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प्रभु श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा एक संकल्प पूर्ति का क्षण भी और एक शुभारंभ भी

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डॉ. मनमोहन वैद्य

सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

22 जनवरी, 2024 को अयोध्या स्थित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर में श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है, संपूर्ण भारत वर्ष में ही नहीं विश्व भर में उत्साह, उल्लास और उत्सव का वातावरण दिख रहा है.

5 अगस्त, 2020 को जब राममंदिर शिलान्यास समारंभ पूर्वक किया गया, तब भी ऐसा ही उत्साह और उत्सव का वातावरण सर्वत्र था. उस दिन अयोध्या में यह राम मंदिर शिलान्यास का नेत्रदीपक समारंभ समूचे भारत, और विश्व भर में फैले भारतीय मूल के लोग और भारत प्रेमियों ने जी भर कर देखा. अगणित लोगों को यह दृश्य एक स्वप्नपूर्ति का अनुभव और आनंद दे गया. लम्बे संघर्ष के बाद यह महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त हुई थी. असंख्य भारतीयों के चेहरों पर समाधान का तेज और आँखों में हर्ष के आँसू भी देखने को मिले.

इस समय भी उससे भी कई गुना आनंद और सार्थकता का अनुभव करोड़ों भारत प्रेमी कर रहे होंगे. कई लोगों के लिए यह कार्य पूर्ति का क्षण होगा. परंतु वास्तव में यह कार्यारंभ का क्षण है. अनेकों के विचार में यह केवल मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का, एक स्वप्न पूर्ति का, सार्थकता का अवसर होगा, परंतु भारतीय परम्परा, चिन्तन और दर्शन एकात्म और सर्वांगीण हैं. वह जीवन को समग्रता से देखता है. भारत में रिलीजन और सामाजिक जीवन एक दूसरे से भिन्न नहीं देखे गए हैं. इस भारतीय दर्शन ने प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश है, यह मान कर उस ईशत्व को प्रकट करते हुए मोक्ष-प्राप्ति का ध्येय मनुष्य के सामने रखा. अपने अंतर्गत और बाह्य प्राकृति का नियमन करते हुए इस ईशत्व के प्रकट करने के मार्ग (religions) उस व्यक्ति की क्षमता और रुचि के अनुसार अनेक और विभिन्न हो सकते हैं और सभी समान हैं – ऐसी भारतीय मान्यता है, और इसे भारत जीता भी आया है. भारत के इसी इतिहास को समूचे विश्व ने समय-समय पर अनुभव किया. परंतु इस आध्यात्मिक मार्ग पर चलते हुए भी भारत ने कभी भौतिक संपन्नता और समृद्धि की अनदेखी नहीं की. इसलिए पुरुषार्थ चतुष्टय में यहाँ धर्म और मोक्ष के साथ अर्थ और काम का समावेश भी है.

‘Ubantu’ एक अफ़्रीकन संकल्पना है. उसका अर्थ है – “मैं हूँ, क्योंकि हम हैं.” भारत में धर्म की कल्पना का आधार भी यही है. मैं, मेरा परिवार, ग्राम, राज्य, राष्ट्र, मानवता, मानवेतर जीव सृष्टि, निसर्ग, ये सभी परस्पर जुड़ी हुई क्रमशः विस्तारित होने वाली विभिन्न इकाइयाँ हैं – यह एकात्म है. इनमें परस्पर संघर्ष नहीं, समन्वय है; स्पर्धा नहीं, संवाद है. इन सभी इकाइयों का समुच्चय हमारा मानव जीवन है. ये सब हैं, इसीलिए हम सब हैं. इन के बीच का संतुलन धर्म है और यह संतुलन बनाए रखना ही धर्म स्थापना है.

भारत की इस धर्म दृष्टि को केवल ‘रिलीजन’ तक सीमित रखना ग़लत है और उसे केवल आध्यात्मिकता तक सीमित रखना भी अपर्याप्त है. भारत ने आध्यात्मिक साधना करते समय भौतिक समृद्धि का विरोध या निषेध कभी नहीं किया है. भारतीय दर्शन में धर्म की एक परिभाषा है “यतो अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः.” अभ्युदय का अर्थ है भौतिक समृद्धि और निःश्रेयस का अर्थ है मोक्ष. इन दोनों को जो साधता है, वह धर्म है – ऐसा कहा गया है. ईशावास्य उपनिषद में भौतिक समृद्धि साधने के लिए आवश्यक ज्ञान को अविद्या और मोक्ष साधने के ज्ञान को विद्या कहा है. उपनिषदकार कहते हैं – जो अविद्या और विद्या दोनों की उपासना करता है, वही पूर्ण जीवन है. वह अविद्या के आधार पर इस मृत्यु लोक को सुखपूर्वक पार करता है और विद्या के आधार पर अमरत्व (मोक्ष) को प्राप्त करता है.

विद्याञ्च अविद्याञ्च यस्तद् वेदोSभयम् सह. अविद्यया मृत्युम् तीर्त्वा विद्यया Sमृतमश्नुते ..

इस संतुलन (balance) या धर्म को समझने की विशेष गुणवत्ता है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवकों द्वारा लाखों कंठों से देशभर में रोज़ कही जाने वाली संघ प्रार्थना में समुत्कर्ष (अभ्युदय) और निःश्रेयस दोनों को साधने की बात. असल में ये ‘दो’ नहीं ‘एक’ ही के दो पहलू हैं, यही जताने को एकवचनी षष्ठी प्रत्यय ‘अस्य’ (समुत्कर्ष निःश्रेयसस्य) का प्रयोग किया गया है. तात्पर्य यह कि भारत में जीवन के पूर्ण विचार की ही परम्परा रही है, जिसमें भौतिक (समृद्धि) और आध्यात्मिक (मोक्ष) उत्कर्ष का एक साथ विचार किया है.

सैकड़ों वर्षों तक भारत दुनिया का सर्वाधिक समृद्ध देश था. सामर्थ्य संपन्न होने पर भी भारत ने अन्य देशों पर युद्ध नहीं लादे. व्यापार के लिए दुनिया के सुदूर कोनों तक जाने के बावजूद भारत ने न उपनिवेश बनाए, न ही उनका शोषण किया, न उन्हें लूटा, न ही उन्हें कन्वर्ट किया और  ना उन्हें ग़ुलाम बनाकर उनका व्यापार किया. हमारे लोगों ने वहाँ के स्थानीय जनसमूहों को संपन्न, समृद्ध और तो और सुसंस्कृत किया. उस सांस्कृतिक विरासत का सजीव दर्शन आज भी दक्षिण एशिया स्थित देशों की भाषाएं, कला, मंदिरों और जीवन शैली में देखने को मिलता है. वह समृद्धि जो भारतीयों ने अन्य देशों में जा कर उन्हें समृद्ध व सक्षम बनाते हुए अर्जित की, उसे हमारे आध्यात्मिक दर्शन में ‘महालक्ष्मी’ कहा गया. यहाँ ‘धन’ को नहीं, ‘महालक्ष्मी’ को पूजा जाता है. इसलिए हमारी सम्पन्नता का, हमारे सुसंस्कृत सदाचार का आधार धर्म (religion नहीं) ही रहा और इस धर्म स्थापना व साधना के केंद्र मंदिर रहे हैं. कारण समग्र जीवन के सम्पूर्ण चिंतन का आधार आध्यात्मिक (spirituality) है. इसीलिए भारत में मंदिर आध्यात्मिक साधना के साथ-साथ श्रेष्ठ लोकाचार और आर्थिक समृद्धि के कारण रहे हैं और केंद्र भी.

1951 में सोमनाथ के मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करते समय स्वतंत्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के भाषण में इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है. उसके कुछ अंश मूल स्वरूप में ही पढ़ना उद्बोधक होगा.

वे कहते हैं – “इस पुनीत अवसर पर हम सब के लिये यह उचित है कि हम आज इस बात का व्रत लें कि जिस प्रकार हमने आज अपनी ऐतिहासिक श्रद्धा के इस प्रतीक में फिर से प्राण-प्रतिष्ठा की है, उसी प्रकार हम अपने देश के जन साधारण के उस समृद्धि मन्दिर में भी प्राण-प्रतिष्ठा पूरी लगन से करेंगे, जिस समृद्धि मन्दिर का एक चिन्ह सोमनाथ का पुराना मंदिर था. उस ऐतिहासिक काल में हमारा देश जगत का औद्योगिक केन्द्र था. यहाँ के बने हुए माल से लदे हुए कारवाँ दूर-दूर देशों को जाते थे. और संसार का चाँदी-सोना इस देश में अत्यधिक मात्रा में खींचा चला आता था. हमारा निर्यात उस युग में बहुत था और आयात बहुत कम. इसलिये भारत उस युग में स्वर्ण और चाँदी का भंडार बना हुआ था. आज जिस प्रकार समृद्ध देशों के बैंकों के तहखानों में संसार का स्वर्ण पर्याप्त मात्रा में पड़ा रहता है, उसी प्रकार शताब्दियों पूर्व हमारे देश में संसार के स्वर्ण का अधिक भाग हमारे देवस्थानों में होता था. मैं समझता हूँ कि भगवान सोमनाथ के मन्दिर का पुनर्निर्माण उसी दिन पूरा होगा, जिस दिन न केवल इस प्रस्तर की बुनियाद पर यह भव्य भवन खड़ा हो गया होगा, वरन भारत की उस समृद्धि का भी भवन तैयार हो गया होगा, जिसका प्रतीक यह पुरातन सोमनाथ का मन्दिर था. साथ ही सोमनाथ के मन्दिर का पुनर्निर्माण तब तक भी मेरी समझ में पूरा नहीं होगा, जब तक कि इस देश की संस्कृति का स्तर इतना ऊँचा न हो जाए कि यदि कोई वर्तमान अलबरूनी हमारी वर्तमान स्थिति को देखे तो हमारी संस्कृति के बारे में आज की दुनिया को भी वही बताए जो भाव उस ने उस समय प्रकट किए थे.”

राम मंदिर का आंदोलन भारत की उस जीवन-दृष्टि की पुनर्स्थापना का आंदोलन था, जिसे secularism की आड़ में भारत से ही अलग करने का षड्यंत्र रचा जा रहा था.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहनजी भागवत ने राम मंदिर शिलान्यास के दिन अपने उद्बोधन में तीन शब्दों का उल्लेख किया था. आत्मनिर्भर (self-reliant), आत्मविश्वास (self-confident) और आत्मभान (self -aware). इसमें “आत्मनिर्भरता” ज्ञान (भारतीय ज्ञान- विद्या और अविद्या भी) और आर्थिक सन्दर्भ में है. “आत्मविश्वास” अपने प्राचीन, नित्य-नूतन, चिर पुरातन अध्यात्म-आधारित एकात्म, सर्वांगीण समग्र जीवन के चिंतन के आधार पर हम प्राप्त कर सकते हैं, ऐसे विश्वास और कृतिशील संकल्प के सन्दर्भ में है. और “आत्मभान” इस भारतीय दर्शन को अपने व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक और राष्ट्रीय जीवन में पूर्ण उत्कटता के साथ अभिव्यक्त करने में है.

यही बात रवीन्द्रनाथ ठाकुर “स्वदेशी समाज” में कहते हैं – “हम वास्तव में जो हैं वही बनें. ज्ञानपूर्वक, सरल और सचल भाव से, संपूर्ण रूप से हम अपने-आपको प्राप्त करें.”

जितनी गहराइयों से हम अपनी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक जड़ों से जुड़ेंगे, उतने ही हम अपनी आर्थिक सम्पन्नता और सांस्कृतिक विस्तार से, स्पर्धा, संघर्ष, हिंसा, युद्ध, शोषण, अत्याचार से ग्रस्त इस मानवता को संवाद, समन्वय, संयम और आत्मीयता का परिचय दे पाएँगे. अपने आचरण से पांथिक, वांशिक, भाषिक, सांस्कृतिक दृष्टया वैविध्यपूर्ण मानव जगत को शांति, समृद्धि से पूर्ण, विश्व-मंगलकारी मार्ग पर ले जा सकेंगे.

इसी विचार का सार डॉ. राजेंद्र प्रसाद के सोमनाथ मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के भाषण की इस पंक्ति में है – “यह सारा प्राप्त करने का केंद्र स्थान मंदिर हुआ करता था. यह मंदिर भी वैसा केंद्र फिर से बने यह अपेक्षा है. तभी मंदिर निर्माण कार्य पूर्ण हुआ, ऐसा मैं मानूँगा.”

यही बात आज की अयोध्या के राम मंदिर के विषय में भी प्रासंगिक (relevant) है. इसीलिए यह एक संकल्प पूर्ति का क्षण भी है और एक शुभारंभ भी. एक और बात समझने जैसी है. राष्ट्रीय दृष्टि से महत्वपूर्ण ऐसे कई प्रलंबित निर्णय अभी एक के बाद एक होते दिख रहे हैं. इसका कारण भी महत्वपूर्ण है.

1987 में राम-जानकी रथ यात्रा चल रही थी, तब संघ के एक कार्यक्रम में तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहब देवरस से एक कार्यकर्ता ने पूछा कि – गौ हत्या प्रतिबंध का आंदोलन, कश्मीर के 370 में सुधार आदि विषय, माँग करके हमने छोड़ दिये ऐसा लगता है. कुछ होते नहीं दिख रहा है. क्या इस राम मंदिर के विषय में भी वैसा ही होगा? तब श्री बालासाहब जी का उत्तर था – “हम इस निमित्त राष्ट्रीय जागरण करते हैं. यह जागरण सतत किसी ना किसी निमित्त से करते रहना चाहिए. आज हिन्दू समाज की राष्ट्रीय चेतना का सामान्य स्तर बहुत नीचा है. इसी कारण ये सारी समस्याएँ भी हैं. जिस दिन सम्पूर्ण समाज की राष्ट्रीय चेतना का सामान्य स्तर (general level of national consciousness ) पर्याप्त उन्नत होगा, तब हो सकता है इन सभी विषयों के समाधान एक साथ भी हो जाए.”

Malcolm Gladwell की पुस्तक “Tipping Point”- How little things can make a big difference” में Tipping Point की व्याख्या वे यूँ करते हैं – “Tipping point is the point at which a series of small changes or incidents becomes significant enough to cause a larger, more important change.” आज बालासाहब जी के शब्दों का स्मरण करते लगता है कि उस भाव को व्यक्त करते समय क्या उनका संकेत “Tipping Point” की ओर था?

संघ के ज्येष्ठ प्रचारक और श्रेष्ठ चिंतक दत्तोपंत ठेंगडी एक बात हमेशा कहते थे कि – “समाज में कुछ लोगों का राष्ट्रीय दृष्टि से जागृत और खूब सक्रिय होना शाश्वत परिवर्तन नहीं लाता है. जब सामान्य व्यक्ति की राष्ट्रीय चेतना का स्तर थोड़ा भी ऊँचा उठता है, तब बड़े-बड़े परिवर्तन होते हैं. इसलिए समय-समय पर कुछ मुद्दों को लेकर राष्ट्रीय जागरण के प्रयास सतत करते रहने से धीरे-धीरे सामान्य व्यक्ति की राष्ट्रीय चेतना का स्तर ऊँचा उठेगा. उन सब के cumulative परिणाम के नाते राष्ट्रहित के अनेक छोटे-बड़े महत्व के और आवश्यक कार्य सहज होते जाएंगे. इस कारण राष्ट्रीय चेतना समृद्ध करने की दृष्टि से कुछ लोगों को सतत राष्ट्र जागरण के कार्य में ही लगे रहना आवश्यक और महत्वपूर्ण है.”

लगता है, बालासाहब देवरस जी और ठेंगड़ी जी द्वारा वर्णित वह “Tipping Point” निकट आ रहा है, रवीन्द्रनाथ ठाकुर का वह स्वदेशी समाज सक्रिय हो रहा है. राष्ट्र जीवन के अनेक क्षेत्रों में, अनेक वर्षों से प्रलंबित राष्ट्र हित के मूलभूत परिवर्तन एक के बाद एक हो रहे हैं. देश की रक्षा नीति और विदेश नीति में मूलभूत परिवर्तन विश्व अनुभव कर रहा है. विकेंद्रित और कृषि आधारित अर्थ नीति के आधार पर आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ने का संकल्प प्रकट हो रहा है. भारत की जड़ों से जुड़ कर विश्व के आकाश को आग़ोश में लेने के लिए ऊँची उड़ान भरने वाले पंख देने वाली नई शिक्षा नीति की घोषणा हुई है. समाज के स्वयं के उद्यम और innovations को प्रोत्साहन मिलने का वातावरण बन रहा है. यह सारा एक साथ होता नज़र आ रहा है. यह परिवर्तन भारत में 2014 से हुए केंद्र में सत्ता परिवर्तन के साथ जोड़कर देखना स्वाभाविक है.

16 मई, 2014 के दिन चुनाव के परिणामों की घोषणा होने के बाद 18 मई, रविवार को ब्रिटेन के संडे गार्डीयन के महत्वपूर्ण सम्पादकीय में एक बात बहुत स्पष्ट कही थी कि – “Today, 18 May, 2014, may well go down in history as the day when Britain finally left India.” इस के साथ ही इस संपादकीय में एक और मुलभूत और गहरी बात कही गई है. वह है – “It should be obvious that underlying changes in Indian society have brought us Mr Modi and not the other way round”.

राष्ट्रीय चेतना का सामान्य स्तर ऊँचा उठने की प्रक्रिया के परिणाम स्वरुप सभी प्रकार के इष्ट परिवर्तन होना शुरू हुआ है और सत्ता परिवर्तन भी इसका भाग है.

अपना ईश्वर प्रदत्त दायित्व निभाने के लिए भारत वर्ष अपनी चिर पुरातन नित्य नूतन चिरंजीवी शक्ति के साथ खड़ा हो रहा है. (संघ के एक ज्येष्ठ प्रचारक ने एक वाक्य में संघ का पूर्ण वर्णन किया था – RSS is the evolution of the life mission of this Hindu nation.) अब तक रुके हुए या रोके गए सभी आवश्यक कार्य होना शुरू हो गए हैं. सम्पूर्ण समाज को सभान, सजग रहकर सक्रिय होना होगा. यह वही आत्मभान है, जिससे आवश्यक आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता अवश्यम्भावी है.

एक संघ गीत में कहा है –

“अरुणोदय हो चुका वीर अब कर्मक्षेत्र में जुट जाएँ,

अपने खून-पसीने द्वारा नवयुग धरती पर लाएँ.”