स्व, समरसता और नारी सशक्तीकरण की प्रेरणापुंज: रानी दुर्गावती
पुण्यभूमि भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं के हजारों वर्षों के आक्रमणों और षड्यंत्रों के बाद आज भी केसरिया पताका फहराने का श्रेय माँ भारती की जिन संतानों को दिया जा सकता है उनमें शौर्य, देश प्रेम एवं शासन निपुणता की बेजोड़ प्रतिमूर्ति रानी दुर्गावती प्रमुख हैं। रानी दुर्गावती का जन्म महोबा के चंदेल राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय के यहाँ वर्ष 1524 में दुर्गाअष्टमी के दिन कालिंजर किले में हुआ था। दुर्गावती का बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारबाजी एवं तीरंदाजी में प्रवीण होना, पिता के साथ जंगलों में खतरनाक जानवरों का शिकार करना, ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’ जैसी लोकोक्ति को शब्दशः चरितार्थ करता है। वर्ष 1542 में 18 वर्ष की आयु में दुर्गावती का विवाह गढ़-कटंगा के गोंड राजा संग्राम शाह के दत्तक पुत्र दलपत शाह से हुआ। यह विवाह सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है और उन आलोचकों को करारा जवाब है जो भारतीय समाज को जाति/ वर्णों में बांटकर पहले कमजोर और फिर नष्ट करने का षड्यन्त्र कर रहे हैं। घने जंगलों और पहाड़ियों के बीच सामरिक दृष्टि से निर्मित किए गए कुल 52 किलों वाले गढ़-कटंगा साम्राज्य का नाम ‘गढ़ा’ नामक नगर और ‘कटंगा’ नामक गांव से लिया गया। विवाह के दो वर्ष बाद दुर्गावती के पुत्र वीर नारायण का जन्म हुआ। दुर्भाग्य से विवाह के कुछ वर्ष बाद वर्ष 1548 में उनके पति का निधन हो गया और गढ़-कटंगा पर संकट के काले बादल छा गए। शायद इन्हीं स्थितियों के लिए राष्ट्रकवि दिनकर लिखते हैं, ”उस पुण्य भूमि पर आज तपी, रे आन पड़ा संकट कराल। व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे, डंस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।।“ ऐसे समय में गढ़-मंडला को बचाने की चुनौती दुर्गावती ने स्वीकार की और वीर नारायण के प्रतिनिधि के रूप में राज्य की बागडोर स्वयं संभाल ली। अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल के अनुसार दुर्गावती के शासन के अंतर्गत 70,000 गांव थे जिसमें से 23,000 गांव में भरपूर खेती होती थी। इतिहासकारों के अनुसार रानी दुर्गावती का साम्राज्य पूर्व से पश्चिम 400 किलोमीटर और उत्तर से दक्षिण 193 किलोमीटर तक फैला हुआ था। रानी दुर्गावती ने अपने पूरे राज्य में शांति, व्यापार, समरसता और जन सुविधाएं बढ़ाने पर जोर दिया। उनके राज्य में जल प्रबंधन अद्भुत एवं अद्वितीय था। उन्होंने जनसमुदाय के लिए अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, स्वयं के नाम पर रानीताल तथा अपने दीवान के नाम पर आधारताल जैसे जलाशयों का निर्माण कराया तथा शिक्षा, ज्ञान के केंद्र भी खुलवाए। हिन्दू धर्म के पुष्टिमार्ग संप्रदाय के प्रवर्तक वल्लभाचार्य के पुत्र आचार्य विट्ठलनाथ को गढ़ा में पुष्टिमार्ग पंथ का केन्द्र स्थापित करने की सुविधाएं दीं। सामरिक कारणों से उन्होंने अपनी राजधानी सिंगोरगढ़ किले से चौरागढ़ किले में स्थानांतरित कर दी। वर्ष 1548 में शासन की बागडोर संभालने से लेकर वर्ष 1564 में बलिदान होने तक रानी दुर्गावती का कुल सोलह वर्षों में लगभग पचास युद्धों का नेतृत्व करना और सब में विजयी होना ‘स्व’ के लिए उनकी प्रतिबद्धता दर्शाता है। दुर्गावती के सुशासन का ही परिणाम था कि तत्कालीन भारत में वह अकेला ऐसा राज्य था जहां की जनता अपना लगान स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों में चुकाती थी। इसके साथ ही उन्होंने बालिकाओं को शिक्षित व सशक्त करने पर बल दिया। लड़कियों को युद्ध कौशल सिखाकर पूरी तरह तैयार करके सेना में शामिल किया गया था। गोंडवाना साम्राज्य में 500 वर्ष पहले महिला बटालियन होना, दुर्गावती की दूरदर्शिता और प्रगतिशील सोच को दर्शाता है।
वर्ष 1556 में मालवा के सुल्तान बाज बहादुर ने रानी को महिला व अबला समझ गोंडवाना पर हमला बोला। परंतु रानी दुर्गावती ने बाज बहादुर को बुरी तरह परास्त कर दिया। वर्ष 1562 में अकबर ने मालवा को मुगल साम्राज्य में मिला लिया और रीवा पर अब्दुल मजीद आसफ खान का कब्जा हो गया। रीवा और मालवा दोनों गोंडवाना की सीमाओं को छूते थे और इस तरह अकबर के निशाने पर गोंडवाना भी आ गया। उसने इसे अपने राज्य में मिलाने की कोशिश आरंभ कर दी। आसफ खान ने गोंडवाना पर आक्रमण किया, लेकिन दुर्गावती के आगे उसकी एक न चली। वर्ष 1564 में आसफ खान ने पुनः आक्रमण कर दिया। पहले दिन की जीत के बाद दुर्गावती ने जब युद्ध परिषद् में रात में ही हमले का प्रस्ताव रखा तो परिषद् ने सनातन मूल्यों का हवाला देते हुए उसे अस्वीकार कर दिया। अगले दिन दुश्मन सेना ने बड़ी तोपों और भारी सेना के साथ दर्रे में प्रवेश किया। बहादुर रानी अपने हाथी, सरमन पर सवार होकर अपने पुत्र के साथ युद्ध के मैदान में डट गयीं, दोनों मुगल सैनिकों को कई बार पीछे धकेलने में सफल रहे। लड़ाई जब तक चलती रही, तब तक कि वीर नारायण बुरी तरह से घायल नहीं हो गए। इसके बाद भी रानी तब तक लड़ती रहीं जब तक वह दाहिनी कनपटी और गर्दन में लगे तीरों से घायल नहीं हो गईं। जब वह होश में आईं तो उन्हें हार और पकड़े जाने पर होने वाले दुराचरण का अहसास हो चुका था। अतः उन्होंने अपने सैन्य अधिकारी को उन्हें मार डालने के लिए कहा, परंतु उसके मना करने पर उन्होंने अपने ही खंजर से 24 जून 1564 को देश और संस्कृति की रक्षा के लिए स्वयं बलिदान दे दिया। इसके बाद आसफ खां चौरागढ़ किले को घेर लेता है, जिसे वीर नारायण ने अपनी बहादुरी से अंत तक बचाया हुआ था। हार सुनिश्चित जान अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु लगभग 5000 नारियों ने जौहर किया और वीर नारायण लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। दुर्गावती की कहानी को कई साल बाद ब्रिटिश कर्नल स्लीमैन ने भी लिखा, जिसमें उन्होंने रानी को गढ़ा-कटंगा पर शासन करने वाले सभी संप्रभुओं में सर्वाधिक श्रद्धेय माना। मंडला जिले का गजेटियर लिखता है कि ”रानी दुर्गावती दुनिया की महान महिलाओं में गिनी जाने योग्य हैं“। श्त्ंदप क्नतहंूंजपरू ज्ीम थ्वतहवजजमद स्पमि व िं ॅंततपवत फनममदश् की लेखिका नंदिनी सेनगुप्ता के शब्दों में दुर्गावती विचारों से अत्याधुनिक एवं अपने समय से बहुत आगे थीं।
यह विडंबना ही है कि रानी दुर्गावती को इतिहास में अभी तक वह सम्मान नहीं मिल सका जिसके वो योग्य थीं। फिर भी पिछले कुछ समय में राज्य और केंद्र की सरकारों ने कुछ सराहनीय प्रयास किए हैं जिससे रानी दुर्गावती के योगदान को भारतीय जनमानस के सम्मुख लाया जा सके और नई पीढ़ी उनसे प्रेरित हो सके। इसी क्रम में 1976 में जबलपुर स्थित संग्रहालय का नाम रानी दुर्गावती संग्रहालय रखना, वर्ष 1983 में जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय करना, जबलपुर में बरेला के निकट नरिया नाला में रानी की समाधि पर प्रतिवर्ष 24 जून को ‘बलिदान दिवस’ मनाया जाना, भारत सरकार द्वारा 24 जून 1988 को दुर्गावती के बलिदान दिवस पर तथा उनके 500 वें जन्मदिन 5 अक्टूबर 2023 को डाक टिकट जारी किया जाना, वर्ष 2018 में भारतीय तटरक्षक बल द्वारा अपने तीसरे तटीय गश्ती पोत (आईपीवी) का नाम ‘आईसीजीएस रानी दुर्गावती’ रखा जाना, जबलपुर और जम्मू-तवी के बीच चलने वाली ट्रेन का नाम दुर्गावती एक्सप्रेस रखा जाना, मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव द्वारा रानी दुर्गावती के 500 वें जन्मदिवस पर सिंगरामपुर में अपनी कैबिनेट बैठक कर जबलपुर में 100 करोड़ की लागत से रानी दुर्गावती स्मारक तथा उद्यान बनाने को स्वीकृति देना आदि ऐसे कुछ प्रयास हैं जो दुर्गावती के संघर्ष, देशप्रेम और दूरदर्शिता को नई पीढ़ी तक पहुंचाने में सहायक होंगे। निःसंदेह दुर्गावती ने अपने नाम को चरितार्थ किया और दुर्गा की मानव अवतार सिद्ध हुईं। उन्होंने सामाजिक समरसता और स्व का मंत्र हम सबको दिया। उन्होंने संप्रभुता का सौदा न करके उसे मरते दम तक अक्षुण्ण रखा। उन्होंने इस भ्रम को भी तोड़ा कि महिला शासक कमजोर होती है और उन्हें हराना आसान होता है। वो महिला सशक्तीकरण की एक अद्भुत मिसाल हैं। उन्होंने अपने राज्य को मुगलों के हाथों में जाने से बचाने के लिए अपने जीवन की बाजी लगा दी। वीरांगना दुर्गावती के ‘स्व’ के संघर्ष ने रानी लम्मीबाई एवं रानी अहिल्याबाई होल्कर जैसी अनगिनत महिला शासकों को प्रेरित किया।




