प्रेस पर सेंसरशिप
आपातकाल के पहले भारत में हजारों समाचार पत्र/पत्रिकाएं निकलती थीं। उस समय अखबारों के प्रकाशन के मामले में हम अमेरिका और जापान के बाद तीसरे नंबर पर थे। उस समय मीडिया “शब्द का चलन नहीं था, अखबारों को सामूहिक रूप से प्रेस कहा जाता था। वर्ष 1969 में इंदिरा गांधी ने कांग्र्रेस का विभाजन कर उस पर कब्जा कर लिया। इंदिरा कांग्रेस बना दी गई। उसके बाद से ही उनका प्रेस से झगड़ा शुरू हुआ। प्रेस ने सरकार के जनविरोधी कामों का विरोध शुरू किया। प्रेस विपक्ष के समर्थन में खड़ा हुआ। प्रेस का बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय विचारों का समर्थक था। 1969 के बाद से भारत के प्रेस में दो धड़े साफ-साफ दिख रहे थे। एक अंग्रेजी प्रेस का छोटा सा हिस्सा था, जो इंदिरा गांधी का आंख मूंद कर समर्थन कर रहा था। वैसे ही एक हिंदी अखबारों का छोटा सा हिस्सा था, जो इंदिरा गांधी का समर्थन कर रहा था। लेकिन एक बड़ा हिस्सा अंगेजी और हिंदी अखबारों का इंदिरा गांधी के संगठन और सरकार की नीतियों का विरोध कर रहा था। धीरे-धीरे यह विरोध तेज होता गया और 1975 में 25-26 जून की रात को इमरजेंसी लगाकर इंदिरा गांधी की सरकार ने प्रेस का गला घोंट दिया।
यह सही है कि प्रेस का दमन इमरजेंसी के पहले से शुरू हो गया था। इंदिरा गांधी के विचारों का विरोध करने वाली प्रेस के विज्ञापन कम कर दिए गए। ऐसे पत्रकारों को सरकारी सुविधाएं भी नहीं दी जाती थीं। सच्चाई यही है कि विज्ञापन नहीं हों, तो मीडिया चल ही नहीं सकता। सरकारें विज्ञापन का बड़ा स्रोत होती हैं। जहां-जहां कांग्रेस की सरकारें थीं, उन्होंने अपने विरोधी मीडिया के विज्ञापन कम कर दिए। नतीजा ये हुआ कि कई अखबारों को जनता के डोनेशन से अखबार चलाने पड़े। ये बड़ी बात है कम आमदनी वाले लोगों ने अखबार चलाने के लिए पैसे दिए। अनेक सरकार विरोधी अखबार समाज के योगदान के कारण ही चल सके। बड़ी मात्रा में राष्ट्रीय विचारों वाले अखबार जनता के पैसे से निकले और इंदिरा गांधी जैसे अधिनायकवादियों से टक्कर लेते रहे।
सरकार द्वारा प्रेस का दुरुपयोग:-
जब आपातकाल लगा तो इंद्रकुमार गुजराल सूचना-प्रसारण राज्य मंत्री थे। दिल्ली के रामलीला मैदान में 25 जून को जेपी की बड़ी रैली हुई थी। उस समय दूरदर्शन अकेला टीवी चैनल था। उस समय की सबसे मशहूर फिल्म थी बॉबी और वो देश के कई सिनेमाघरों में चल रही थी। लेकिन जेपी की रैली को नाकाम करने के इरादे से सरकार ने बॉबी फिल्म के राइट खरीदे और रैली वाले दिन उसे दूरदर्शन पर दिखाया। लेकिन लोग फिल्म में रुचि न दिखा कर रैली में शामिल होने बड़ी संख्या में जा पहुंचे। रैली में युवाओं की उपस्थिति सबसे ज्यादा थी। आग में घी का काम दूरदर्शन ने जेपी की रैली की फुटेज दिखा कर कर दिया। आकाशवाणी पर भी समाचार प्रसारित हुआ। यही वजह रही कि इंद्र कुमार गुजराल को सूचना-प्रसारण मंत्रालय छोड़ना पड़ा। विद्याचरण शुक्ल नए मंत्री बनाए गए। उस समय डिफेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी एक्ट के प्रावधान 1962 से ही लागू थे। एक्ट के नियम 48 के तहत प्रेस पर सेंसरशिप लागू की जा सकती थी। उसी के अंतर्गत प्रेस पर सेंसरशिप लागू की गई। प्री सेंसरशिप यानी अखबार में खबर छपने के पहले उसकी जांच का नियम लागू कर दिया गया। दिल्ली में एक चीफ सेंसर नियुक्त हुआ और सब अखबारों को सेंसरशिप के नियम भेजे गए। साथ ही ताकीद भी की गई कि ये नियम अखबार में छपने नहीं चाहिए। मीडिया को बताया गया कि संजय गांधी को युवा और स्वभाविक नेता के रूप में उभारना है और इंदिरा गांधी की सरकार की हर नीति को जनसमर्थक बताना है। कई जगह, जैसे महाराष्ट्र और गुजरात में चीफ सेंसर कांग्रेस समर्थक वरिष्ठ पत्रकार थे।
दिल्ली में समाचार पत्रों के सभी बड़े संस्थानों इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाइम्स, स्टेट्समैन, पायनियर और पैट्रियॉट इत्यादि में सेंसर अधिकारी बैठा दिए गए। यह जानना दिलचस्प होगा कि सेंसर अधिकारी के रूप में दिल्ली पुलिस के हवलदारों तक को तैनात किया गया। इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका ने प्री सेंसरशिप को मुंबई हाई कोर्ट में चौलेंज किया।
एक आंकड़ा आया था कि सरकारी टीवी पर पांच हजार घंटे संजय गांधी का फुटेज अलग-अलग तरीके से दिखाया गया। सैकड़ों फिल्में इंदिरा जी पर बनाई गईं। सैकड़ों फिल्में संजय गांधी की बनाई गईं। इनमें दिखाया गया कि किस तरह गरीबों के लिए काम किया जा रहा है।
सिनेमा जगत में सेंसरशिप:-
सूचना प्रसार.ा मंत्री बनते ही विद्याचरण शुक्ल ने सारे प्रोड्यूसरों, डायरेक्टरों और कलाकारों के साथ मुंबई और दिल्ली में बैठक की और उन्हें किसी भी ऐसे विषय पर फिल्में बनाने के लिए मना किया, जिससे सरकार को आपत्ति थी। किस्सा कुर्सी का फिल्म का बड़ा रोचक किस्सा है। निर्माता अमृत नाहटा ने इस फिल्म में दिखाया था कि राजनैतिक सत्ता किस तरह से हथियाई जाती है, राजनैतिक भ्रष्टाचार किस तरह से किया जाता है। इमरजेंसी से पहले सेंसर बोर्ड ने फिल्म को कुछ कट लगाकर पास कर दिया था, लेकिन इंमरजेंसी की आहट थी इसिलिए अंतिम निर्णय के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय को भेज दिया गया। विद्याचरण शुक्ल ने फिल्म के सारे पिं्रट जब्त कर लिए। नाहटा सुप्रीम कोर्ट चले गए। कोर्ट ने सरकार के आदेश को सही ठहराया और सरकार को फिल्म के नेगेटिव सुरक्षित रखने को कहा। जब इमरजेंसी खत्म हुई, शाह कमीशन की जांच शुरू हुई तो किस्सा कुर्सी का फिल्म के नेगेटिव नहीं मिले, क्योंकि ऑरिजिनल नेगेटिव जला दिए गए थे। अमृत नाहटा ने दोबारा किस्सा कुर्सी का फिल्म बनाई और फिर वो इमरजेंसी के बाद दिखाई गई। आंदोलन नाम की एक फिल्म पर नाम की वजह से ही रोक लगा दी गई। उसी समय हॉलीवुड की एक बहुत मशहूर फिल्म ‘वाटर गेट कांड’ पर आई थी। वॉशिंगटन पोस्ट के खोजी संवाददाताओं ने वाटर गेट कांड का पर्दाफाश किया था और अपनी आपबीती एक पुस्तक के रूप में ऑल द प्रेसीडेंट्स मेन शीर्षक से लिखी थी। उस पर बनी फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने अपनी सत्ता कायम रखने के लिए विरोधी पार्टी के दफ्तर में सेंध लगवा कर कंप्यूटर से फाइलें चोरी कराईं, पिं्रट निकाले और कंप्यूटर उठवा लिए। इस कांड की जांच में पाया गया कि राष्ट्रपति का सुरक्षा सलाहकार तक इसमें शामिल था। हॉलीवुड की इस फिल्म को भारत में दिखाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
विदेशी और घरेलू मीडिया के साथ बर्ताव:-
भारत में विदेशी अखबारों के संवाददाताओं की मान्यता खत्म कर दी गई थी। बीबीसी के मार्क टुली को रातों रात देश छोड़ने का आदेश दिया गया। हालांकि बाद में वे भारत में ही बसे। सभी विदेशी अखबारों के ब्यूरो बंद कर दिए गए। 25 जून की रात को अखबारों की बिजली काट दी गई, ताकि अगले दिन वे आपातकाल की खबर न छाप सकें। मैं रायपुर के एक अखबार युगधर्म में काम करता था। रायपुर विद्याचर.ा शुक्ल का गृहनगर था, अतः उन्हें जानकारी थी कि युगधर्म राष्ट्रवादी विचारों वाला समाचार पत्र था। हमारी भी बिजली 25 जून की रात को काटी गई। दिल्ली से निकलने वाले मदरलैंड के जाने-माने संपादक के. आर. मलकानी को गिरफ्तार कर लिया गया था। युगधर्म के संपादक को भी गिरफ्तार करने पुलिस 25 जून की रात को पहुंची, लेकिन हमने उन्हें पहले ही कहीं और भेज दिया था। लगभग 800 अखबारों की बिजली काटी गई थी। दिल्ली के अखबारों में से इंडियन एक्सप्रेस ने इमरजेंसी के विरोध में सबसे अधिक लड़ाई लड़ी। साथ ही स्टेट्समेन के संपादक भी ताल ठोक कर खड़े रहे। नतीजा यह हुआ कि इंडियन एक्सप्रेस के खिलाफ पचासों तरह की इमकम टैक्स की, हवाला की, जमीन कब्जा करने की न जाने कितनी जांच शुरू कर दी गईं। इमरजेंसी के दौरान रामनाथ गोयनका के विज्ञापन बंद कर दिए गए। उन्होंने अपने उद्योग पति मित्रों से चंदा लेकर स्टाफ को 19 महीने तक तनख्वाह दी।
कितनी ही पाबंदियां लगा दी जाएं, सूचना और जानकारी को रोका नहीं जा सकता। जितना अधिक रोकेंगे, उतनी जोर से वे निकलेंगी। नतीजा यह हुआ कि समाज में समानांतर मीडिया प्रचलित हो गया। सैकड़ों की संख्या में पर्चे, पोस्टर, साइक्लोस्टाइल जानकारियां प्रचलित होने लगीं। उनमें बहुत सारी अफवाहें भी होती थीं। लेकिन असली खबरें भी लोगों को मिलने लगीं। कुल मिलाकर एक समानांतर मीडिया देश में खड़ा हो गया, जिसने वास्तविक मीडिया को ताकत दी। उसी ताकत का परिणाम था कि इमरजेंसी हटते ही मीडिया फिर से खड़ा हो गया।
न्यूज ऐजेंसियों की स्थिति:-
पीटीआई को सरकारी ऐजेंसी माना जाता था। यूएनआई थोड़ा सरकार विरोधी एजेंसी थी। एक एजेंसी समाचार भारती थी, जो सरकार समर्थक थी। हिंदुस्थान समाचार को राष्ट्रीय विचारों की एजेंसी माना जाता था। यह 16 भाषाओं में बहुत अधिक समाचार देती थी। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध घोषित किया, तो सबसे पहले यह समाचार हिंदुस्थान समाचार ने ही दिया था। बीबीसी ने उसकी सूचना के आधार पर ही खबर प्रसारित की थी। इससे नाराज होकर इंदिरा गांधी ने चारों ऐजेंसियों को मर्ज कर दिया। जहां आज दूरदर्शन भवन है, वह जगह हिंदुस्तान समाचार को अलॉट थी। एजेंसी के भवन पर बुलडोजर चला दिया गया। बाद में वहां दूरदर्शन भवन बना। चारों एजेंसियों को मिलाकर समाचार नाम की एक एजेंसी बना दी गई, जिसका काम सिर्फ इंदिरा और संजय गांधी के भाषणों का प्रचार-प्रचार करना ही रह गया।
राष्ट्रवादी अखबारों की स्थिति:-
मदरलैंड अंग्रेजी का नया दैनिक अखबार आपातकाल के कुछ समय पहले ही निकला था और उसने भारते के बड़े राष्ट्रीय समाचार पत्रों को पीछे छोड़ दिया था। मदरलैंड के संपादक मलकानी जी अपने अखबार में सरकार के भ्रष्टाचार की, पुलिस की दादागीरी की और कांग्रेस सरकार के सारे गलत कार्यों की खबरें प्रमुखता से छापते थे। मदरलैंड कम संख्या में छपता था मगर हर दूसरे दिन पार्लियामेंट में मदरलैंड की स्टोरी पर चर्चा होती थी। आपातकाल लगने के तुरंत बाद संपादक मलकानी को गिरफ्तार कर लिया गया। मदरलैंड, ऑर्गनाइजर और पाञ्चजन्य, ये तीनों प्रकाशन भारत प्रकाशन, दिल्ली लिमिटेड से निकलते थे। स्वदेश ग्वालियर, स्वदेश इंदौर, युगधर्म, दक्षिण भारत में केसरी, कन्नड़ और असमियां के अखबार... राष्ट्रवादी अखबारों की लंबी लिस्ट थी। इन अखबारों से संपादक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता रहे थे। स्वाभाविक था कि सबसे पहले उनकी गिरफ्तारी का आदेश आया। लेकिन हैरत की बात है कि शाह कमीशन की रिपोर्ट में उल्लेख आता है कि राष्ट्रीय मीडिया के बहुत कम लोग गिरफ्तार हुए थे। सच्चाई यही है कि राष्ट्रीय विचारों वाले मीडिया कर्मी ही अधिक पकड़े गए थे और उनमें भी ऐसे लोग ज्यादा थे, जिनका संबंध आरएसएस, विद्यार्थी परिषद या दूसरे समान विचारों वाले संगठनों से था। उन्हें बीच में रिहा नहीं किया गया, जिसके कारण बहुत से राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाएं बंद हो गईं।
आपातकाल के बाद प्रेस की स्थिति:-
सत्ता विरोधी मीडिया को लंबे समय तक विज्ञापन नहीं मिले। इस कारण कई तो बंद हो गए। जिस अखबार में मैं काम करता था, आपातकाल के बाद मुश्किल से वह साल भर भी नहीं चल पाया। उसके तीनों संस्करण बंद करने पड़े। संस्था के पास कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं थे, अखबार का कागज खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, स्याही खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। हालांकि लोग मुफ्त में काम करने को तैयार थे, लेकिन सबकी आर्थिक जरूरतें थीं, सबके परिवार थे। इस तरह अनेक समाचार पत्र बंद हो गए। अनेक पत्रिकाएं बंद हो गईं। कई लोग कर्ज में डूब गए, जो व्यक्तिगत रूप से पत्र-पत्रिकाएं, चलाते थे, उनके बाल-बच्चों को बाद में कर्ज चुकाना पड़ा प्रेस को बहुत बड़ा आघात लगा था, जिससे उभरने में मीडिया को बहुत समय लगा।