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जब गांधीजी को हुए संघ में किये समरसता के दर्शन
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डॉ. हेडगेवार जी ने कहा -‘हम हिन्दू हैं, यह भाव इतनी गहराई से स्वयंसेवकों के हृदय पर अंकित हुआ है, कि वे अपनी बाकी तमाम पहचान भूल चुके हैं’
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यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं है– श्री बालासाहब देवरस
हेडगेवार जी ने
स्वयंसेवक शब्द को परिभाषित करते हुए-कहा -राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के
लिए अपना जीवन-सर्वस्व आत्मीयतापूर्वक अर्पित करने को तैयार नेता ही स्वयंसेवक है।
संघ उस हिन्दू
चिन्तन का अनुयायी है जो मूल रूप से समरसतावादी है। जाति-वर्ण मानने वाले व्यक्ति
को, यानी जो समरसता की भावना का सम्मान नहीं
करता, उसे भगवान प्यार नहीं करते, ऐसा उन्होंने खुद अपने श्रीमुख से श्रीमद्भागवत में कहा है।
न यस्य
जन्मकर्मभ्याम न वर्णाश्रम जातिभिः
सज्जते
अस्मिन्न्ह्म भावो देहे वै स हरेः प्रियः
. (भागवत 11.2.51)
(जिसका इस शरीर
में न तो उच्चकुल में जन्म, तपस्या आदि
कर्म तथा न वर्ण, जाति एवं आश्रम
से ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही
भगवान का प्यारा है)
एकादश स्कंध के
ही अध्याय 4 में भगवान के बुद्धावतार की भविष्यवाणी है, जिसमे कहा गया है कि यज्ञों में हिंसा करने वालों तथा जातिवादियों को भगवान्
अपने तर्कों से सम्मोहित कर उन्हें इन बातों से विरत करेंगे। भगवान बुद्ध ने जीवन
भर हिंसा और जाति-अभिमान के विरुद्ध प्रचार किया। उनके तर्कों के आगे कोई न टिक
सका। अतः समाज में यज्ञ-हिंसा और जातिवाद दोनों में काफी कमी आई। ‘जातिम मा पुच्छ’
(जाति मत पूछो) - बुद्ध का प्रिय वाक्य है।
‘न मे
जातिभेदः’ (मुझे जातिभेद नहीं चाहिए) - यह आदि शंकराचार्य का प्रिय उद्घोष है।
जाति जायेगी तो समरसता आएगी। यह सोच हमारे मनीषियों का था। मध्यकाल के संत रामानंद, उनके शिष्य संत रविदास, कबीर, पीपा, धन्ना आदि भी ‘जात-पात पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई’ का विचार समाज में फैलाते रहे। नानक देव ने
कहा-‘आगे जाति न है’ अर्थात् परलोक में कोई जाति नहीं पूछता। वह यहीं छूट जाती है।
डॉक्टर जी
द्वारा समरसता की साधनाः- जब डॉ हेडगेवार ने संघ की स्थापना द्वारा 1925 में
हिन्दू-संगठन का कार्य प्रारंभ किया, तो उनका चिन्तन था कि बिना समरसता के संगठन संभव नहीं है और समरसता की राह में
सबसे बड़ा रोड़ा जातिवाद, अस्पृश्यता या
छूआछूत है, जिसने निर्ममता से हिन्दू समाज को बांटा
हुआ था। आज स्थिति बहुत सुधर चुकी है, यानी कम से कम 1925 की अपेक्षा, अतः उस सामाजिक विभाजन की कल्पना आज कठिन है, जिसकी चपेट में हिन्दू समाज उन दिनों था। सामाजिक संचरण, सामाजिक सहभोज, रोटी-बेटी के
सम्बन्ध लगभग कल्पनातीत थे। डॉक्टर जी ने इस दशा को बदलने के लिए बहुत ही
व्यावहारिक तरीका अपनाया। उन्होंने कोरे उपदेश नहीं दिए, आलोचनाएँ नहीं कीं। संघ के शिविरों में शुल्क के रूप में सब स्वयंसेवक
अपने-अपने घरों से दो-दो मुट्ठी अन्न लाते थे (कुछ धनराशि भी लानी होती थी), इस अन्न को साथ मिलाकर भोजन पकता था। उन दिनों ऐसे कई स्वयंसेवक होते थे, जो अपने सामाजिक संस्कार के चलते सबके साथ भोजन नहीं करते थे। डॉक्टर जी ने
उन्हें अलग से रसोई बनाने के लिए सूखा सामान दिया। ये लोग अलग भोजन बनाते-खाते थे।
किन्तु शिविर के समरसतावादी वातावरण में उन्हें इस अलगाव पर शर्म आने लगती और अलग
रसोई का त्याग कर वे शनैः-शनैः सबके साथ भोजन करने लगते। इस प्रकार व्यवहार में से
अस्पृश्यता समाप्त होती जाती है।
ऐसा बताते हैं
कि प्रारंभ में धूम्रपान करने वाले स्वयंसेवकों के लिए भी शिविरों में स्मोकिंग
कार्नर बना दिया जाता था। धीरे-धीरे यह अस्वास्थ्यकर प्रथा भी समाप्त होती गयी।
डॉक्टर जी ने
व्यवहार-कुशलता द्वारा संघ का निर्माण किया। 1932 के विजयादशमी उद्बोधन में डॉ
हेडगेवार ने दावे के साथ घोषणा की कि संघ में छुआछूत समाप्त हो गयी है। हिन्दू
समाज की दृष्टि से यह एक ऐतिहासिक अवसर था कि उसके एक लघु रूप में ही सही
अस्पृश्यता का उन्मूलन हुआ तो सही।
गांधीजी ने संघ में किये समरसता के दर्शनः-
डॉक्टर साहब द्वारा संघ में अस्पृश्यता, छूआछूत तथा जातिभेद समाप्ति की घोषणा के 2 वर्ष बाद स्वयं गांधी जी इस सत्य के
दर्शन संघ में आकर कर सके। यह दिसम्बर 1934 की बात है। क्रिसमस पर उन दिनों लम्बा
अवकाश हुआ करता था। डॉक्टर जी इसका उपयोग 4-दिवसीय शीत शिविर लगाने में करने लगे
थे। अनेक स्थानों पर शिविर लगते थे। ऐसा ही एक वर्ग वर्धा में लगा था। संयोग से
गांधीजी उन दिनों सेठ जमनालाल बजाज, जो कांग्रेस के कोषाध्यक्ष थे, की कोठी पर विश्राम हेतु आये हुए थे, शिविर का स्थल उनकी कोठी के सामने ही था। शिविर से तुरंत पूर्व स्वयंसेवक वहां
टेंट गाड़ने तथा शिविर योग्य भूमि बनाने के लिए आने लगे। उन्हें मनोयोग-पूर्वक
कार्य करते देखकर गांधीजी जानने के लिए उत्सुक हुए की ये किस संस्था के है। बजाज
ने उन्हें बताया कि ये आरएसएस से सम्बन्ध रखते हैं। गांधीजी ने तय किया की शिविर
प्रत्यक्ष शुरू होने पर वे उसमे जाकर देखेंगे। 23 दिसम्बर को शिविर प्रारंभ हो
गया। 2 दिन गांधीजी ने बजाज की कोठी से ही सब गतिविधियाँ देखीं। 25 दिसम्बर की
प्रातः वे स्वयं बजाज तथा अपनी एक विदेशी शिष्या मृदुला बहन के साथ शिविर में आ
गए। ठीक 6 बजे शाखा लगी, ध्वज प्रणाम
हुआ। गांधीजी ने भी संघ पद्धति से प्रणाम किया। इसके बाद शारीरिक अभ्यास शुरू हो
गए। गांधीजी शिविर का दौरा करने लगे। वे भोजनालय गए। वहां 1500 लोगों हेतु जलपान
बनाने का काम चल रहा था। उन्होंने बनाने वाले कार्यकर्ताओं से उनकी जातियां पूछी।
अब संघ में क्योंकि यह प्रश्न कभी किया नहीं जाता, स्वयंसेवकों ने अनमने भाव से उत्तर दिए। इन उत्तरों से स्पष्ट हो गया कि अनेक
‘अछूत’ समझे जाने वाले वर्गों से भी लोग भोजनशाला में काम पर लगे थे। यह गांधीजी
और उनके साथियों के लिए अनोखा था। कांग्रेस में अभी तक ऐसी स्थिति नहीं आई थी।
गाँधी जी ने
भोजनालय से बाहर आकर संघ स्थान पर शारीरिक कार्यक्रमों की समाप्ति देखी। विकिर के
बाद जलपान के लिए सभी स्वयंसेवक पंक्ति-बद्ध होकर अनुशासन-पूर्वक बैठ गए। जलपान
वितरण करने कार्यकर्ता आये। उन्होंने उनकी
जात पूछी। यहाँ भी उन्हें पता चला कि सभी जातियों के लोग मिलजुल कर परोस रहे थे।
जलपान करने वालों में भी हर जात के स्वयंसेवक थे। किसी को अपनी जात का भान न था, ना ही दूसरे की जात जानने में दिलचस्पी थी। विस्मित गांधीजी ने कांग्रेस
कार्यकारिणी सदस्य तथा वर्धा जिला संघचालक
अप्पाजी जोशी से पूछा, ये
जाति-विहीनता की स्थिति कौन पैदा कर सका है। अप्पा जी बोले, वे डॉक्टर हेडगेवार हैं, जो अभी ऐसे ही
एक अन्य वर्ग में गए हैं। गांधी जी ने कहा, मैं ऐसे महान संगठनकर्ता से मिलना चाहूँगा अगले रोज डॉक्टर जी शिविर के समापन
हेतु आये। 26 की रात को शिविर संपन्न कर वे गांधीजी से मिलने सामने कोठी पर
पहुंचे। गांधीजी ने जातिवाद के खात्मे का रहस्य जानना चाहा। हेडगेवार जी ने उत्तर
दिया -‘हम हिन्दू हैं, यह भाव इतनी
गहराई से स्वयंसेवकों के हृदय पर अंकित हुआ है, कि वे अपनी बाकी तमाम पहचान भूल चुके हैं।’ गांधीजी ने इस पर संतोष जताया। फिर
उन्होंने पूछा कि संघ में मुसलमानों को प्रवेश क्यों नहीं दिया जाता ? डॉक्टर जी का उत्तर था की फिलहाल हम अपना घर ठीक कर रहे हैं, आगे चलकर यदि मुस्लिम समाज की ओर से मांग आई तो उन्हें प्रवेश देने पर भी
सोचेंगे। यहाँ गांधीजी ने इस बात को मान्य किया कि दूसरे समुदायों से घृणा किये
बिना अपने समाज में सुधार करना आपत्तिजनक नहीं है। यह जानकारी मिलने पर कि पूर्व
में हेडगेवार जी कांग्रेस में थे, गांधी जी ने
पूछा कि वहाँ रहते हुए इस प्रकार का संगठन क्यों नहीं बनाया ?
डॉक्टर जी ने
स्पष्टता से कहा कि कांग्रेस में स्वयंसेवक शब्द के सम्बन्ध में विचित्र कल्पनाएँ
हैं, कि नेता के बताये चार काम करने वाला, उसके लिए भीड़ इकठ्ठा करने वाला, माइक-मंच-माला का इंतजाम करने वाला, अर्थात् वालंटियर या स्वयंसेवक, जबकि संघ की कल्पना बिल्कुल भिन्न है। गांधीजी के पूछने पर हेडगेवार जी ने
स्वयंसेवक शब्द को परिभाषित करते हुए कहा
-राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति के लिए अपना जीवन-सर्वस्व आत्मीयतापूर्वक अर्पित करने को तैयार नेता ही स्वयंसेवक है।
नेता है, यानी शेष समाज को राष्ट्र के लिए समर्पण
का भाव व अनुशासन आदि सिखाएगा, उसका इस दृष्टि
से नेतृत्व करेगा। यह सब सुनकर गांधीजी ने संघ और डॉक्टरजी को अपना आशीर्वाद
प्रदान किया।
बाबासाहब का
संघ में अनुभव:- बाबासाहब जिन्दगी भर हिन्दू समाज में समरसता तलाशते रहे। उन्होंने
सामाजिक समानता के लिए कई आन्दोलन किये, जिनमे मंदिरों में प्रवेश, तथा सार्वजनिक
तालाब से पानी पीने का अधिकार पाना शामिल है। उनका निष्कर्ष ये था कि बिना समरसता
समानता प्राप्त नहीं होगी पूना के पर्वतीय मंदिर, नासिक के कालाराम मंदिर और अमरावती के अम्बा मंदिर में प्रवेश के लिए लम्बे
आन्दोलन चलाये। महाड (जिला रायगढ़ ) के चवदार (स्वादिष्ट) तालाब में पानी पीने के लिए
आन्दोलन किया। बम्बई असेंबली ने प्रवेश का अधिकार देने के लिए कानून भी बना दिया।
किन्तु उसे क्रियान्वित नहीं किया जा सका। तब उन्होंने 1935 में तमाम सत्याग्रह
वापस ले लिए। उनकी पत्नी रमाबाई विट्ठल मंदिर, पंढरपुर में दर्शन करना चाहती थीं। किन्तु बाबासाहब उन्हें वहां ले जाने का मन
न बना सके। विट्ठल-विट्ठल पुकारते आई साहब (रमाबाई) ने प्राण त्यागे। उसके बाद
बाबासाहब ने निश्चय किया कि हिन्दू रह के जीना बेकार हैै। ‘मैं हिन्दू रूप में
जन्मा अवश्य, किन्तु हिन्दू रूप में मरूँगा नहीं’ -ऐसी
घोषणा उन्होंने अक्तूबर 1935 में की। हिंदुत्व के लिए कार्य कर रहे डॉ हेडगेवार
जैसे महापुरुषों के लिए यह एक चुनौती थी।
डॉ मुंजे, संत पान्चलेगाँवकर, संत मसूरकर, क्षात्रजगद्गुरु आदि ने बाबासाहब से मिलकर उन्हें आश्वस्त करना चाहा कि हिन्दू
समाज से अस्पृश्यता दूर करेंगे। इसके लिए न्यूनतम 5 वर्ष उन्होंने मांगे। बाबासाहब
ने कहा वे 10 वर्ष देने को तैयार हैं, इस बीच कोई धर्मान्तरण नहीं होगा, हिन्दू यदि स्वयं में सुधार करते हैं, तो फिर इस समाज को त्यागने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी।
डॉ हेडगेवार ने
1936 की मकर संक्रांति के उत्सव की अध्यक्षता हेतु बाबासाहब को पूना की शाखा पर
निमंत्रित किया। वे आये, उन्होंने पाया
कि संघ में 15-20: अस्पृश्य जातियों के लोग भी हैं, और सबसे अच्छी बात ये है कि वे बिना कोई भेदभाव अन्यों के साथ सहजता से रहते
हैं, जाति चेतना पूरी तरह समाप्त है। वे बड़े
प्रभावित हुए। ऐसा ही समाज तो उन्हें अभीष्ट था। संघ के सम्बन्ध में उनकी उत्सुकता
बढ़ी। वे 1937 में दापोली और 1938 में करहाड़ की संघ शाखाओं पर होकर आये। वहां भी
उन्हें जाति-विहीन हिन्दू समाज-रचना के दर्शन हुए। 1939 में संघ के ग्रीष्म शिविर
-ओटीसी- में उन्होंने जाकर फिर पाया कि लगभग 20 प्रतिशत अस्पृश्य अपना अस्पृश्यता
भाव भुलाकर तथा शेष स्वयंसेवक उनके साथ एकात्म होकर संघ के कार्यक्रम में सम्मिलित
हैं। अम्बेडकर जी के लिए यह अविस्मरणीय अनुभूति थी। यह कार्य यदि तेजी के साथ बढे
तो हिन्दू समाज समरस समाज बन जाएगा, जो सशक्त होगा आजादी पाने और उसे टिकाऊ बनाये रखने के लिए। इस आश्वस्तिकारी
चिन्तन के साथ उनके जीवन का यह दौर समाप्त हुआ।
बाबासाहब की
बौद्धमत में दीक्षा:- संघ आदि हिन्दू संगठनों द्वारा हिन्दू समाज में परिवर्तन
लाने के वचन, तथा आर एस एस में जातिविहीन समरस
समाज-रचना के प्रत्यक्ष दर्शन कर बाबासाहब ने हिन्दू धर्म छोड़ने का अपना इरादा
स्थगित कर दिया था। 1952 के बाद उन्हें इस स्थगन पर पुनर्विचार करना पड़ा। जिस
परिमाण में छूआछूत व्यापक थी, संघ का विस्तार
उसका पचासवां हिस्सा भी नहीं था। इसलिए अस्पृश्यों में असंतोष बढ़ रहा था। जो समाज
हमें इन्सान भी नहीं समझता, उससे बाबासाहब
क्यों चिपटे हुए हैं, त्यागते क्यों
नहीं -इस प्रकार की बातें उन्हें अपने अनुयाइयों से सुनने को मिलती। संघ के वरिष्ठ
प्रचारक दत्तोपंत ठेंगडी श्री गुरूजी की इच्छा से बाबासाहब के साहचर्य में रहते
थे। उनसे तथा संघ के अन्य बड़े कार्यकर्ताओं से उन्होंने संघ की शाखाओं व
स्वयंसेवकों की संख्या पूछी। उन्हें महसूस
हुआ की सारे हिन्दुओं को जातिहीन समरसता
का पाठ पढ़ाने में संघ को अत्यधिक लम्बा समय लग सकता है। पर क्या तब तक मेरा
समाज प्रतीक्षा कर सकेगा ? क्या वह
इस्लाम-ईसाइयत-कम्युनिज्म का शिकार तो न बन जाएगा? फिर उनका शरीर भी रोगों का घर बनता जा
रहा था। उन्हें अतिशीघ्र कोई मार्ग अपने अनुयाइयों को दिखाना था। अतः 1956 में
बौद्धमत को भारतीय संस्कृति के अभिन्न हिस्से के रूप में अंगीकृत करते हुए
उन्होंने उसकी दीक्षा ली। उस अवसर पर उन्होंने कहा भी था कि हिन्दू व बौद्ध धर्म
एक ही वटवृक्ष की शाखाएं हैं। हिन्दू आंबेडकर एवं बौद्ध आंबेडकर तत्वतः एक ही हैं
. उनके इस सोच और निष्कर्ष की पृष्ठभूमि में कही न कही संघ की भी भूमिका है। संघ
पर गाँधी-हत्याकांड के बहाने लगाये गए प्रतिबन्ध को हटवाने में बाबासाहब, जो कानूनमंत्री थे, की भी भूमिका
थी। इसीलिए श्री गुरूजी उन्हें धन्यवाद देने गए थे।
समरसता के
शिल्पकार श्री गुरूजी एवं बालासाहब देवरस:- डॉक्टर साहब ने समरसता की भावधारा और
चिन्तन को संघ का प्राण बना दिया था। उनके कार्य को आगे बढ़ाया श्री गुरूजी एवं
बालासाहब ने।
श्री गुरूजी
मानते थे कि अस्पृश्यता उच्च जातियों के मन का भाव है। वे इसे धर्म का अंग मानते
हैं, जब तक धर्मशास्त्रों के अधिकारी महापुरुष
उनके दिमाग से ये भ्रान्ति दूर नहीं करते, वे इस को छोड़ेंगे नहीं।
हिंद्वः सोदरा
सर्वे 1969 में एक स्वर्ण अवसर आया, अथवा श्री गुरूजी के प्रयासों से लाया गया। कर्नाटक के उडुपी में विश्व हिन्दू
परिषद् के मंच पर सभी शंकराचार्य मध्वाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानुजाचार्य, बौद्ध, जैन एवं सिख मत के प्रमुख धर्माचार्य
उपस्थित थे। श्री गुरूजी ने सब को इस बात के लिए तैयार किया कि वे ऐसा सर्वसम्मत
उद्घोष करें कि सारे हिन्दू समान हैं, कोई छोटा-बड़ा, दलित-पतित नहीं
यह सब परस्पर एक-दूसरे की रक्षा करेंगे। तब ये 2 समरसता मंत्र अस्तित्व में आये -
हिंद्वः सोदरा सर्वे न हिन्दू पतितो भवेत् (हिन्दू एक माँ की संताने हैं, कोई गिरा-पतित नहीं है ) मम दीक्षा हिन्दू रक्षा मम मन्त्र समानता (मेरी
दीक्षा है हिन्दू रक्षा, मेरा मन्त्र है
समानता) जब सभी धर्मगुरुओं ने समवेत स्वर से ये मन्त्र उच्चारित किये, श्री गुरूजी भाव-विव्हल हो गए। अस्पृश्यता के विरुद्ध धर्म खुद आ डटा था। अब
तो यह बात केवल जन-जन तक पहुंचानी थी।
वंचितों की
सेवा में लगें बालासाहब का प्रसिद्ध वाक्य है - यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो दुनिया में कुछ भी पाप नहीं
है। व्यवहार में से उसे निर्ममता पूर्वक हटाकर नष्ट करने के लिए वंचितों-शोषितों
की सेवा का मार्ग उन्होंने प्रशस्त किया। 1978 में दिल्ली महानगर के मलिन बस्तियों
में स्वयंसेवकों ने सेवा कार्य शुरू किये। विद्यालय, छात्रावास, चल चिकित्सालय अस्तित्व में आये। इस
प्रकार सेवा भारती का नाम देश ने सुना। आज तो 70-80 हजार सेवाकार्यों को चलाने
वाला समर्पित कार्यकर्ताओं का समूह है वह।
संघ के सेवा
विभाग ने कथित सवर्णों-अवर्णों के बीच मनोवैज्ञानिक दीवारें गिराने के लिए अनेक
कार्य व प्रयोग किये। एक-दूसरे के परिवारों में मांगलिक अवसरों पर जाना, एक साथ त्यौहार मनाना, नवरात्रों में
जाति भुलाकर कन्या पूजन संपन्न करना जैसी कितनी ही परम्पराएं डाल दी गयी हैं। रोटी
के साथ ही बेटी के रिश्ते प्रोत्साहित किये गए। आज संघ स्वयंसेवकों के मध्य जितने
अंतरजातीय विवाह हुए हैं, उतने कहीं
अन्यत्र नहीं हुए। इनमे कथित सवर्ण-अवर्ण विवाहों की भी खासी संख्या है।
बाबासाहब वाले
अध्याय में हमने देखा कि कालाराम मंदिर नासिक में कई वर्ष सत्याग्रह करने के
बावजूद वे उसमंे प्रवेश नहीं पा सके थे। उस घटना के लगभग 70 वर्ष बाद 2006 में
श्री गुरूजी जन्मशताब्दी के दौरान उसी मंदिर के वर्तमान महंत, जो तत्कालीन महंत के प्रपोत्र हैं, ने संघ-विहिप के प्रयासों के कारण बाबासाहब के पौत्र प्रकाश आंबेडकर को परिवार
व साथियों सहित आमंत्रित कर मंदिर में पूजा करवाई। इसी प्रकार 1983 में सावरकर
जन्मशती के दौरान सामाजिक समरसता मंच, जो स्वयंसेवकों ने ही बनाया है, ने सावरकर के भिगुर ग्राम से बाबासाहब के जन्मस्थान महो तक समरसता यात्रा
निकाल कर इसी प्रकार 1989-90 में ज्योतिबाफुले महाप्रयाण शताब्दी वर्ष में उनके
पुणे-स्थित विद्यालय स्थान से लेकर बाबासाहब के दीक्षास्थल नागपुर तक एकात्मता
यात्रा निकालकर पुनः सामाजिक एकात्मता का सन्देश दिया। उन दिनों औरंगाबाद विवि का
नाम बाबासाहब के नाम पर रखने को लेकर महाराष्ट्र में सामाजिक तनाव चरम पर था। इस
यात्रा ने उस तूफान को काफी शांत किया।
सामाजिक समरसता संघ के लिए कोई नारा या दिखावे का टंटा नहीं, जीवन का अपरिहार्य भाग है।
(नोट : ये लेखक के निजी विचार हैं)