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वैदिक विरासत के संरक्षण में आर्य समाज की भूमिका

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वैदिक विरासत के संरक्षण में आर्य समाज की भूमिका

वैदिक विरासत यह शब्द युगल बहुत अनूठा है। इसमें वैदिक शब्द विशेषण है और विरासत विशेष्य है। वैदिक विरासत अर्थात् अपौरुषेय वेदों से सृजित विरासत में वह सभी नैतिक मूल्य महान शिक्षाएं व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय जीवन के आदर्श कर्तव्य अंतर्निहित रहते हैं जिनको आत्मसात कर हमारे पूर्वजों ने एक अपार ब्रह्म व क्षात्रतेज से दीप्तिमान अतुल्य भौतिक वैभवशाली व आध्यात्मिक आर्यावृत अथवा भारतीय राष्ट्र का निर्माण किया। इतना ही नही समस्त वसुधा के नाना दीप देशांतर पर भारतवर्ष का सात्विक मानवीयता का पोषक सुशासन रहा, सभ्यता के आदिकाल से रहा। राष्ट्रों के विषय में एक नियम सुव्याख्येय सुस्थापित है जो राष्ट्र की नागरिक मनोवृति से प्रभावित होता है, वह  यह है कि- जो राष्ट्र कभी उन्नत होता है वह अवनत भी होता है, जो आज अवनत है वह कभी उन्नत भी होगा। ऐसा ही अपने प्यारे भारतवर्ष के साथ हुआ। मध्यकाल आते-आते इसका प्राण रही वैदिक संस्कृति या विरासत नाना आडंबरों रुढ़ियों व नागरिक आलस्य प्रमाद के कारण धूमिल जर्जरित होने लगी। परिणाम यह हुआ कि दसवीं शताब्दी के पश्चात भारत के एक बड़े भौगोलिक भू-भाग पर क्रमशः मुसलमान, अंग्रेज शासन स्थापित हुआ। पराधीनता दुख ही लेकर आती है। उल्लेखनीय होगा जब-जब भारतीय संस्कृति सभ्यता जीवन मूल्य पर संकट आया है तो ईश्वर के अनुग्रह से यहां भिन्न-भिन्न कालखंडो में अनेकों महापुरुषों का आविर्भाव हुआ है। ऐसे ही 19वीं शताब्दी में पराधीनता के अभाव सामाजिक राजनीतिक शैक्षणिक चेतना की न्यूनता के काल में गुजरात की भूमि में एक महामानव स्वदेशी स्वराज के प्रथम आग्रह कर्ता महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ। नाम अनुसार जिनका दया करुणा से पूरित हृदय आर्यावर्त, आर्य भाषा व आर्य अर्थात हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान के लिए धड़कता था।

महर्षि ने धार्मिक, वैचारिक, सांस्कृतिक आंदोलन का सूत्रपात करते हुए वेदों की ओर लौटो का केवल नारा ही नहीं दिया, अपितु अपनी व्यवस्थित बुद्धि पूर्वक ठोस कार्य योजना से उस नारे को 20 वर्ष के अपने प्रचारक जीवन में चरितार्थ कर दिया। एतदर्थ वेदों की शिक्षाओं को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रचंड राजनीतिक सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक चेतना जागृत करने के लिए संस्थागत स्तर पर महर्षि दयानंद ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत् 1932 दिन बुधवार 7 अप्रैल 1875 को देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में आर्य समाज काकरवाड़ी की स्थापना की।


महर्षि जी के मार्गदर्शन में आर्य सभासदों ने आर्य समाज के 10 नियमों में एक नियम यह बनाया कि वेद सब सत्य विद्याओं की पुस्तक है, वेद का पढ़ना, पढ़ाना सब आर्यों अर्थात श्रेष्ठ पुरुषो का परम धर्म (कर्तव्य) है। वेद सार्वदेशिक सार्वभौमिक सार्वजनिक सर्वकालिक है। वेद देश काल मत पंथ जाति मजहब का आग्रह न रखते हुए अखिल मानवता की अमुल्य निधि है। भारत ही नहीं विश्व के समक्ष मनुष्य के लिए जितना ज्ञान भौतिक अध्यात्मिक प्रगति के लिए आवश्यक है वह बीज रूप में वेदों में विद्यमान है। वेदों का ही ज्ञान भारत से अरब, अरब से मिस्र, मिस्र से युनान व रोम होते हुए यूरोप में पहुंचा, महर्षि ने सप्रमाण तर्कों से यह सिद्ध किया।

अक्टूबर 1883 में महर्षि दयानंद का असमय बलिदान हो गया लेकिन उनके निधन के पश्चात उनके वैचारिक उत्तराधिकारी पंडित लेखराम, महात्मा हंसराज, देवता स्वरूप भाई परमानंद, लाला लाजपत राय, श्याम जी कृष्ण वर्मा, स्वामी श्रद्धानंद, पंडित आत्माराम अमृतसरी, पंडित राम प्रसाद बिस्मिल, पंडित गेंदालाल दीक्षित, सरदार अजीत सिंह, शहीद भगत सिंह, लाल पिंडी दास आदि असंख्य भद्र पुरुषों, आर्य उपदेशकांे क्रांतिकारीयो ने महर्षि के शेष अधूरे कार्यों को हाथ में लेते हुए 1875 से लेकर 1925 तक आर्य समाज के आंदोलन को उत्तर पश्चिम भारत यहां तक की दक्षिण मध्य भारत तक भी जन-जन तक पहुंचा दिया। वैदिक विरासत के संरक्षण संवर्धन में यदि आर्य समाज के कार्यों का हम मूल्यांकन करें तो यह त्रैत समुच्चय अर्थात् गौ, गुरुकुल एवं गायत्री (वेद) पर आधारित है। यह तीन ही वैदिक संस्कृति के अभिन्न अंग है यह तीनों ही वैदिक विरासत को समृद्ध करते हैं। इन तीनों ही क्षेत्रों में आर्य समाज ने तन मन धन से कार्य किया। आर्य समाज के सन्यासी आचार्य पुरोहितों ने महर्षि के लिखित सत्यार्थ प्रकाश आदि छोटे बड़े मिलाकर 18 ग्रंथो के आधार पर वेदों के उज्जवल मार्गदर्शक यथार्थ शिक्षा पर व्यवहारिक स्वरूप को आम जन के समक्ष उपस्थित कराया। जिसमें उन्होंने महर्षि दयानंद के यजुर्वेद आदि वेदों के भाष्य प्राचीन ब्रह्मा से लेकर जैमिनी ऋषि पर्यंत आर्ष ऋषीकृत ग्रन्थों का सहारा लिया। वेद दर्शनों उपनिषदों के अध्ययन की पुनः स्थापना परिपाटी विकसित हुई। वैदिक विरासत जो ब्रह्म यज्ञ से लेकर पितृ यज्ञ, गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि पर्यंत संस्कारों को अपने में समाहित किए हुए हैं। उस वैदिक कालीन गौरवमयी पंच महायज्ञ व 16 संस्कारों की राम कृष्ण की पावन संस्कृति को पुनः आर्य समाज ने प्रचारित स्थापित किया।

आर्य समाज की अखिल भारतीय धर्म आर्य, विद्यार्य व राजार्य सभा ने देश में स्त्री शिक्षा व अछूत उद्धार के लिए गुरुकुल व कन्या महाविद्यालय पाठशालाएं खोलीं जहां बिना किसी भेदभाव के वेद से लेकर व्याकरण इतिहास गणित सामाजिक व गृह विज्ञान  पर्यंत वैदिक वांग्मय की अमूल्य संपत्ति को पढ़ाया जाने लगा। गैर सरकारी क्षेत्र में आर्य समाज का डीएवी आंदोलन तो एक इतिहास बन गया जो आज भी नूतन व पुरातन शिक्षा पद्धति का एक अमूल्य प्रतिदर्श है। आर्य समाज की दलित उद्धारिनी सभा व जात-पात तोड़क मंडल ने अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा दिया। लाखों लोगों ने जाति भेद तोड़कर विवाह किया। विशेष आई मैरिज एक्ट पारित हुआ। पंजाब संयुक्त प्रांत से लेकर दिल्ली उत्तराखंड आदि में अनेक सामाजिक समरसता सम्मेलन हुए, वीर सावरकर जी ने भी उनमें हिस्सा लिया। भारत की सनातन सामाजिक व्यवस्था में विकृति संक्रमण के रूप में जातिवाद के रोग को हटाया। वेदों की यथार्थ गुण कर्म स्वभाव पर आधारित वर्ण व्यवस्था को आर्य समाज ने स्थापित प्रचारित किया। आर्य समाज की स्वामी श्रद्धानंद के नेतृत्व में गठित अखिल भारतीय हिंदू शुद्ध सभा ने जो कार्य किया वह इतिहास बन गया। यह संगठन आज भी प्रत्येक वर्ष सैकड़ो हिंदू से मुसलमान ईसाई बने व्यक्तियों की घर वापसी कराता है। आर्य कुमार सभा, व्यायाम प्रचारिणी सभा व आर्य वीर व वीरांगना दल आज भी देश में ग्रीष्मकालीन अवकाश में हजारों स्कूल कॉलेजों गांवों में चरित्र निर्माण बौद्धिक शिविर आयोजित करता है। न्यूनतम सात दिवसीय इन शिवरों में युवक युवतियों को वैदिक धर्म संस्कृति जीवन मूल्यों से परिचित कराया जाता है।

आर्य समाज के इतिहास में 1925 से लेकर 1975 का कालखंड गुरुकुल क्रांति के नाम रहा। इस दौरान आर्य समाज के अंतर्गत सैकड़ो गुरुकुल आर्य सन्यासियों विद्वानों ने खोले। जिनमें गुरुकुल कांगड़ी, गुरुकुल जालंधर, गुरुकुल कुरुक्षेत्र, गुरुकुल इंद्रप्रस्थ गुरुकुल सिकंदराबाद आदि प्रमुख है। ऐसी सैकड़ों संस्था आर्य समाज ने स्थापित की। इन गुरुकुलों से निकले स्नातक धर्मशास्त्री, विद्यालंकार, शिक्षाशास्त्री, साहित्यकार, पत्रकार आदि के रूप में मां भारती की अतुल्य सेवा की। गोवंश के संरक्षण संवर्धन को लेकर आर्य समाज ने उल्लेखनीय कार्य किया। आज भी सरकार के अलावा सर्वाधिक गौशालाओं का संचालन आर्य संस्थाए कर रही हैं। देश की पहली संस्थागत गौशाला रेवाड़ी हरियाणा में महर्षि दयानंद ने रेवाड़ी नरेश राव युधिष्ठिर को प्रेरणा देते हुए खुलवाई।

वैदिक विरासत के संरक्षण में जो सर्वाधिक आर्य समाज ने उल्लेखनीय कार्य किया वह हुआ वेदों को लेकर। महर्षि दयानंद ने अपने जीवन काल पर जो विचार दृष्टि दी कि वेदों में कोई मिलावट नहीं है। पश्चिमी विद्वान मैक्समूलर आदि ने जो मनमाना अर्थ वेदों का किया है वह प्राचीन ऋषियों की पद्धति के अनुकूल नहीं है। भारतीय विचारकों ने पश्चिमी विचारकों का जो आंख मूंदकर अनुकरण किया है वह किसी भी दृष्टि से स्वीकार्य नहीं है। वेदों में अध्यात्म के साथ-साथ पूरा-पूरा विज्ञान, भूगोल, गणित आदि विद्याएं हैं केवल कर्मकांड ही नहीं है। ऐसी निर्भीकता से उद्घोषणा करने वाले प्रथम विचारक महर्षि दयानंद ही थे। वैदिक संस्कृति तप और त्याग प्रधान रही है। तप त्याग की भावना को आर्य समाज ने एक आम शहरी नागरिक ही नहीं  गांव के साधारण व्यक्ति के जीवन में भी स्थापित किया। जातिवाद के उन्मूलन में आर्य समाज के किए गए कार्यों की डॉक्टर अंबेडकर जी ने भी अनेक अवसर व स्थलों पर भूरी-भूरी प्रशंसा की है। संतराम बीए जैसे आर्य समाज के स्कॉलरो ने आर्य समाज के इस कार्य को अविभाजित पंजाब में आगे बढ़ाया।

पराधीनता के लंबे कालखंड के कारण व वैचारिक संस्कृतिक अंग्रेज आदि प्रायोजित षड्यंत्र के कारण व वैदिक धर्म ग्रंथों में मिलावट के कारण भारतीय आम जनमानस वैदिक विरासत से नितांत अनभिज्ञ हो गया था। आर्य समाज ने इस दिशा में बहुत ही उल्लेखनीय कार्य किया। अपने गुरुकुलों में स्त्री पुरुष ही नहीं समाज के सभी वर्गों के लिए बिना जातिगत भेदभाव के वेदाध्ययन के द्वार आर्य समाज ने खोल दिए। नतीजा 20वीं सदी के उत्तरार्ध में हजारों उपदेशक प्रचारक शास्त्री आचार्य इन गुरुकुलों से निकले जिन्होंने सुदूर वनवासी क्षेत्र में वनवासी जन जो ब्रिटिश सरकार के संरक्षण में निज धर्म का त्याग कर रहे थे वहां भी उल्लेखनीय कार्य किया धर्मांतरण के विरुद्ध किया। आर्य समाज की सार्वदेशिक सभा व प्रांतीय सभा व न्यूनतम इकाई आर्य समाजों ने वैदिक धर्म प्रचार्थ संस्कृत आदि भाषा के प्रचार के लिए अमूल्य साहित्य रचा सरल सहज लोक भाषा में। स्वामी दर्शनानंद, मुनीश्वरानंद, स्वामी स्वतंत्रानंद, गंगा प्रसाद उपाध्याय जी, महात्मा नारायण स्वामी जैसे आर्य संन्यासी चलता फिरता पुस्तकालय थे। रामायण, महाभारत, विदुर नीति, चाणक्य नीति, आदि शिक्षा ग्रन्थों की जीवन निर्माण विषयक शिक्षाओं पर बहुत साहित्य आर्य संन्यासी विद्वान आचार्यों ने रचा। वैदिक धर्म के साहित्य भंडार को आर्य विद्वानों ने समृद्ध किया। लाहौर के महाशय राजपाल जैसे विद्वानों ने दिल्ली गोविंद हासानन्द लाल दीपचंद जैसे मिशनरी प्रकाशकों ने इस कार्य में अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया। आर्य भाषा हिंदी के प्रचार के लिए आर्य समाज ने आजादी के ठीक उपरांत पंजाब में हिंदी आंदोलन किया जहां हिंदी व हिन्दी भाषी संप्रदायिक संकीर्ण मानसिकता का शिकार हो रहे थे। आजादी से पूर्व वहीं जब हैदराबाद के निजाम ने मंदिरों पर अपनी रियासत में ताले लगवा दिए हिंदुओं की आस्था पर कुठाराघात किया तब उत्तर भारत से जाकर आर्यों के जत्थों ने जिसमें हजारों आर्यसमाजी हैदराबाद सत्याग्रह सेनानी शामिल थे उन्होंने वहां मंदिरों के ताले तुड़वाये। मंदिरों में तब जाकर विधिवत पूजा अर्चना हो सकी। इतना ही नहीं मॉरीशस, दक्षिण अफ्रीका, सूरीनाम आदि देशों में भी आज आर्य समाज का संगठन कार्य कर रहा है वहां भी वैदिक संस्कृति विरासत पुष्पित पल्लवित हो रही है।

1950 से लेकर 2000 तक के कालखंड में आर्य समाज का कार्य क्षेत्र भी बहुत स्वर्णिम रहा। शिक्षा पर्यावरण स्वदेशी वैदिक जीवन मूल्य पर ही यह केंद्रित रहा। भू्रण हत्या धर्मांतरण महिला सशक्तिकरण भी इसके मूल में रहा।

वर्तमान में देश की राजधानी दिल्ली में सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के तत्वावधान व ज्ञान ज्योति पर्व महोत्सव अभियान के तहत रोहिणी स्वर्ण जयंती पार्क में 70 एकड़ परिसर में भव्य अंतर्राष्ट्रीय आर्य महासम्मेलन का 30 अक्टूबर से 2 नवंबर तक आयोजन हुआ जिसमें 35 देशों के आर्य प्रतिनिधियों व भारत के 5 लाख से अधिक आर्य जनों ने सहभागिता की। इस ऐतिहासिक महासम्मेलन का विधिवत उद्घाटन भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री गुजरात के ही लाल नरेंद्र मोदी जी ने किया। उन्होंने महर्षि दयानंद की 200 वीं जयंती एवं आर्य समाज की स्थापना के 150 वर्ष के उपलक्ष्य में विशेष सिक्के स्मारक के रूप में जारी किए। माननीय प्रधानमंत्री जी ने वैदिक विरासत देश की स्वाधीनता से लेकर देश के वैचारिक जागरण अंधविश्वास पाखंड कुरीतयों से मुक्त समाज के उन्मूलन में आर्य समाज के विगत 150 वर्षों में किए गए कार्यों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। साथ ही उन्होंने आर्यजनों से यह भी अपेक्षा की कि स्वदेशी का प्रथम मंत्र महर्षि दयानंद ने फूंका आज मुझे देश के कोटि-कोटि आर्य जनों से यही अपेक्षा है कि वह पुनः स्वदेशी के मिशन को घर-घर तक ले जाएं। मेक इन इंडिया के माध्यम से पुनः अपार परम वैभवशाली भारत के निर्माण में अपना सार्थक योगदान दंे। देश दुनिया के लाखों आर्यों ने एक स्वर में प्रधानमंत्री जी के आग्रह को स्वीकार किया व दिव्य संकल्प लिया विकसित वैभवशाली विश्व गुरु भारत के निर्माण के लिए।