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विशेष

पीड़ितों को नागरिकता देने का कानून

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नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) के नियम अधिसूचित हो गए हैं. लोकसभा चुनाव के ठीक पहले कानून को अमल में लाना भाजपा की चुनावी रणनीति का हिस्सा भी माना जा सकता है. कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी दल सीएए को लेकर दुष्प्रचार करते रहे हैं कि इससे मुसलमानों की नागरिकता संकट में पड़ जाएगी. जबकि कानून में देश के किसी भी धर्म से जुड़े नागरिक की नागरिकता छीनने का कोई प्रावधान ही नहीं है, हां घुसपैठियों को जरूर नागरिकता सिद्ध नहीं होने पर बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है. संसद और उसके बाहर ऐसे अनेक बौद्धिक आलोचक थे, जो यह प्रमाणित करने में लगे थे कि यह कानून ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ अर्थात संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है. लेकिन यह संदेह जम्मू-कश्मीर से हटाई गई धारा-370 और 35-ए की तरह ही संवैधानिक है.

कानून का मुख्य लक्ष्य धार्मिक आधार पर प्रताड़ित हिन्दू, सिक्ख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई हैं, जिन्हें पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से पलायन को मजबूर होना पड़ा. भारत में आकर शरणार्थी जीवन जी रहे इन समुदायों के लोगों को अब देश की नागरिकता मिलना आसान होगा. आवेदन करने के लिए पोर्टल भी लॉंच कर दिया गया है. शरणार्थी आवश्यक दस्तावेजों के साथ पोर्टल के माध्यम से आवेदन कर सकते हैं. आवेदन करने वालों को 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत में प्रवेश का वीजा और अप्रवासी होने के प्रमाण देने होंगे.

जाहिर है, यह कानून किसी धर्म या संप्रदाय के आधार पर भेदभाव से नहीं जुड़ा है. यह कानून किसी की नागरिकता छीनने का नहीं, बल्कि देने का कानून है. यह विधेयक मूल रूप में 1955 के नागरिकता विधेयक में ही कुछ परिवर्तन करके अस्तित्व में लाया गया है. 1955 में यह कानून देश में दुःखद विभाजन के कारण बनाया गया था. उस समय बड़ी संख्या में अलग-अलग धर्मों के लोग पाकिस्तान से भारत आए थे. इनमें हिन्दू, सिक्ख. जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई थे. कुछ लोग भारत से पाकिस्तान भी गए थे. इस आवागमन में सांप्रदायिक दंगे भी हुए, जिनमें ज्यादातर हिन्दू मारे गए थे. बावजूद भारत ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश बनाने का निर्णय लिया. लेकिन पाकिस्तान ने खुद को इस्लामिक राष्ट्र घोषित कर दिया. पाक के संस्थापक और बंटवारे के दोषी मोहम्मद अली जिन्ना के प्रजातांत्रिक सिद्धांत तत्काल नेस्तनाबूद कर दिए गए. 1948 में जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान पूरी तरह कट्टर मुस्लिम राष्ट्र में बदलता चला गया. नतीजतन गैर-मुस्लिम समुदाय को प्रताड़ित करने के साथ उनकी स्त्रियों के साथ दुराचार व धर्म परिवर्तन का सिलसिला तेज हो गया. ऐसे में गैर मुस्लिम पलायन कर भारत आने लगे. दरअसल इन गैर-मुस्लिमों का भारत के अलावा कोई दूसरा ठिकाना इसलिए नहीं था, क्योंकि पड़ोसी अफगानिस्तान भी कट्टर इस्लामिक देश बन गया था. 1955 तक ही करीब 45 लाख हिन्दू और सिक्ख जान बचाकर भारत आ गए थे. इसके दृष्टिगत ही नागरिकता निर्धारण विधेयक 1955 बनाया गया था.

1971 में जब पाकिस्तान से अलग होकर बांग्लादेश बना तो हिन्दुओं सहित अन्य गैर-मुस्लिमों पर विकट अत्याचार हुए. फलतः इनके पलायन और धर्मस्थलों को तोड़ने का सिलसिला तेज हो गया. नतीजतन बड़ी संख्या में हिन्दुओं के साथ बांग्लादेशी एवं पाकिस्तानी मुस्लिम भी बेहतर भविष्य के लिए भारत चले आए. जबकि वे धर्म के आधार पर प्रताड़ित नहीं थे. ये घुसपैठिए बनाम शरणार्थी पूर्वोत्तर के सातों राज्यों सहित पश्चिम बंगाल में भी घुसे चले आए. इनकी संख्या तीन करोड़ तक बताई जाती है. शरणार्थियों की तो सूची है, लेकिन घुसपैठिए केवल अनुमान के आधार पर हैं. दरअसल, घुसपैठियों को बाहर करने की बात इनके भारत में दस्तक देने के साथ ही हो गई थी.

26 सितंबर, 1947 को एक प्रार्थना सभा में महात्मा गांधी ने कहा था कि पाकिस्तान में जो हिन्दू एवं सिक्ख प्रताड़ित किए जा रहे हैं, उनकी मदद हम करेंगे. 1985 में केंद्र में जब राजीव गांधी की सरकार थी, तब असम में घुसपैठियों के विरुद्ध जबरदस्त प्रदर्शन हुए थे. नतीजतन राजीव गांधी और आंदोलनकारियों के बीच एक समझौता हुआ, जिसमें घुसपैठियों को क्रमबद्ध खदेड़ने की शर्त रखी गई. लेकिन इस पर अमल नहीं हुआ. डॉ. मनमोहन सिंह ने प्रधानमंत्री रहते हुए सदन में कहा था कि यदि पाकिस्तान व बांग्लादेश  में धार्मिक अल्पसंख्यक प्रताड़ित किए जा रहे हैं और वे पलायन को मजबूर हुए हैं, तो उन्हें भारतीय नागरिकता दी जानी चाहिए. किंतु मनमोहन सिंह ने लगातार दस साल प्रधानमंत्री रहने के बावजूद इस दिशा में कोई पहल नहीं की. जबकि, असम में इस दौरान कांग्रेस की सरकार थी और मनमोहन सिंह यहीं से राज्यसभा सदस्य थे.

यदि नेहरु और लियाकत अली के बीच हुए समझौते का पालन पाक ने किया होता तो भारत को इस चिधेयक की न तो 1955 में बनाने की जरूरत पड़ती और न ही इसमें अब संशोधन होता. दरअसल पाक, बांग्लादेश और अफगानिस्तान ऐसे मुस्लिम बहुल देश हैं, जिनमें गैर-मुस्लिम नागरिकों पर अत्याचार और स्त्रियों के साथ दुष्कर्म की घटनाएं आम हैं. 1947 में जब भारत से अलग होकर पाकिस्तान नया देश बना था, तब वहां 20 से 22 प्रतिशत गैर-मुस्लिमों की आबादी थी, जो अब घटकर दो प्रतिशत रह गई है.

अफगानिस्तान में 2 लाख हिन्दू और सिक्ख थे. जो निरंतर प्रताड़ना के चलते महज 500 रह गए हैं. पाकिस्तान ने बंटवारे के समय दलित हिन्दुओं को केवल इसलिए रोक कर रखा, कि वे वहां गंदगी और मल-मूत्र साफ करते रहें. इन्हें आज भी न तो वोट का अधिकार प्राप्त है और न ही वहां चल रही लोक-कल्याणकारी योजनाओं का लाभ ले पाते हैं. इन्हें किसी भी तरह का चुनाव लड़ने का अधिकार भी नहीं है. नतीजतन 1947 से भी ज्यादा बद्तर जीवन वर्तमान में गुजार रहे हैं.

जब बांग्लादेश वजूद में आया, तब वहां आजादी की लड़ाई लड़ रहे मुक्ति संग्राम के जवानों ने गैर-मुस्लिम स्त्री व पुरुषों पर अत्याचार किए कि वे भारत की ओर पलायन करने को मजबूर हुए. इन लोगों की संख्या 10 लाख से भी अधिक थी. बांग्लादेश के समाज के मिजाज पर निगाहें रखने वाले समाजशास्त्री इस्माइल सादिक, रॉबिन डिसूजा व पुरंदर देवरॉय बहुत पहले लिख चुके हैं कि – ‘वहां के समाज का बड़ा हिस्सा धार्मिक अल्पसंख्यकों की आजादी को पसंद नहीं करता है. इन समुदायों के पर्व-त्योहारों पर इसलिए आक्रामक हो उठता है, ताकि वे अपने पर्वों को मनाने से डरें और पलायन को विवश हों. हम सब जानते हैं कि अफगानिस्तान के आतंकवादियों ने वामियान की चट्टानों पर उकेरी गईं भगवान बुद्ध की मूर्तियों को तोपों से सिर्फ इसलिए उड़ा दिया था, क्योंकि वे भिन्न धर्म से संबंध रखती थीं. इससे पता चलता है कि इन देशों में बहुसंख्यक धर्मावलंबी, दूसरे धार्मिक समुदायों को कतई पसंद नहीं करते हैं.

ऐसे गैर-मुस्लिम अब तक भारत में पहचान छिपाकर रहने को मजबूर थे, क्योंकि उनके पास भारतीय नागरिकता नहीं थी. छह धर्मों से जुड़े ऐसे गैर-मुस्लिमों को कानून में नागरिकता देने के प्रावधान किए गए हैं. 

मूल नागरिकता कानून में किसी को भी भारत का नागरिक बनने के लिए लगातार 11 वर्षों तक भारत में रहने की शर्त पूरी करनी होती है. नए विधेयक में इसे घटाया गया है. यह इसलिए आवश्यक था, क्योंकि कि भारत में जो गैर-मुस्लिम धर्म के आधार पर सताए जाने के कारण आए हैं, उनके पास भारत के अलावा कोई ठिकाना नहीं है? जो घुसपैठिये हैं, वे तो किसी भी मुस्लिम देश में शरण ले सकते हैं. इसलिए इस ऐतिहासिक कानून के वजूद में आने के बाद न तो भारत की पंथ निपेक्षता प्रभावित होती है और न ही उसके उदार व सहिष्णु चरित्र को हानि पहुंचती है. क्योंकि भारत ने तो उदार सहिष्णुता दर्शाते हुए उन लोगों को नागरिकता का अधिकार देने के कानूनी उपाय किए हैं, जिन्हें धर्म के आधार पर इस्लामिक देशों ने प्रताड़ित किया.