माँ
भगवती की कृपा से स्वामी विवेकानंद सिद्ध संचारक थे. उनके विचारों को सुनने के लिए
भारत से लेकर अमेरिका तक लोग लालायित रहते थे. लेकिन हिन्दू धर्म के सर्वसमावेशी
विचार को लेकर स्वामी जी कहाँ तक जा सकते थे? मनुष्य
देह की एक मर्यादा है. भारत का विचार अपने वास्तविक एवं उदात्त रूप में सर्वत्र
पहुँचे, वह गूँज उठे और उस पर सार्थक चर्चा हो, इसके लिए वह पुण्यभूमि भारत से निकलकर अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप के अन्य देशों में प्रवचन करने के लिए पहुँच
गए. उन्होंने वहाँ के समाचार-पत्रों में अपने व्याख्यानों पर केंद्रित समाचार
प्रकाशित होने के बाद समाज के गुणीजनों पर उसके प्रभाव को अनुभव किया. स्वामी
विवेकानंद ने समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं की भूमिका को पहचानकर वेदों के विचारों के
प्रसार के लिए उनका उपयोग करने पर जोर दिया. स्वामी जी की प्रेरणा एवं योजना से दो
प्रमुख समाचार पत्र प्रकाशित हुए – ब्रह्मवादिन
एवं प्रबुद्ध भारत. उन्होंने दोनों ही पत्रों की सब प्रकार से चिंता की. समाचार
पत्रों के संपादन, रूप-सज्जा एवं प्रसार पर उनकी सूक्ष्म
दृष्टि रहती थी.
स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका से 1894 में अपने शिष्य आलासिंगा पेरुमल को कई पत्र लिखे, जिनमें उन्होंने समाचार पत्र-पत्रिकाओं को लेकर चर्चा की है.
एक पत्र में स्वामी जी लिखते हैं – “यदि तुम वेदांत के आधार पर एक पत्रिका निकाल
सको तो हमारे कार्य में सहायता मिलेगी”. एक अन्य पत्र में लिखते हैं – “एक छोटी-सी
समिति की स्थापना करो और उसके मुखपत्र स्वरूप एक नियतकालिक पत्रिका निकालो. तुम
उसके संपादक बनो. पत्रिका प्रकाशन तथा प्रारंभिक कार्य के लिए कम से कम कितना व्यय
होगा, इसका विवरण मुझे भेजो तथा समिति का नाम
एवं पता भी लिखना. इस कार्य के लिए न केवल मैं स्वयं सहायता करूंगा, वरन यहां के अन्य लोगों से भी अधिक से अधिक वार्षिक चंदा भिजवाने की
व्यवस्था करूंगा”. इस तरह अमेरिका में जब उन्हें अधिक समय हो गया और शिष्यों को
अपने गुरु से दूर रहने की बेचैनी होने लगी और उन्होंने स्वामी जी से भारत लौटने का
आग्रह किया. तब स्वामी जी ने आलासिंगा को लिखा – “मुझे कुछ काम करके दिखाओ – एक
मंदिर, एक प्रेस, एक पत्रिका और हम लोगों के ठहरने के लिए एक मकान”. ध्यान दें
कि उन्होंने वेदांत के प्रसार-प्रचार के लिए अपने शिष्यों से एक प्रेस की अपेक्षा
की.
स्वामी
जी के निर्देश पर उनके शिष्यों ने ‘ब्रह्मवादिन’ एवं ‘प्रबुद्ध भारत’ का प्रकाशन तो प्रारंभ कर दिया, लेकिन
समाचार पत्रों के प्रकाशन का पर्याप्त अनुभव नहीं होने के कारण अनेक प्रकार की
समस्याएं खड़ी होने लगीं. जब स्वामी जी के ध्यान में यह बात आई तो उन्होंने कहा भी
कि भले ही हमारे पत्र व्यावसायिक दृष्टि से नहीं निकाले जा रहे हैं, लेकिन यह है तो एक व्यवसाय ही. इसलिए समाचार पत्र के व्यावसायिक पक्ष
को ध्यान में रखना होगा. यद्यपि स्वामी विवेकानंद भारत से प्रकाशित अपने समाचार
पत्रों के लिए अमेरिका में धन संग्रह करते थे. परंतु इस बात को भी भली प्रकार
समझते थे कि अमेरिका के धनिकों के बल पर लंबे समय तक भारत के समाचार पत्रों को
संचालित नहीं किया जा सकता. भारत के लोग ही अपने समाचार पत्रों की चिंता करेंगे, तभी वांछित परिणाम प्राप्त होंगे. इसलिए वे अपने शिष्यों को
कहते थे कि भारत से प्रकाशित समाचार पत्रों के आर्थिक प्रबंधन की चिंता वहीं के लोगों
को करनी चाहिए.
स्वामी विवेकानंद पत्रिका के
उद्देश्य को ध्यान में रखकर उसमें प्रकाशित सामग्री के चयन एवं उनकी भाषा-शैली को
लेकर भी सचेत रहते थे. ‘ब्रह्मवादिन’ के एक अंक में कठोर भाषा में लिखा एक पत्र प्रकाशित हो गया.
इस पर स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका से ही आलासिंगा को लिखा – “तुमने ‘ब्रह्मवादिन’ में ‘क’ का एक
पत्र प्रकाशित किया है, उसका प्रकाशन न होना ही अच्छा था.
थियोसॉफिस्टों ने ‘क’ की जो
खबर ली है, उससे वह जल-भुन रहा है. साथ ही उस
प्रकार का पत्र सभ्यजनोचित भी नहीं है, ,उससे सभी
लोगों पर छींटाकशी होती है. ब्रह्मवादिन की नीति से वह मेल भी नहीं खाता. अतः
भविष्य में यदि कभी किसी संप्रदाय के विरुद्ध चाहे वह कितना ही खब्ती और उद्धत हो, कुछ लिखे तो उसे नरम करके ही छापना. कोई भी संप्रदाय, चाहे वह बुरा हो या भला, उसके
विरुद्ध ब्रह्मवादिन में कोई लेख प्रकाशित नहीं होना चाहिए. इसका अर्थ यह भी नहीं
है कि प्रवंचकों के साथ जानबूझकर सहानुभूति दिखानी चाहिए”. स्वामी जी ब्रह्मवादिन
के माध्यम से समाज में सकारात्मक वातावरण चाहते थे, इसलिए
उनका मत था कि पाठकों के पास जो सामग्री पहुँचे, उसमें
किसी प्रकार नकारात्मकता, कठोरता या द्वेष के भाव न हों.
एक बात ध्यान रखें कि स्वामी
विवेकानंद भारतीय विचार के प्रसार लिए समाचार पत्रों का उपयोग करने के हामी थे, परंतु वे उन पर आश्रित नहीं थे. उनके शिष्य संगठन खड़ा करने का कार्य
छोड़कर पूरी तरह सिर्फ समाचार पत्रों के प्रकाशन एवं प्रचार-प्रसार पर ही ध्यान
केंद्रित करने लगें, यह स्थिति निर्मित न हो, इस ओर भी उनका ध्यान था. स्वामी जी 28 मई 1894 को आलासिंगा को लिखते हैं –
“समाचार–पत्र चलाना निःसंदेह ठीक है, पर अनंत
काल तक चिल्लाने और कलम घिसने की अपेक्षा कण मात्र भी सच्चा काम कहीं बढ़कर है.
भट्टाचार्य के घर पर एक सभा बुलाओ और कुछ धन जमाकर मैजिक लैंटर्न, कुछ मानचित्र और कुछ रासायनिक पदार्थ खरीदो, एक कुटिया किराए पर लो और काम में लग जाओ! यही मुख्य काम है, पत्रिका आदि गौण हैं”. जहाँ एक ओर वे समाचार पत्रों की भूमिका
को समझकर उनके प्रकाशन एवं विस्तार पर जोर देते हैं, वहीं
दूसरी ओर अपने शिष्यों को चेताते हैं कि यह मूल कार्य नहीं है, मूलकार्य तो जनता के बीच प्रत्यक्ष कार्य करना है. समाज से
प्रत्यक्ष साक्षात्कार के अभाव में न तो समाज की चुनौतियों की अनुभूति होती है और
न ही कार्य ठीक दिशा में आगे बढ़ता है.
अमेरिका की ‘शिकागो इंटीरियर’ पत्रिका
का रुख विशेष रूप से स्वामी विवेकानंद को लेकर निंदात्मक था. स्वामी जी इसे पागल
इंटीरियर कहते थे. आलोचनात्मक या कहें निंदात्मक लेखन से शिष्य निराश न हों और इस
प्रकार की सामग्री को अनदेखा कर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहें, इसलिए भी स्वामी जी समझाते थे – “मेरे संबंध में कुछ दिनों के अंतर
में ईसाई मिशनरी पत्रिकाओं में दोषारोपण किया जाता है. परंतु उसे पढ़ने की मुझे
कोई इच्छा नहीं है. यदि तुम भारत की ऐसी पत्रिकाएं भेजोगे तो मैं उन्हें भी रद्दी
कागज की टोकरी में डाल दूंगा. मेरे विषय में लोग क्या कहते हैं, इसकी ओर ध्यान न देना, चाहे वे
अच्छा कहें या बुरा. तुम अपने काम में लगे रहो…. मिशनरी ईसाइयों के झूठे वर्णन की
ओर तुम्हें ध्यान ही नहीं देना चाहिए. पूर्ण मौन ही उनका सर्वोत्तम खंडन है”.
इस तरह हम देखते हैं कि सिद्ध
संचारक होने के साथ ही स्वामी विवेकानंद को समाज जागरण के लिए संचार माध्यमों का
कुशलतापूर्वक उपयोग करने की भी सिद्धता थी. स्वामी जी समाचार पत्रों की शक्ति, समाचार पत्रों के सदुपयोग एवं दुरुपयोग के प्रति अपने शिष्यों
को भली प्रकार अवगत कराते रहते हैं. इस दिशा में स्वामी जी की दृष्टि का अध्ययन
करें तो ध्यान आता है कि वे समाचार पत्रों को नकारात्मक विचारों से मुक्त करके
उन्हें सकारात्मक साधन बनाने पर जोर देते हैं.
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं.)
(नोट: ये लेखक के निजी विचार हैं)