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पंच परिवर्तन से समाज परिवर्तन

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पंच परिवर्तन से समाज परिवर्तन   

भारतीय समाज की सनातन संस्कृति नित नूतन चिर पुरातन  संस्कृति है। भारतीय समाज एवम उसकी सनातन संस्कृति ने संपूर्ण विश्व को वसुधैव कुटुंबकम् का विचार, प्रकृति की पूजा, स्व का आत्मबोध, राष्ट्र  पर मर मिटने वाले नागरिक कर्तव्यों की मिशाल एवं सबको समान रूप से देखने का दृष्टिकोण दिया है जो केवल सामाजिक परिवर्तन का ही नही बल्कि विश्व कल्याण का मार्ग भी प्रशस्त करता है। वस्तुतः समाज परिवर्तन कोई अचानक घट जाने वाला चमत्कार नहीं है। यह न तो केवल सत्ता परिवर्तन से होता है, न ही केवल नीतियों और कानूनों की रचना से। वास्तविक परिवर्तन तब जन्म लेता है जब मनुष्य स्वयं अपने भीतर जागरण का दीप जलाता है और उस प्रकाश को परिवार, समाज तथा राष्ट्र तक फैलाने का संकल्प करता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इसी सत्य को समझते हुए ”पंच परिवर्तन“ की अवधारणा को रूपायित किया है - एक ऐसा मानवीय अभियान जिसमें व्यक्ति, परिवार और समाज मिलकर नवचेतना की सरिता प्रवाहित करते हैं।

ये पाँच परिवर्तन- कुटुंब प्रबोधन, स्व का बोध, सामाजिक समरसता, पर्यावरण, और नागरिक कर्तव्य जो सिर्फ कार्यक्रम नहीं, बल्कि जीवन को श्रेष्ठ बनाने की सात्विक दिशा रेखाएँ हैं। इन पाँचों का समन्वित प्रभाव समाज को भीतर से मजबूती प्रदान करता है और राष्ट्र को विकास की नई ऊँचाइयों तक ले जाता है। 

1. कुटुंब प्रबोधन: संस्कारों का प्रथम केन्द्र - समाज की मूल इकाई कुटुंब है। परिवार की स्वस्थ संरचना ही राष्ट्र के स्वास्थ्य की आधारशिला है। आज जबकि जीवन की भागदौड़, तकनीकी चकाचौंध और मनोवैज्ञानिक तनाव ने परिवारों में दूरी बढ़ाई है, कुटुंब प्रबोधन का महत्व और भी गहरा हो गया है। कुटुंब प्रबोधन का अर्थ केवल संयुक्त परिवार या साथ रहने की बात नहीं है, बल्कि परिवार में भावनात्मक संवाद, प्रेम, सहयोग, और संस्कारों की परंपरा को सुदृढ़ करना है। यह वह धार है जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सद्गुणों का प्रवाह बनाए रखती है। यदि परिवार में संवाद टूट जाए, संबंध औपचारिक हो जाएँ और जीवन का ध्येय केवल भौतिक उपलब्धियों तक सिमट जाए, तो समाज स्वार्थ, विसंवाद और अविश्वास से भरने लगता है। कुटुंब प्रबोधन सिखाता है कि, भोजन केवल शरीर को पोषण नहीं देता, बल्कि साथ बैठकर खाने से मन में अपनत्व का संचार होता है। घर के संस्कारों में जीवन का नैतिक अनुशासन गढ़ा जाता है। परिवार का हर सदस्य अपने कर्तव्यों को समझकर निभाए, तभी परिवार एक इकाई की तरह मजबूत खड़ा रहता है। जब प्रत्येक परिवार अपने भीतर सद्भाव और संस्कृतिमय वातावरण का निर्माण करता है, तब समाज में भी सकारात्मकता और परस्पर विश्वास की जड़ें पनपती हैं। इसीलिए, कुटुंब प्रबोधन समाज परिवर्तन का प्रथम आधार है।

2. स्व का बोध: आत्मजागरण से राष्ट्रजागरण - यदि मनुष्य स्वयं को नहीं जानता, अपनी शक्तियों और उत्तरदायित्वों को नहीं पहचानता, तो वह किसी भी परिवर्तन का योग्य साधक नहीं बन सकता। स्व का बोध वही आंतरिक जागरण है जो व्यक्ति को अपने अस्तित्व, क्षमताओं और कर्तव्यों के प्रति सजग बनाता है। यह बोध व्यक्ति को बताता है कि वह प्रकृति की एक अनमोल रचना है, उसमें अपार क्षमता है, और दुनिया में उसका जन्म केवल उपभोग के लिए नहीं, बल्कि सृजन के लिए हुआ है। जिस व्यक्ति को अपनी सामर्थ्य पर विश्वास होता है, वह समस्याओं के सामने झुकता नहीं, बल्कि नए समाधान खोजता है। स्वबोध से व्यक्ति के भीतर साहस, आत्मानुशासन और सकारात्मक दृष्टि का प्रस्फुटन होता है। साथ ही, संघ की विचारधारा में ‘स्व’ का अर्थ केवल ‘अहंकार’ नहीं, बल्कि आत्मा की विशालता हैकृवह चेतना जो स्वयं को समग्र समाज का अंग मानती है। जब व्यक्ति जागता है, तो समाज भी जागता है; और जब समाज जागता है, तब राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है।

3. सामाजिक समरसता: विविधता में एकता का साकार रूप - भारत विविधताओं की भूमि है- भाषा, संस्कृति, आस्था, परंपरा, वेशभूषा, भोजन और रीति-रिवाज की असंख्य धाराएँ यहाँ प्रवाहित होती हैं। परंतु इन विविधताओं को ही कभी-कभी विभाजन का कारण बना दिया जाता है। सामाजिक समरसता इस विघटनकारी प्रवृत्ति का प्रतिरोध करती है और समाज को एकसूत्र में बांधती है। सामाजिक समरसता का अर्थ ‘समानता’ नहीं, बल्कि समान मानवीय गरिमा है। इसमें किसी की जाति, धर्म, वर्ण या आर्थिक स्थिति के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाता। समरस समाज वह है, जहाँ हर व्यक्ति दूसरे को समान सम्मान देता है, जहाँ अवसर सभी के लिए खुला है, जहाँ किसी के साथ अन्याय न हो, और जहाँ समाज अपनी विविधता को अपनी शक्ति के रूप में स्वीकार करता है। यदि समाज में विभाजन, कटुता और असमानता का वातावरण हो, तो राष्ट्र कमजोर पड़ जाता है। लेकिन जब समरसता की धारा बहती है, तो परस्पर सहयोग, भाईचारा और सामाजिक शक्ति कई गुना बढ़ जाती है। सामाजिक समरसता समाज परिवर्तन की वह धुरी है जो सबको साथ लेकर चलने का मंत्र देती है।

4. पर्यावरण: प्रकृति संरक्षण से मानव संरक्षण - प्रकृति केवल संसाधन नहीं, हमारा जीवन आधार है। आज मानव ने प्रगति की दौड़ में अपने ही जीवन-सहयोगी पर्यावरण को क्षीण कर दिया है- नदियाँ प्रदूषित, जंगल घटते, जीव-जंतु विलुप्त, वायु विषाक्त। पर्यावरण परिवर्तन का अर्थ केवल पौधे लगाना नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ संतुलित और संवेदनशील व्यवहार सीखना है। इसमें जल संरक्षण, ऊर्जा की बचत, अपशिष्ट प्रबंधन, प्राकृतिक संसाधनों का संतुलित उपयोग जैसी जीवनशैली शामिल है। हमें यह याद रखना चाहिए कि प्रकृति बदलेगी, तो हमारा भविष्य बदलेगा। यदि हम पर्यावरण की उपेक्षा करेंगे, तो अगली पीढ़ियों को ऐसा ग्रह मिलेगा जो साँस लेने के लिए भी संघर्ष करेगा। पर्यावरण संरक्षण कर्तव्य केवल सरकारों का नहीं, बल्कि हर नागरिक का है। जब व्यक्ति, परिवार और समाज प्रकृति संरक्षण की दिशा में कदम बढ़ाते हैं, तो धरती के दीर्घकालिक स्वास्थ्य की रक्षा होती है।

5. नागरिक कर्तव्य: अधिकारों से आगे बढ़कर कर्तव्यों की ओर - लोकतंत्र अधिकार देता है, परंतु उसे मजबूत बनाते हैं कर्तव्य। नागरिक कर्तव्य वह सेतु है जो व्यक्ति को राष्ट्र से जोड़ता है। हर नागरिक का दायित्व है कि- वह कानून का पालन करे, राष्ट्र की एकता की रक्षा करे, सामाजिक सौहार्द बनाए रखे, कर, श्रम और समाजहित के कार्यों में ईमानदारी दिखाए, और राष्ट्र के विकास में अपना योगदान दे। जो समाज केवल अधिकारों की बात करता है, वह विभाजित और निर्बल होता है। लेकिन जिस समाज का नागरिक अपने कर्तव्यों को आत्मसात कर लेता है, वह राष्ट्र महान बनता है। कर्तव्यनिष्ठ नागरिक देश का सबसे बड़ा संसाधन हैं। उनका चरित्र, अनुशासन और जागरूकता ही राष्ट्र को विश्वगुरु बनने की राह दिखाते हैं। समाज परिवर्तन की सुनिश्चित राह: ये पाँचों परिवर्तन अलग-अलग धाराएँ जरूर हैं, परंतु इनका लक्ष्य एक ही है- समाज को भीतर से बदलना, संस्कारों से सजाना और मानवीय मूल्यों से संपन्न करना।

कुटुंब प्रबोधन समाज की जड़ों को मजबूत करता है। स्व का बोध व्यक्ति को जागरूक और आत्मविश्वासी बनाता है। सामाजिक समरसता समाज को एकसूत्र में बांधती है।

पर्यावरण संरक्षण जीवन के आधार को सुरक्षित करता है। नागरिक कर्तव्य राष्ट्र को प्रगति के मार्ग पर ले जाता है। जब यह पाँचों परिवर्तन जीवन का हिस्सा बन जाते हैं, तो समाज में नैतिकता, सहयोग, संतुलन और सामूहिकता का उदय होता है। इस प्रकार समाज परिवर्तन किसी बाहरी दबाव से नहीं, बल्कि भीतर से उपजी शक्ति से होता है और वही परिवर्तन स्थायी और मंगलकारी होता है। पंच-परिवर्तन की अवधारणा एक महान जीवन-दर्शन प्रस्तुत करती है। यह व्यक्ति को स्वयं में परिवर्तन का दीप जलाने और समाज के अंधकार को दूर करने में सक्रिय भागीदारी की प्रेरणा देती है। जब मनुष्य अपने परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति सजग और उत्तरदायी बनता है, तब समाज परिवर्तन की गति और दिशा दोनों ही उज्ज्वल हो जाती हैं।

आज जब संपूर्ण विश्व मूल्य-संकट से जूझ रही है, तब पंच-परिवर्तन ऐसा मार्गदर्शन प्रदान करते हैं जो भारतीय संस्कृति की जड़ों से जुड़ा है और आधुनिक युग की आवश्यकताओं के अनुकूल भी है। यदि हम इन पाँच परिवर्तनों को अपने जीवन का अंग बना लें, तो निश्चित ही एक सशक्त, समरस, पर्यावरण- स्नेही, कर्तव्यनिष्ठ और संस्कारित समाज का निर्माण होगा, और यही वास्तविक समाज परिवर्तन है।