आपातकाल एक काला अध्याय
भारत के साथ पूरी दुनिया के लोग उस समय चकित रह गए थे जब 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा के चुनाव को अवैध घोषित कर दिया। उन्हें भ्रष्ट आचरण के आरोपों में अदालत ने छह वर्ष के लिए चुनाव प्रक्रिया के अयोग्य घोषित करते हुए पाबंदी लगा दी थी।
कोई सोच नहीं सकता था कि दुनिया में एक बड़ी ताकत मानी जाने वाली इंदिरा गांधी के विरुद्ध अदालत से इतना बड़ा फैसला आ सकता है। देश और दुनिया के लोग इंतजार कर रहे थे कि अब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र दे देंगी। लोगों का क्षोभ बढ़ने लगा, जब ऐसा कुछ नहीं हुआ। अदालत का निर्णय था, जनता का दबाव था, इंदिरा गांधी की अपनी शैली थी। भला वे सत्ता छोडऩे के लिए कैसे तैयार हो जातीं ? अपनी हेठी के लिए जो कुछ भी करना पड़े करूंगी, यही मनोवृत्ति उनके मन मस्तिष्क पर हावी हो चुकी थी। देश में फैले जनाक्रोश को बल मिल चुका था। कई दिन बीतने के बाद दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली का आयोजन किया गया, जिसे बाबू जयप्रकाश नारायण संबोधित करने पहुंचे। बड़ा जनसैलाब उमड़ पड़ा।
स्वाभाविक क्षोभ देशभर में फैल चुका था। लोग चाहते थे कि इंदिरा गांधी सत्ता से हटें। दूसरी ओर दिल्ली की पुलिस इस हुक्म का इंतजार कर रही थी कि सभा में आए लोगों पर कब धावा बोलना है। यह जन सैलाब ही था जो इंदिरा गांधी और उनके खास लोगों को पुलिस ज्यादती करने से रोके रहा। बाबू जयप्रकाश का भाषण बहुत मर्मस्पर्शी था। वे स्वयं आश्चर्यचकित थे कि भारत में लोकतंत्र की रक्षा के लिए इतने लोग उठ खड़े हुए हैं। जनसमुद्र शांतिपूर्वक आया, धैर्यपूर्वक रुका रहा और शालीनता से चला गया। इंदिरा गांधी को यह समझ में आ गया कि अब सहजता से वह सत्ता में नहीं रह सकतीं। दिन प्रतिदिन आक्रोश बढ़ेगा क्योंकि जहां कहीं भी जयप्रकाश नारायण जातें वहां लाखों लोगों की भीड़ जुटने लगी।
इंदिरा गांधी के लिए फैसले की घड़ी थी। पद त्यागो और न्याय पालिका, जनतंत्र की मर्यादाओं का पालन करो, ये बात उन्हें मंजूर नहीं थी। उन्होंने अलग राह चुनी। कुछ विश्लेषक मानते हैं कि उनके कुछ विदेशी सलाहकारों ने उन्हें तानाशाही की राह पर कदम बढ़ाने की सलाह दी। ये बात उनके गले उतर गई। संभव है कि विदेशी सलाह की बात किसी की कल्पना पर आधारित हो। क्योंकि इसका कोई प्रमाण नहीं जुटाया जा सका। इंदिरा गांधी ने तय किया कि वह सत्ता से नहीं हटेंगी। अन्ततः 25-26 जून की रात उन्होंने देश में आपातकाल लागू कर दिया। इसकी तैयारी वे कई दिनों से कर रही थीं। सारे देश में प्रशासनिक तंत्र उन लोगों की सूची बनाने में जुटा था, जिन्हें आपातकाल लगाते ही जेलों में ठूंस देना था। यही हुआ भी सब तरफ आतंक व्याप्त हो गया।
उत्तर प्रदेश में उस समय कांग्रेस की ही सरकार थी। हेमवती नंदन बहुगुणा मुख्यमंत्री थे। उन्हें इंदिरा गांधी के प्रति अपनी वफादारी का इम्तिहान देना था। उनकी नियुक्ति इस पद पर 8 नवम्बर, 1973 को हुई थी। मुख्यमंत्री बनाने के बाद भी बहुगुणा जी पर इंदिरा जी की भौंहे तनी रहती थीं। स्वयं को सच्चा सिपाही साबित करना उस समय कांग्रेस की कल्चर में शामिल था। इसलिए उत्तर प्रदेश का कोई जिला ऐसा नहीं था जहां इंदिरा गांधी का विरोध करने वालों को उनकी तुर्शी न झेलनी पड़ी हो। आपातकाल की ऐसी आंच कि थोड़े ही दिनों में हर नागरिक झुलसने लगा। पहले दौर में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विपक्षी दलों के नेताओं को जेल में ठूंस दिया गया। जो जहां मिला वैसे ही उठाकर जेल भेज दिया जाता। देश के बड़े नेता जयप्रकाश नारायण, मोरारजी भाई देसाई, अटल बिहारी बाजपेयी, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर सभी जेल भेज दिए गए थे। उत्तर प्रदेश के भी नेता रातों-रात जेल पहुंचा दिए गए। एक साथ पूरे देश में तानाशाही की धमक कायम करने का निर्देश इंदिरा गांधी का था। समाचार पत्रों पर तत्काल प्रभाव से अंकुश लग गया। प्रशासन का एक अधिकारी समाचार पत्र के दफ्तरों में बैठने लगा। उसकी अनुमति के बिना कुछ भी छापा नहीं जा सकता था। लोकतंत्र का नाश करने पर तुले कांग्रेस के लोग इंदिरा गांधी द्वारा प्रेस सेंसरशिप लागू करने से बहुत आल्हादित थे। आंतरिक सुरक्षा कानून के ऐसे प्रावधान लागू हो चुके थे, जिनमें किसी को भी कितने भी समय के लिए जेल में डाला जा सकता था। एकाएक सारा देश भय के माहौल में कैद हो गया। संपूर्ण देशवासी अपने को भयभीत अनुभव कर रहे थे। आतंक फैलाने के लिए पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्हें भय था कि यदि इंदिरा गांधी की इच्छा के अनुसार जनता पर कहर बरपा नहीं किया तो उन्हें भी जेल जाना पड़ सकता है।
इंदिरा गांधी ने 1971 का चुनाव गरीबी हटाओ के नारे के साथ जीता था। गरीबी हटाना तो क्या, उसे टस से मस करने की कूबत भी उनके नेतृत्व में नहीं थी, क्योंकि सारा सरकारी अमला भ्रष्टाचार की रोटियां खा रहा था। जनता की समस्याएं विकराल हो चुकी थीं, जनता के साथ छलावा करके चुनाव जीता गया था। गुजरात और बिहार में आंदोलन तेज हो चुके थे। भ्रष्टाचार और बेकारी के विरुद्ध छिड़े इन आंदोलनों ने इंदिरा गांधी की नींद हराम कर दी थी। बिहार के गफूर खां, हरियाणा के बंसी लाल, पंजाब के जैल सिंह ऐसे नेता थे, जिनको लेकर जनता में नित नई कहानियां कही-सुनी जाती थीं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को बदलने की योजना बनी। वरिष्ठता को ताक पर रख दिया गया। तीन न्यायाधीशों को लांघ कर ऐसे न्यायाधीश को प्रतिष्ठित किया गया, जो इंदिरा गांधी के प्रति वफादार थे। सेना में भी अनचाहा बदलाव हुआ। 1971 की लड़ाई के प्रसिद्ध सेनापतियों को पीछे कर एक महाशय को आगे लाया गया और सेनाध्यक्ष बना दिया गया। कई अखबारों के संपादक बदलवाए गए। आकाशवाणी को निगम बनाने का विचार त्याग दिया गया। उसे इंदिरा रेडियो में परिणीत कर दिया गया। सीमित लोकतंत्र की बातें भी इंदिरा गांधी के खेमे से उठने लगीं। ये सब इंदिरा गांधी के पूर्व नियोजित तानाशाही के कार्यक्रमों से जुड़ी बातें थीं। तब तक 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आ गया। इसलिए ये कहना अनुचित है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के कारण ही इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया। तानाशाही की दिशा में वे पहले से आगे बढ़ गई थीं। न्यायालय ने उनका लोकसभा का चुनाव रद्द कर दिया. ऐसी हालत में उन्हें तत्परता दिखाकर तानाशाही के फैसले लागू करने पड़े। कांग्रेस पहले ही उनकी मुठ्ठी में थी। डी.के.बरुआ कांग्रेस के अध्यक्ष थे। उन्होंने कहना शुरू किया- इंदिरा इज इंडिया एंड इंडिया इज इंदिरा। चापलूसी की ऐसी मिसाल पैदा की जाने लगी कि पूरा देश शर्मसार होने लगा। उधर विपक्षी दल अगले चुनाव की तैयारियों में व्यस्त थे कि इंदिरा गांधी को परास्त किया जा सके।
सभी दलों का गठबंधन इंदिरा के विरुद्ध बनाना उस समय के विपक्षी दलों के नेताओं का लक्ष्य था। विद्याचरण शुक्ल उस समय सूचना मंत्री थे। झूठे प्रचार की सारी हदें उन्होंने पार कर दी थीं। कभी सीता, कभी दुर्गा, कभी काली तो कभी महालक्ष्मी जैसे संबोधनों से सरकारी तंत्र इंदिरा गांधी को नवाज रहा था। प्रचार तंत्र का सीधा लक्ष्य लोकतंत्र को नष्ट करने पर टिक गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ ही जमायते इस्लामी जैसे संगठनों को भी प्रतिबंधित किया गया। ताकि कोई ये न कह सके कि किसी एक धर्म के लोगों के प्रति इन्दिरा गांधी ज्यादतियां कर रही हैं।
इमर्जेंसी लागू करने के एक सप्ताह के भीतर देश भर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 25,000 से अधिक प्रमुख लोगों को पकड़ कर जेल में डाल दिया गया। जमायते इस्लामी और ऐसे कुछ अन्य संगठनों के 1,500 लोग जेल भेजे गए थे। विचित्र बात ये थी कि जिसे जेल भेजा जाता, प्रशासन तंत्र उस पर तार काटने, रेल पटरी उखाडऩे, कचहरी जलाने, सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने जैसे मनगढ़ंत आरोप लगा देता। ऐसा ऊपर से मिले निर्देशों के आधार पर ही हो रहा था। जेल में डाले गए सभी लोगों को अपराधियों की तरह घातक यातनाएं दी जा रही थी। आपस में संपर्क करने की मनाही थी। समाज में भी कोई एक स्थान पर एकत्र करके चर्चा नहीं कर सकता था। उस समय लोकसंघर्ष समिति का गठन हुआ। नानाजी देशमुख लोगों से मिलकर उनका मनोबल बढ़ाने में जुट गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपने तंत्र को संघर्ष के लिए तैयार कर लिया और सत्याग्रह करने का आह्वान हुआ। जैसे ही छोटी-छोटी टोलियां देश भर में सत्याग्रह के लिए निकलनी शुरू हुईं, तानाशाही की कुर्सियों पर झूल रहे इंदिरा गांधी के चापलूस नेता, मंत्री और प्रशासनिक अधिकारी गुस्से से कांप उठे। उन्हें लगा कि इतनी जुर्रत कोई कैसे कर सकता है? इसलिए आंदोलनकारियों पर बर्बर अत्याचार प्रारंभ हो गए। इंदिरा गांधी से निर्देश मिले कि देश भर में जो लोग उनका विरोध करने की सोच रखते हों, उन्हें पकड़ कर इतनी यातनाएं दी जाएं कि समाज में आतंक फैल जाय और फिर कभी कोई सत्याग्रह करने की बात न सोचे। मुझे अच्छी तरह याद है कि 11 नवंबर, 1975 को देश भर में पहली बार आंदोलन का सिलसिला शुरू हुआ। ज्यादतियां चरम पर थीं। जेल जाने वालों को पता नहीं था कि वे जीवित लौट सकेंगे या नहीं। हजारों माता, बहनों, बच्चों ने अपने परिवारों के बुजुर्गों, युवकों और किशोरों को आंदोलन में भाग लेने के लिए तिलक करना प्रारंभ कर दिया। बड़े कारुणिक दृश्य सामने आते थे। जब लोकतंत्र की रक्षा के लिए आंदोलन करने निकले लोगों पर बर्बर ढंग से लाठियां बरसनी शुरू होतीं और उन्हें इतना पीटा जाता कि वे अपने पैरों चल न पाते, अपने हाथों रोटी का निवाला भी मुंह में न डाल पाते। इन ज्यादतियों के कारण जेल गए तमाम लोगों ने कुछ ही दिनों में लोकतंत्र की बेदी पर अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। धन्य हैं वे लोग जिन्होंने भारत मां के सच्चे सपूत के रूप में अपनी आहुतियां दीं, किसी एक परिवार की तानाशाही का विरोध करने के लिए जंग लड़ी। ऐसे शहीदों की स्मृतियां भले ही आज चंद लोगों तक सीमित रह गई हों किंतु भारत माता की कोख में पले उन सपूतों की याद इस धरा को अवश्य सताती होगी। लोकतंत्र का अभिनय करने वालों के लिए वह अभियान गाथा, एक बड़ा सबक है।
उस समय देश भर में प्रो. राजेंद्र सिंह रज्जू भैया, अशोक सिंघल, लक्ष्मण श्रीकृष्ण भिड़े, ठाकुर राजनीति सिंह, श्रीकृष्ण दास, कौशलेंद्र जी, जयगोपाल जी, गुरजन सिंह, ठाकुर संकठा प्रसाद सिंह, बालजी त्रिपाठी, ब्रजभूषण जी, श्रीप्रकाश जी, रामलखन जी, वीरेंद्र सिंह, अवध बिहारी जी, योगेंद्रजी, सूबेदार सिंह, जयप्रकाश चतुर्वेदी, पुरुषोत्तम नारायण सिंह, महेश नारायण सिंह जी, दिनेश गुप्त, ओमप्रकाश जी आदि ने भूमिगत रहकर कार्यकर्ताओं का मनोबल तो बढ़ाया ही, इंदिरा गांधी की तानाशाही की जड़ें भी खोद दीं। पूरे देश में इसी प्रकार बड़ी संख्या में संघ के वरिष्ठ प्रचारक, गृहस्थ कार्यकर्ता, विस्तारक और समाज के जागरूक लोगों ने आंदोलन की बागडोर अपने हाथों में संभाली। अंततः इंदिरा गांधी को तानाशाही के कदम पीछे उठाने पड़े। 21 माह बाद देश से तानाशाही हटी और नए चुनाव हुए।