनेकानेक शिक्षक होंगें जिनके पास अपनी आवश्यकताओं की पूर्त्ति हेतु भले ही साधनों-संसाधनों का अभाव हो, पर वे अपने कर्त्तव्यों के निर्वाह में कोई कमी नहीं रखते होंगें। वे अपने विद्यार्थियों की सेवा में अहर्निश जुटे रहते हैं। आज भी ऐसे अनेकानेक शिक्षक हैं, जिनकी मूल प्रेरणा धन-प्राप्ति नहीं है। वे अध्यापन से जुड़े हैं, केवल इसलिए नहीं कि यह धनार्जन का सुगम मार्ग है, बल्कि इसलिए कि यह ज्ञान एवं सत्य के अन्वेषण, उनकी प्राप्ति एवं साझेदारी का माध्यम है, इसलिए क्योंकि यह व्यक्तित्व के सार्थक- सकारात्मक रूपांतरण का प्रत्यक्ष माध्यम है, इसलिए क्योंकि यह रचनात्मक सुख एवं संतोष का माध्यम है। एक ऐसा माध्यम जो शिक्षा के अतिरिक्त कोई अन्य कदापि नहीं हो सकता। यह गूँगे के उस गुड़ की भाँति है जिसे केवल वही आस्वादित कर सकता है जिसने इसे चखा हो। गुरु-शिष्य संबंध या शिक्षक-विद्यार्थी का आत्मीय संबंध एक लोकोत्तर अनुभूति है। यह दृश्य-जगत की नहीं, भाव-जगत की विषयवस्तु है। यह कुछ ऐसा है जैसा सूर ने कहा कि-‘‘मेरो मन अनंत कहां सुख पावै, जैसे उड़ि जहाज को पंछी, फिर जहाज पर आवै।’’ जो एक बार अध्ययन-अध्यापन से जुड़ गया, वह आजीवन इससे जुड़ा रहता है। अध्यापन एक व्यवसाय (प्रोफेशन) नहीं, प्रकृति और प्रवृत्ति है। जिनकी प्रकृति और प्रवृत्ति अध्यापन के अनुकूल नहीं वे इस क्षेत्र में टिक नहीं सकते, खींचतान के टिक भी गए तो स्वीकार्य एवं सफल नहीं हो सकते। और जिनकी प्रवृत्ति और प्रकृति अध्यापन की है, वे राष्ट्रपति-भवन से निकलने के बाद भी अध्यापक बने रहते हैं। चाहे वे डॉ राधाकृष्णन हों या ए.पी.जे.अब्दुल कलाम या कोई अन्य महानतम व्यक्तित्व, वे अंतिम पल तक सीखने-सिखाने, पढ़ने-पढ़ाने से जुड़े रहे। यह अकारण नहीं है। इसके पीछे उनकी अध्यापकीय दृष्टि है।

और यह भाव केवल अध्यापकों- प्राध्यापकों का ही हो, ऐसा बिलकुल नहीं। बल्कि भारतवर्ष के विद्यार्थी वर्ग में भी उनकी बहुश्रुत व कथित न्यूनताओं एवं भटकावों के बावजूद अपने शिक्षकों के प्रति सम्मान एवं कहीं-कहीं श्रद्धा का भाव शेष है। विश्व के किसी भी अन्य देशों की तुलना में भारत के विद्यार्थी अपने शिक्षकों से अधिक जुड़े हैं, उनकी बातें मानते हैं, केवल तर्क और तथ्य के स्तर पर ही नहीं, विश्वास एवं अनुभव के धरातल पर भी उन्हें स्वीकार करते हैं और किसी प्रकार के वाद-विवाद की स्थिति में अपने शिक्षकों के मत एवं निष्कर्ष को अंततः स्वीकार करते हैं। वर्तमान में हो रहे वैश्विक बदलावों के दौर में यह कम बड़ी उपलब्धि नहीं। भले ही कोई विद्यार्थी सफलता के शिखर को ही क्यों न छू ले, पर वह अपनी जड़, अपनी ज़मीन, अपनी नींव को नहीं भूलता! अधिक दिन नहीं हुए जब कानपुर की एक सभा में भारत के वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का एक चित्र ध्यानाकर्षण का केंद्र बिंदु बना, जिसमें वे मंच से उतरने के पश्चात् सभागार में बैठे अपने शिक्षकों के चरणस्पर्श कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त कर रहे थे। यही भारत की संस्कृति है, यही भारत के संस्कार हैं। यहाँ जिले का सबसे बड़ा अधिकारी यानी जिलाधीश तक किसी अधीनस्थ शिक्षक के भी सम्मुख आने पर अपने आसन से खड़ा हो जाता है। 

यह सराहनीय एवं अनुकरणीय होगा कि शिक्षकों को सदैव अपने इस गुरुतर दायित्व को बोध रहे। उनका सदैव यह प्रयास रहे कि विभिन्न स्रोतों से संचित ज्ञान को वे अपने विद्यार्थियों तक पहुंचाएं मनसा, वाचा, कर्मणा वे एक रहे। बंटे-बंटे न रहें। खंडित व्यक्तित्व का शिक्षक अपने विद्यार्थियों के समग्र एवं सर्वांगीण व्यक्तित्व का विकास करने में कदापि सफल और सक्षम नहीं हो सकेगा। दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी शिक्षा को अत्यधिक प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिलने के कारण शिक्षकों के चिंतन, आचरण, दृष्टिकोण में प्रायः अत्यधिक विरोधाभास देखने को मिलता है। संस्कारों में रचा-बसा ज्ञान उनसे छूटता नहीं, पर उपाधि एवं अंकों की प्रतिस्पर्द्धा में लिपटी-सिमटी शिक्षा उनकी विवशता-सी बन जाती है। असहमत होने के बावजूद वे उसके दुर्वह भार को ढोने को अभिशप्त होते हैं। परिणामतः वे स्वयं भ्रमित रहते हैं। उन्हें सही पथ का बोध नहीं रह जाता। आधा-अधूरा ज्ञान कोढ़ में खाज जैसी स्थिति निर्मित करती है। पश्चिमीकरण को आधुनिकीकरण मानने की प्रवृत्ति ने स्थिति को और विकट एवं भयावह बनाया है। वे विखंडनवादी दृष्टिकोण से शिक्षा का भी अध्ययन-अनुशीलन -आकलन करने लगे हैं। अंग्रेज़ों का उद्देश्य एक ऐसी शिक्षा-पद्धत्ति एवं पाठ्यक्रम विकसित करना था, जिसके माध्यम से वे शासन-प्रशासन के लिए दुभाषिए तैयार कर सकें। लॉर्ड मैकाले का प्रसिद्ध पत्र इसका प्रमाण है। जब उनका उद्देश्य ही रंग और रूप से भारतीय, किंतु रक्त से अंग्रेज तैयार करना था तो उस शिक्षा की सीमाएँ और न्यूनताएँ स्वयंप्रमाणित हैं। नई शिक्षा नीति शिक्षा के भारतीयकरण का एक सार्थक पहल एवं प्रयास है। शिक्षा मौलिक, परिवेशगत एवं जीवनोपयोगी होनी ही चाहिए। मिट्टी, जड़ एवं ज़मीन से कटी शिक्षा समाज और राष्ट्र पर बोझ बन जाती है। पर इसका अभिप्राय यह भी नहीं कि हम शेष विश्व से पृथक हो जाएं, जो प्राचीन है, वही श्रेष्ठ है का राग अलापें। बल्कि आज की आवश्यकता के अनुकूल हमें समग्र, वैज्ञानिक एवं तकनीकी का भरपूर उपयोग करते हुए विद्यार्थियों के सर्वांगीण विकास में सहायक युगानुकूल शिक्षा नीति एवं पाठ्यक्रम को लेकर आगे बढ़ना होगा। सुखद है कि नई शिक्षा नीति में इन सभी पहलुओं पर ध्यान दिया गया है। उसके क्रियान्वयन पर उसकी सफलता निर्भर करेगी। व्यवस्था नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन को लेकर गंभीर एवं सक्रिय है। शिक्षकों एवं संस्थाओं को भी बढ़-चढ़कर उसमें भागीदारी करनी पड़ेगी।

सहस्त्राब्दियों में यदा-कदा आने वाली कोविड जैसी महाचुनौती ने नई शिक्षा नीति के क्रियान्वयन के मार्ग में भयानक अवरोध उत्पन्न किया है। सरकार की घोषणाओं और आश्वासनों से परे यथार्थ यह है कि बहुत-से निजी विद्यालयों-महाविद्यालयों पर ताले लग चुके हैं। उनके पास अपने शैक्षिक संस्थानों के सुचारु संचालन के लिए आवश्यक धन और संसाधन नहीं हैं। लगभग डेढ़ वर्ष से विद्यार्थियों की नियमित पढ़ाई ठप्प है। शुल्क के अभाव में निजी संस्थाओं में कार्यरत शिक्षकों को वेतन नहीं मिल पा रहा है। ऐसे-ऐसे लोमहर्षक दृश्य सामने आ रहे हैं कि सिहरन पैदा होती है। निजी विद्यालय के बहुत-से शिक्षक आजीविका के लिए मज़दूरी करने को विवश हैं, बहुत-से तो रेहड़ी-ठेला लगाकर जीवनयापन कर रहे हैं। उधर ऑनलाइन शिक्षा के अतिशयोक्तिपूर्ण दावों से इतर दूरवर्त्ती क्षेत्रों में इंटरनेट और तकनीकी उपकरणों का बहुधा अभाव है। लगभग 37 प्रतिशत विद्यार्थियों के पास ऑनलाइन शिक्षण के लिए साधन और उपकरण ही नहीं हैं। जिनके पास साधन हैं भी, इंटरनेट के अथाह-अनंत सागर में उनके डूब जाने की संभावना अधिक है, किनारे लगने की क्षीण। उनकी उंगलियों के थिरकन मात्र से उनके समक्ष रंगीन-रोमांचक दृश्यों की एक ऐसी मायावी दुनिया खुलती है कि उनकी आँखें चौंधिया जाती हैं। उन्हें फिर सही-गलत की सुध नहीं रहती। माता-पिता के पास या तो समय नहीं है या समय है तो फिर यह समझ नहीं कि अवांछित सामग्रियों को देखने से अपने नौनिहालों को कैसे रोकें? फिर चौबीसों घंटे की पहरेदारी भी तो संभव नहीं! ऐसे में आशा की किरण विद्यालय और शिक्षक ही हैं। परिवार से भी अधिक विद्यालय में ही बच्चों का समाजीकरण संभव है। समाज और व्यवस्था को मिलकर कोविड की दूसरी लहर के बाद विद्यालयों को पटरी पर लाना होगा। शैक्षिक गतिविधियां सुचारु रूप से संचालित करनी होंगीं। शीघ्रातिशीघ्र विद्यालय खोलने होंगें। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो सरकारें पब,  बीयरबार, डिस्कोथैक, मॉल्स, बाज़ार आदि को खोलने के निर्णय में पल भर की देरी नहीं करतीं, वहीं विद्यालयों- महाविद्यालयों को खोलने के निर्णय को अधर में लटकाए रखती है! यह समय की मांग है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों को शिक्षा को सर्वाेच्च प्राथमिकता देनी होगी। शिक्षा पर सर्वाधिक वित्त व्यय करना होगा। केवल सरकारी ही नहीं निजी विद्यालयों की भी या तो आर्थिक सहायता करनी होगी या निःशुल्क ऋण उपलब्ध कराना होगा। यह विडंबना ही है कि एक ओर सभी सरकारें वोट-बैंक के लालच में अनुदान पर आधारित अनेकानेक अनुत्पादक नीतियों, योजनाओं, कार्यक्रमों का भार सहर्ष उठाती हैं तो दूसरी ओर शिक्षा जैसी निर्णायक, निर्माणकारी, महत्त्वपूर्ण एवं आधारभूत व्यवस्था की घनघोर उपेक्षा करती है। उस शिक्षा की, जिस पर व्यक्ति, समाज एवं देश का संपूर्ण भविष्य निर्भर करता है। कभी-कभी आश्चर्य होता है कि क्या यह वही भारतवर्ष है जहाँ का समाज अपने शिक्षण-केंद्रों एवं सभी गुरुकुलों का सारा आर्थिक भार सहर्ष वहन किया करता था! चिंताजनक है कि आज विभिन्न विद्यालयों और अभिभावकों के मध्य शुल्क को लेकर तनातनी-सी छिड़ी रहती है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण है। समाज, सरकार और शिक्षण संस्थाओं को परस्पर पूरक की भूमिका निभानी पड़ेगी। उन्हें मिलकर देश की भावी पीढ़ी के उज्ज्वल भविष्य के लिए काम करना होगा। इसी में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र का कल्याण है।